इंटरसेक्शनल दक्षिण भारत के ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की कहानी

दक्षिण भारत के ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की कहानी

आत्मसम्मान आंदोलन की यही सफलता थी कि दलित औरतों की एक बड़ी संख्या को ये एहसास हुआ कि उन्हें अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने का पूरा अधिकार है।

साल 1938 की बात है। औरतों की भीड़ ने मद्रास (जिसे आज हम चेन्नई के नाम से जानते हैं) की सड़कों पर क़ब्ज़ा कर लिया। नारे लगाती, झंडे फहराती इन महिलाओं की मांग ये थी कि तमिलनाडु के स्कूलों में हिंदी सिखाना बंद किया जाए। वहां की जनता पर हिंदी थोपना बंद किया जाए और तमिल भाषा, संस्कृति और इतिहास को हर जगह प्राथमिकता दी जाए। इसके लिए वे धरने पर बैठी, भूख हड़ताल किए और पुलिस प्रशासन के डंडे भी सहे। अंजाम ये हुआ कि इन प्रदर्शनकारी औरतों में से 73 को उठाकर जेल में डाल दिया गया, जिनमें से कई औरतों के साथ उनके छोटे बच्चे भी थे।

ये घटना पूरे दक्षिण भारत में फैल रहे ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ का एक छोटा सा हिस्सा थी। इसकी शुरुआत साल 1925 में कांग्रेस के एस. रामनाथन ने की थी। ये एक दलित अधिकार आंदोलन के तौर पर शुरू हुआ क्योंकि रामनाथन के अनुसार कांग्रेस में दलितों के हित पर ध्यान देनेवाला कोई नहीं था और वर्ण व्यवस्था पर गाँधी के विचार बेहद पिछड़े और रूढ़िवादी थे। दलितों को अपने हक़ की मांग करने का मौक़ा देने के लिए ये आंदोलन शुरू करने के बाद रामनाथन ने इसका नेतृत्व मशहूर क्रांतिकारी ई. वी. रामस्वामी ‘पेरियार’ को सौंप दिया।

ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के कट्टर विरोधी पेरियार न सिर्फ़ दलित अधिकार की बात करते थे बल्कि नारीवादी भी थे। उनका मानना था कि रूढ़िवादी सवर्ण समाज न सिर्फ़ ग़ैर-सवर्णों को शोषित करता है बल्कि महिलाओं की स्वतंत्रता पर भी पाबंदियां लगाता है। अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों पर निषेध लगाकर ये औरतों को शारीरिक और मानसिक तौर पर ग़ुलाम बना रखता है। इसलिए औरतों की आज़ादी के लिए ब्राह्मणवाद को जड़ से ख़त्म करना ज़रूरी है और एक नई समाज व्यवस्था की स्थापना ज़रूरी है जहां महिलाओं को यौनिक और शारीरिक आज़ादी हो, उन्हें तलाक़ देने और गर्भनिरोधण करने का हक़ हो और जहां लिंग के आधार पर भेदभाव का कोई अस्तित्व न हो।

पेरियार को इस बात से भी ऐतराज़ था कि उत्तर भारत की संस्कृति देश की बाकी संस्कृतियों को खा रही है। हर जगह हिंदी का ही वर्चस्व है और ग़ैर-हिंदी भाषियों को ज़बरदस्ती ‘राष्ट्रभाषा’ के तौर पर हिंदी सीखने के लिए मजबूर किया जाता है। पेरियार के लिए ये भी एक तरह की सामाजिक असमानता ही थी, जहां एक ख़ास समुदाय की भाषा और संस्कृति को भारत की अन्य भाषाओँ और संस्कृतियों से ऊपर माना जाता आया है। वे चाहते थे कि हिंदी और उत्तर भारत की गुलामी करने के बजाय दक्षिण भारतीयों को अपनी संस्कृति, इतिहास और पहचान पर गर्व हो और ज़बरदस्ती हिंदी बोलने की जगह वे अपनी मातृभाषा में बात करने से शर्माएं न। इसी तरह आत्मसम्मान आंदोलन जाति-विरोधी ही नहीं बल्कि एक नारीवादी और सांस्कृतिक आंदोलन भी बन गया।

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महिला सशक्तिकरण की ओर आत्मसम्मान आंदोलन का बहुत बड़ा योगदान रहा। ‘देवदासी’ प्रथा को प्रतिबंधित करने में इसका बहुत बड़ा हाथ रहा था। इस प्रथा के अनुसार छोटी बच्चियों को मंदिरों में देवता की आराधना के लिए रखा जाता था। पूरी ज़िन्दगी उन्हें मंदिर में क़ैद करके रखा जाता था और ब्राह्मण पुरोहितों के हाथों शोषित भी होना पड़ता था। आंदोलन का एक और बेहद ज़रूरी कदम था ‘आत्मसम्मान विवाह’ शुरू करना, जो जातिवाद और पितृसत्ता दोनों पर ही एक करारा तमाचा था।

