इंटरसेक्शनलजेंडर ख़ुद लड़नी होगी औरत को अपनी लड़ाई

ख़ुद लड़नी होगी औरत को अपनी लड़ाई

औरत के हक़ और अधिकार की बातें कानून की किताबों से निकलकर पूरे दुनिया में पसरे इसके लिए समाज और व्यवस्था को सार्थक प्रयास करना होगा।

संगीता सहाय 

सृष्टि की रचना के आरम्भ में समाज के संचालन की जिम्मेदारी स्त्री-पुरूष दोनों को समान रूप से थी। उसे एक साथ मिलकर चलाने और बढाने का अधिकार और कर्तव्य भी दोनों को समान ही था। आज भी आधुनिक कृत्रिम सामाजिक व्यवस्था से दूर रहने वाले हमारे जनजातीय समाज में हमे एक समतामूलक समाज का स्वरूप  देखने को मिलता है। ज्यों-ज्यों वक्त बढ़ा लोगों की जरूरतें भी बढ़ी।

बदलते परिवेश ने आर्थिक और सामाजिक स्वरूप को विस्तारित किया। नित नए अन्वेष्ण और लोगों की बदलती सोच ने समाज के बनावट को  बदला। और इसी बढ़ते शक्ति, सत्ता तथा अर्थ के महत्व ने पुरूषों को शेष सारी संज्ञाओं का केंद्र बनाना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे पुरूष, स्त्री के भावनात्मक पक्ष और अपनी मजबूत शारीरिक गठन का लाभ उठाकर उस पर हावी होता गया। सत्ता और सम्पत्ति दोनों पर कब्जा जमाता गया। अपनी झूठी सत्ता और सर्वोच्चता को कायम रखने के लिए नये-नये नियम गढ़ता गया। उसके द्वारा बनाए गए नियम और कानून उसे ज्यादा-से-ज्यादा सशक्त और औरत को और कमजोर बनाता गया।

दशकों तक चले और चल रहे महिला आंदोलनों, शिक्षा के प्रसार, पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन, फिल्मों और विभिन्न  सरकारी प्रयास आदि के माध्यम से स्त्री के अधिकारों, उसे पुरूषों के बराबर तरजीह देने की बात ने समाज में बदलाव के संकेत दिए हैं। औरत धर्म, परम्परा और संस्कार रूपी कछुए के सख्त खोल से सर निकालकर कुछ कहने, सुनने लगी है। परम्पराओ  की सख्त दीवारों में भी दरारें आ रही है। पर गौरतलब है कि सबकुछ चंद बड़े नामों और लड़कियों/औरतों तक ही सीमित है। और उनके लिए भी समाज द्वारा बनाए गए स्त्री के लिए वर्जित क्षेत्र के भीतर प्रवेश करना गुनाह ही है। आम स्त्रियों के लिए तो सारे नियम, कानून लगभग वही है।

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विवाह स्त्री, पुरूष दोनों के लिए सामाजिक, जैविक जरूरत होने के साथ-साथ संतानोत्पत्ति का भी माध्यम है। यह सामाजिक सरंचना की नींव है। गौरतलब है कि थोपी परम्पराओं ने दोनों की इस समान जरूरत को जहां एक के लिए वरदान बना दिया है वहीं दूसरे के लिए अभिशाप। अगर किसी परिवार में बेटे-बेटी दोनों समान रूप से योग्य हों या फिर लड़की अपने भाई से बेहतर स्थिति में हो, तो भी विवाह के सन्दर्भ में जहां लडके के लिए, लड़की वाले पूरे साजो-सामान के साथ बिछे जाते है, वही लड़की के विवाह के लिए परिवार वालो को सैकड़ो चौखट देखने पड़ते हैं। कही दहेज़ की लम्बी-चौड़ी लिस्ट, कही सौन्दर्य, कही कुछ तो कही कुछ…..! बात रूकती ही जाती है।

स्त्री के हक़ और अधिकार की बातें कानून की किताबों से निकलकर पूरे दुनिया में पसरे इसके लिए समाज और व्यवस्था को सार्थक प्रयास करना होगा।

