इंटरसेक्शनल रजनी तिलक : दलित महिला आंदोलन की एक सशक्त अगुवा

रजनी तिलक : दलित महिला आंदोलन की एक सशक्त अगुवा

रजनी का व्यक्तित्व एक मज़बूत महिला का रहा है। एक ऐसी महिला जो अन्याय होता हुआ नहीं देख सकती है और अधिकारों के लिए लड़ती है।

एक महिला के लिए मर्यादाओं का फ्रेम इतना कसावट भरा होता है कि उस फ्रेम में एक महिला के सांसे सुबक कर रह जाती है। महिलाओं ने जब भी रूढ़ीवादी सोच, यौनिकता, पितृसत्ता ढांचागत भेदभाव या अन्य दमनकारी नीतियों पर सवाल उठाया है या अपनी आवाज़ उठायी है, उस वक्त महिलाओं की आवाज़ को कुचलने का भरपूर प्रयास हुआ है। पर कहते हैं ना जिनकी आवाज़ में बुलंदी होती है उनकी आवाज़ को कोई रोक नहीं सकता। ऐसी ही एक आवाज़ है, जिसका नाम रजनी तिलक है। 

पहले उनका नाम तिलक कुमारी था‌ मगर अपने एक्टिविज्म की शुरुआत उन्होंने रजनी स्वराज के नाम से किया था।  जिसके बाद लोग उन्हें रजनी तिलक के नाम से ही जानने लगे। दलित महिलाओं के हक के लिए आवाज़ उठाने वाले रजनी तिलक का जीवन ख़ुद भी संघर्ष से परिपूर्ण रहा था। 

रजनी तिलक एक दलित नारीवादी होने के साथ-साथ एक लेखिका भी रही हैं। उन्होंने ख़ुद को तमाम आडंबरों से दूर रखा और तर्क की कसौटी पर पितृसत्ता और समाज के कई रूढ़िवादी ढांचों को ताक पर रखा। रजनी तिलक का जन्म 27 मई 1958 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता एक दर्जी़ थे। रजनी के घर की पारिवारिक हालत अच्छी नहीं थी। रजनी के पिता ने उन्हें बेहतर शिक्षा देने की भरपूर कोशिश की मगर साल 1975 में उच्च माध्यमिक शिक्षा हासिल करने के बाद आर्थिक तंगी उनके पढ़ाई की रुकावट बन गई, जिसके बाद वे सिलाई, कढ़ाई और स्टेनोग्राफी जैसे कामों को सीखने लगीं और घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परिवार की मदद करने का निर्णय किया। 

उसके बाद अपनी क्षमता और कुशलता के अनुसार उन्होंने भाई-बहनों के देखभाल का भी बीड़ा उठा लिया। आईटीआई के दौरान ही रजनी अन्य समान विचारधारा वाली महिलाओं और दोस्तों के संपर्क में आईं और यहीं से उनके सामाजिक कार्यों में सक्रियता शुरू हुई।

स्त्रियों के अधिकारों के लिए पुरुषों को अलग करना सही नहीं है

रजनी कभी भी पुरुषों से अलग दुनिया बनाने की बात नहीं करती हैं क्योंकि उनका मानना है, जब तक समाज स्त्री के प्रति सहज नहीं होगा तब तक स्त्री मुक्ति का सवाल अधूरा है। मानवता का सवाल पूरी मानव जाति का सवाल है न कि केवल स्त्री या केवल पुरुष का इसलिए अगर स्त्रियों को उनके अधिकारों से अवगत करवाना होगा, तब समाज में बदलाव लाने के प्रयास भी पुरुषों की मौजूदगी में ही होने चाहिए। 

रजनी हमेशा पारिवारिक लोकतंत्र की बात करती हैं क्योंकि जब अंतर्जातीय और अंतर धार्मिक विवाह का आयोजन होगा, तभी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में सुधार आएगा। उनका मानना रहा है कि सम्पत्ति, सत्ता और सम्मान में बराबर हिस्से के लिए औरतों को सभी संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल हथियार की तरह करना चाहिए ताकि महिलाएं अपने अधिकारों को समझ सकें और समाज के बनाए गए घूंघट से बाहर देख सकें। 

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दलित आंदोलन और स्त्री अस्मिता को लेकर पूरे देश में जिस तरह से उन्होंने एक मज़बूत कड़ी बनाई थी। उसे उनकी पूंजी कही जा सकती है। उन्होंने अपने संघर्ष के दौरान महिलाओं के हक के लिए दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और उत्तर भारत में बहुत यात्राएं की थीं। साथ ही हर जगह स्त्रियों को लामबंद करने का प्रयास किया। क़रीब चालीस सालों तक वे ज़मीनी कार्यकर्ता के रूप में काम करती रहीं क्योंकि उनके लिए शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना अपनी आत्मा को जगाने के बराबर था। उनकी आदत थी कि वह कभी भी कुछ गलत होता नहीं देखती थी और जहां भी रहती वहीं से अपनी आवाज़ बुलंद करना शुरू कर देती थी। 