सवर्ण हिन्दू समाज जाति या धर्म के बाहर शादी की इजाज़त नहीं देता। आज भी हम रोज़ देखते हैं किस तरह जाति के बाहर शादी या प्यार करने के लिए नृशंस तरीके से लोगों की हत्याएं की जाती हैं। पेरियार ने इस आंदोलन के ज़रिये औरतों को अपनी जाति और धर्म के बाहर साथी चुनने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्हें ये भी सलाह दी कि शादी के पांच साल होने से पहले वे बच्चे पैदा न करें। ऐसी बहुत सारी शादियां उन्होंने ख़ुद कराईं, जिनका नाम ‘आत्मसम्मान विवाह’ पड़ गया। इन शादियों की एक ख़ासियत ये भी थी कि इनमें कोई ब्राह्मण पुरोहित या वैदिक रिवाज़ शामिल नहीं थे। ये शादियां आज भी तमिल नाडु में कई जगह प्रचलित हैं। इनमें वरमाला के सिवा कोई भी रिवाज़ शामिल नहीं रहता और शादी के वचन भी संस्कृत की जगह तमिल में लिए जाते हैं। दुल्हन को सिंदूर, मंगलसूत्र आदि भी नहीं पहनाए जाते। पेरियार की पत्नी नागम्माई ऐसी बहुत सी शादियों में शामिल होती थीं, जहां पर उन्होंने शादीशुदा औरतों को सिंदूर, मंगलसूत्र की ‘ग़ुलामी’ से छुटकारा पाने के लिए प्रेरित किया।

नागम्माई इस आंदोलन की एक मुख्य चेहरा थीं। वे इस आंदोलन के मुखपृष्ठ ‘कुडी अरस’ की संपादिका थीं और ‘वैकोम सत्याग्रह आंदोलन’ का नेतृत्व भी कर चुकी थीं। उनके साथ और भी महिलाएं थीं जिनका इस आंदोलन में एक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही। जैसे ‘भारतीय अनुसूचित जाति सम्मेलन’ की अध्यक्ष अन्नाई मीनंबल, जिन्होंने ई. वी. रामस्वामी को ‘पेरियार’ यानी ‘महान’ का ख़िताब दिया था और मूवलूर रमामिर्ताम जो ख़ुद कभी देवदासी हुआ करती थीं और देवदासी प्रथा के विरोध में मुखर थीं। उन्होंने कई सारे आत्मसम्मान विवाह कराए थे और कांग्रेस की सदस्य रहते समय पुरुषवादी सामाजिक रिवाज़ों के ख़िलाफ़ कई बार अपनी आवाज़ उठा चुकी थीं। इन महिलाओं के अथक प्रयासों की वजह से आंदोलन और बड़ा होता गया और इसका प्रभाव भी फैलता गया।

आंदोलन का एक और बेहद ज़रूरी कदम था ‘आत्मसम्मान विवाह’ शुरू करना, जो जातिवाद और पितृसत्ता दोनों पर ही एक करारा तमाचा था।

धीरे-धीरे ये आंदोलन कई संगठनों का रूप भी लेने लगा, जैसे ‘तमिलनाडु पुरोहित बहिष्कार संगठन’ जिसका मक़सद था ब्राह्मण पुरोहितों का संपूर्ण बहिष्कार और शादियों में ब्राह्मणवादी रिवाज़ों पर रोक। एक और संगठन था ‘विधवा विवाह सभा’, जिसने पूरे दक्षिण भारत में लगभग हज़ारों विधवा औरतों की दोबारा शादी कराई। आत्मसम्मान आंदोलन की यही सफलता थी कि औरतों, ख़ासकर दलित औरतों की एक बड़ी संख्या को ये एहसास हुआ कि उन्हें अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने का पूरा अधिकार है। उनकी जाति या उनका लिंग उनके रास्ते में अवरोध बना नहीं रह सकता और समाज ये कभी तय नहीं कर सकता कि वे अपने व्यक्तिगत जीवन कैसे जीती हैं। वे कहां जाती हैं, किससे शादी करती हैं, या शादी करती भी हैं या नहीं।

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समावेशी नारीवाद के इतिहास में आत्मसम्मान आंदोलन एक बहुत ज़रूरी अध्याय है। इस आंदोलन ने औरतों को जातिवाद और पितृसत्ता दोनों के ज़ंजीरों से मुक्त किया और उन्हें इज़्ज़त से जीना सिखाया। आज फिर इस आंदोलन की ज़रूरत है औरतों को उन सभी सामाजिक बेड़ियों से आज़ाद करने के लिए, जिन्होंने आज भी हमारे हाथ पैर बांध रखे हैं और सामाजिक प्रगति की ओर हमारे सफ़र में तकलीफें पैदा कर रही हैं। उम्मीद है आज की औरतें इस क्रांति की चिंगारी को आसानी से बुझने नहीं देंगी।


तस्वीर साभार : homegrown

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