अगर गलती से लड़की अपना सम्मान करना जानती हो, अपनी नुमाईश और दहेज़ की विरोधी हो, तो विवाह के मंडी में उसका रखवाला/खरीदार मिलना मुश्किल ही होता है। पर यह तो बात हुई उस लड़की की जो कमाऊं है। और जरूरत पड़ने पर अपनी जिंदगी अपने दम पर जी सकती है। वो अधिसंख्य लड़कियाँ जो इसी एहसास के साथ उम्र की सीढियां चढ़ती हैं कि आने वाले वक्त में उनके सपनों का राजकुमार आयेगा और उन्हें उनके ख्वाबो की दुनिया में ले जाएगा, जिसपर सिर्फ उनका अधिकार होगा। जहां उन्हें अपने लड़की होने का दंड नहीं भोगना पडेगा। ये लड़कियाँ जन्म ही लेती है विवाह के लिए। उनकी पढाई, उनका ज्ञान, हँसने, बोलने, चलने और खड़े होने का तरीका  सब कुछ विवाह के उद्देश्य से तय होता है।

यह सिलसिला लम्बे समय से बदस्तूर जारी है और आने वाले समय में भी जारी रहेगा। क्योंकि दहेज़ आज संपत्ति उगाही का सुविधाजनक माध्यम बन चुका है। बढ़ते दहेज़ ने वैवाहिक समीकरण को जटिल बना दिया है। इसके कारण बेमेल विवाह, बाल विवाह, दहेज़ हत्या, आत्महत्या जैसी विभत्स घटनाए आम हो गई है।

इन सबका कारण है, सदियों पुरानी वह विकृत सोच जिसमें पुत्र को सत्ता, संपत्ति और शक्ति का द्योतक माना गया। उसके मुखाग्नि देने को ही जीवन की मुक्ति का मार्ग माना गया।  संसार की सारी क्रियायों-प्रक्रियायों की रचना पुरूष वर्ग के हित को केंद्र में रखकर की गई और सारी संज्ञायो को उसका हेतु बना दिया गया।

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सदियों से भारत में महिलाओ की यौन-शुचिता को जीवन-मृत्यु का सवाल माना गया है। बावजूद इस देश में हर साल लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, जिनमें से अधिकांश मामले पुलिस और कानून की चौखट तक नहीं जा पाते और जो जाते भी है वो उन पेचीदे गलियोँ में भटकते-भटकते दम तोड़ देते है या तुड़वा दिए जाते है। समाज के नजरिये में बदलाव के संकेत भी दिख रहे है; पर अधिकांशतया ये बदलाव कुछ हाई-प्रोफाईल बन चुके मुद्दों और रसूखदार लोगो के लिए ही है।

एक ज़रूरी सवाल यहाँ ये है कि आखिर बलात्कार होता क्यों है? क्यों हजारो-हजार वर्षों से लेकर अब-तक गाहे-बगाहे होने वाले युद्धों, दंगो, आपसी रंजिशो, वर्गीय झगड़ो आदि में किसी कौम, जाति, वर्ग-विशेष या परिवार को सबक सिखाने के तौर पर इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है? क्यों एक बलात्कार का अपराधी सरेआम सीना ताने घूमता है और जिसके साथ अपराध हुआ है वह येन-केन-प्रकारेण गर्दन झुकाने और स्वयं को छुपाने पर मजबूर होती है? और क्यों तमाम सामाजिक व्यवस्थाएं समस्या की जड़ तक जाने के बजाय स्त्री को ही कर्तव्यों और नसीहतो की पोटली थमाने को आतुर दिखती है?

हमारी सामाजिक सुचिता का वास बहन-बेटी की योनि में ही माना जाता है।

हमारी सामाजिक सुचिता का वास बहन-बेटी की योनि में ही माना जाता है। और पुरूष-बाहुबल उसपर पहरा, उसके बचाव को अपना दायित्व समझता है। बात वैवाहिक परम्पराओं के अंतर्गत स्त्री को एक हाथ से दूसरे हाथ को सौंपे जाने की हो, नथ उतारने की हो या भाई-बहन के तीज-त्योहारों की, सबों के मध्य में औरत की योनि के बचाव को ही केंद्र में रखा गया है। औरत की जान भले ही चली जाए पर उसकी कथित ‘इज्जत’ बची रहनी चाहिए।

गौरतलब ये भी है बलात्कार के सन्दर्भ में भी शोर तब उठता जब बात पुरूष के अपने घर, समाज की बहन-बेटी की होती है। कमजोर, दलित, आदिम और गरीबी की जाल में फंसी औरतों, वेश्यालायों में दो वक्त की रोटी के लिए नारकीय  जीवन जीती महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कारो पर हमारा समाज पूरी तरह चुप्पी साधे है। क्योंकि यह तो सबों के लिए उस बहते नाले के समान है जिसमें  जो जब चाहे दूसरे की नजर बचाकर उतर जाता है और डुबकी लगाने के बाद किनारे आकर कान पर जनेऊ चढ़ा लेता है।