रजनी का व्यक्तित्व एक मज़बूत महिला का रहा है। एक ऐसी महिला जो अन्याय होता हुआ नहीं देख सकती है और अधिकारों के लिए लड़ती है। इससे इतर उनका एक व्यक्तित्व बहुत ही सरल रहा है, जिसमें वे अपने दोस्तों से बेहद साधारण तरीके से बात करती हैं। वे कभी भी अपने प्रभावी व्यक्तित्व का प्रयोग नहीं करती हैं। रजनी ‘दलितपैंथर’ की दिल्ली यूनिट की संस्थापक सदस्य रहीं हैं। जिसमें ‘दलितपैंथर’ का संविधान बनाने में अन्य साथियों के साथ उनकी भी बराबर की हिस्सेदारी थी। रजनी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि ‘दलितपैंथर’ की दिल्ली यूनिट का गठन करने के बाद  ‘अखिल भारतीय आंगनवाड़ी यूनियन’ की स्थापना हुई थी।  

यह सब काम करते हुए रजनी तिलक ने साल 2005 से दलित स्त्रीवाद पर महिला आंदोलन के साथ चर्चा आरंभ की थी। उसके बाद तो यह सिलसिला बढ़ता ही गया।

  • साल 2007 में नागपुर में अक्टूबर महीने में दलित स्त्रीवाद पर कार्यशाला आयोजित की गई थी। 
  • साल 2008 में ‘राष्ट्रीय दलित महिला आंदोलन’ नाम से उत्तर भारत में दलित-आदिवासी महिलाओं की नेटवर्किंग के लिए संगठन की स्थापना की थी।
  • बिहार, झारखण्ड, हरियाणा ,उत्तरप्रदेश, उड़ीसा और दिल्ली में ‘राष्ट्रीय दलित महिला आंदोलन’ की एक हज़ार सदस्य हैं।

रजनी ने दलितों पर हो रहे अत्याचारों की फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग की और अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी लगातार सक्रिय रहीं।  उन्होंने दलित, आदिवासी और अकेले रहने वाली महिलाओं को डायन कहकर मार देने की घटनाओं का बिहार, झारखंड और उड़ीसा के 12 ज़िलों में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ के साथ मिलकर अध्ययन किया और यह जाना कि‘डायन’ कहकर मारी जाने वाली औरतें सिर्फ दलित-आदिवासी और पिछड़े समुदाय की हैं। रजनी अपने संघर्षों से हमेशा सीखती रहा करती थीं, जिसका प्रभाव उनकी लेखनी में साफ झलकता था।  दलितों, महिलाओं और दलित महिलाओं के रोज़ाना के संघर्षों में शामिल होकर वे अपने अनुभवों को दर्ज़ करने के लिए विभिन्न विधाओं में लेखन करती थीं। 

रजनी का व्यक्तित्व एक मज़बूत महिला का रहा है। एक ऐसी महिला जो अन्याय होता हुआ नहीं देख सकती है और अधिकारों के लिए लड़ती है।

हिंदी भाषा में सावित्री बाई फुले के महत्व से परिचित कराने में भी रजनी तिलक की उल्लेखनीय भूमिका रही है। उन्होंने हिन्दी साहित्य को ‘अपनी ज़मीं-अपना आसमां’ जैसी आत्मकथा और ‘पदचाप’, ‘हवा सी बेचैन युवतियां’, ‘अनकही कहानियां’ जैसे कविता-संग्रह भी दिए।  अपनी एक कविता में दलित महिलाओं को ललकारते हुए वे कहती हैं-

तू पढ़ महाभारत न बन कुंती।
तू पढ़ रामायण न बन सीता, न कैकेयी।
पढ़ मनुस्मृति उलट महाभारत, पलट रामायण
पढ़ कानून मिटा तिमिर, लगा ललकार
पढ़ समाजशास्त्र बन सावित्री लहरा शिक्षा का परचम।
वहीं अपनी एक कविता में जीरो की तुलना स्त्रियों से करते हुए कहती हैं-
मैं स्त्री हूं, ज़ीरो हूं,
ज़ीरो से संख्या में बदल सकती हूं,
और अपना स्थान रखती हूं।

इस तरह दलित महिलाओं के हक के लिए उनकी लेखनी भी अपने भाव बताती है।  30 मार्च 2018 को रीढ़ की बीमारी के कारण रजनी ने अपनी आखिरी सांसे ली मगर वे हर समय कहा करती थीं कि अभी बहुत काम करना है। रजनी का यह सफ़र महिलाओं को एक नया सूरज दे गया है। अब महिलाओं की ज़िम्मेदारी है कि वे इसकी रोशनी को बनाए रखें। 

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तस्वीर साभार : youtube

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