बलात्कार की जड़े हमारे सामाजिक सोच और उसकी बनावट में है। और इससे निवृति का रास्ता उसके आमूल-चूक परिवर्तन में, समतामूलक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में और औरत के सम्पूर्ण विकास में निहित है। जिसमें सभी को समानतापूर्वक अपने इच्छित को चुनने और अनिच्छित को पूरे अधिकार के साथ ना कहने की आजादी हो।

मीडिया के बारे में कहा जाता है कि इसने औरत की स्वतंत्रता और समानता की दिशा में अहम भूमिका निभाई है । इससे बहुत हद तक सहमत हुआ जा सकता है। पर गौर करे तो हम पायेंगे की ज्यादातर बिन्दुओं पर मीडिया ने औरत को यही एहसास कराया है कि तुम सिर्फ भोग्या हो, तुम्हारे उड़ान की  सीमाएं तुम्हारे आकाओं की हदों तक ही है। इन्हीं जाल में उलझकर औरतों की अधिकांश आबादी अब तक विकास के अंतिम पायदान पर ही ठिठकी है। साथ ही गौरतलब ये भी है कि आधी आबादी के लिए बूना गया यह मकड़जाल पूरे समाज के विकास को अवरूद्ध कर रहा है। अपने आधे हिस्से को आगे बढ़ाकर हमारा समाज एक लंगड़े वर्तमान और भविष्य का ही निर्माण कर रहा है।

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जरूरत है कि हर वर्ग इस पर गहराई से विचार करे और निदान के लिए पहल करे। पर इसके लिए सबसे पहले स्त्रियों को मजबूती से आगे आना होगा। उन्हें मीमांसा करनी होगी कि किस प्रकार उन्हें गुलाम बनाने के लिए परम्पराएं गढ़ी गई, ग्रन्थ लिखे गए, मनगढ़ंत तथ्यों को बनावटी सच का जामा पहनाकर औरत के दिल, दिमाग, शरीर हर चीज को पुरूषों के लिए घोषित कर दिया गया। यह सब क्यों और कैसे हुआ इस पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। इसके लिए दिल पर दिमाग को तरजीह देते हुए उन तमाम झूठी मान्यताओं को तिलांजली देनी होगी जिन्होंने औरत से उनके इंसान होने के हक़ को छीनकर उन्हें शक्तिहीन, दोयम और भोग्या बनाया। स्त्री को पवित्रता-अपवित्रता, यौन-शुचिता, सम्मान-असम्मान, शर्मो-हया की हदों से बाहर निकलना होगा। औरत घर और बाहर दोनों को बखूबी संवार सकती है, शक्ति और सत्ता हासिल कर उसका सही उपयोग कर सकती है, यह सत्य हर काल में सिद्ध होता रहा है। बावजूद इसके उसे कमजोर और कमअक्ल शाबित करने की साजिशें भी हर युग में रची जाती रही है। इसी साजिश को समझने और मिटाने की जरूरत है।

स्त्री के हक़ और अधिकार की बातें कानून की किताबों से निकलकर पूरे दुनिया में पसरे इसके लिए समाज और व्यवस्था को सार्थक प्रयास करना होगा। बलात्कार या अन्य किसी अपराधिक कृत्य के बाद औरत को अनावश्यक शर्म और जिल्लत की छाया से निकलकर पूरे दम ख़म के साथ अपराधी को सजा दिलाने की पहल करनी होगी।

‘सबसे पहले जिन्दगी की अहमियत है, उसके बाद ही कुछ और’- इस तथ्य को औरत को सिरे से ग्रहण करना होगा। अपनी चाहतो के लिए उसे भी उपभोक्ता बनना होगा। सन्दर्भ संपत्ति का हो, सम्मान का हो, न्याय का हो या अन्य का… उसे अपने सम्मान, अधिकार और हितो के लिए पहल करना सीखना होगा। उसे अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। स्वयं को पुरूष के खोल में समाकर  इतराने के बजाय अपने ‘औरतपने’ पर नाज करना होगा।

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यह लेख संगीता सहायने लिखा है, जिसे इससे पहले स्त्रीकाल में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : humanitycollege

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