इंटरसेक्शनल सारा शगुफ़्ता : वह शायरा, जिसने अपनी शायरी से किया पितृसत्ता पर करारा वार

सारा शगुफ़्ता : वह शायरा, जिसने अपनी शायरी से किया पितृसत्ता पर करारा वार

पाकिस्तान के गुजरांवाला में 31 अक्तूबर, 1954 को जन्मी इस कवयित्री ने ‘नस्री नज़्म’ में लिखा है - ‘शायरी झंकार नहीं जो, ताल पर नाचती रहे।’

‘शायरी की तारीख़ में सारा की नज़्में एक कुँवारी माँ की हैरतें हैं।’

ये बात अमृता प्रीतम ने सारा शगुफ़्ता की शायरी पर टिप्पणी करते हुए कही थी। सारा शगुफ़्ता उर्दू शायरी की वह आवाज़ है जो पितृसत्तात्मक ढांचे को पलटकर रख देने पर आमादा है। उनकी शायरी में वह रचनात्मकता है जो दिन और काल की ज़ंजीरों को तोड़ने का जतन करती है। फूको ज्ञान और ताक़त के बीच संबंध की पड़ताल करते हुए कहते हैं कि  ‘ज्ञान का इस्तेमाल या तो ताक़त को स्वीकारने के लिए है या उसे समाज के लिए अनुकूलित करने में।’ ज़ाहिर है कि एक मर्दवादी समाज में ज्ञान पर पुरुषों की इज़ारेदारी होती है। जब कोई महिला अपने दमख़म पर ‘ज्ञान’ के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करायेगी तो पुरुष समाज पहली फ़ुर्सत में उसे ख़ारिज करने की कोशिश करेगा। यही मर्दवादी समाज जब सारा के बाग़ी तेवर, तर्क, विचार और चिंतन के आगे बौना साबित हुआ तो उसने उनको पाग़ल और बेराह क़रार दिया। सारा ने तो दुनिया को समझ लिया था लेकिन दुनिया उनको समझने में नाकाम रह गयी।

सारा शगुफ़्ता की समकालीनों में परवीन शाकिर, अज़रा अब्बास, किश्वर नाहीद, फ़हमीदा रियाज़ और सरवत हुसैन जैसी उर्दू की नारीवादी कवयित्रियां हैं। पर सारा की आवाज़ सबसे अलग, सबसे जुदा और ताक़तवर है। परवीन शाकिर की शायरी में रूमानी लहजा ग़ालिब रहता है। वहीं सारा की शायरी ज़िन्दगी के अधूरेपन का बयानिया और अनकही संवेदनाओं की मुकम्मल अभिव्यक्ति है, जिसमें अनछुए मसले हैं और चुभते हुए सवाल भी, सिसकती हुई आत्मा है और मचलता हुआ दिल भी। मतलब यह कि उनकी शायरी में अपने ज़ात की आवाज़ है और प्रतिवाद और प्रतिरोध की अनुगूंज है। परवीन शाकिर ने उनको श्रद्धाजंलि देते हुए कविता ‘टोमैटो केचप’ लिखी। इसकी चंद पंक्तियां हैं- एक न एक दिन तो / उसे भेड़ियों के चंगुल से / निकलना ही था / सारा ने जंगल ही छोड़ दिया।

सारा की तुलना अमेरिकी कवयित्री सिल्विया प्लाथ से की जाती है। इन दोनों कवयित्रीयों के दिलों में एक जैसा दर्द है और अभिव्यक्ति भी एक जैसी। बस भाषा और स्थान का फ़र्क़ है। दोनों की कविताओं में दर्द, संवेदना, अवसाद और स्त्री मन बहुत ही शिद्दत से अभिव्यक्त हुआ है। सिल्विया की मशहूर कविता ‘एज’ (कगार) की इन पंक्तियों को देखिये – ‘चाँद के पास दुख मनाने जैसा कुछ नहीं/ वह ताकता है अपने हड्डियों के नक़ाब से/ उसे आदत है ऐसी चीजों की/ उसका अंधकार चीख़ता है/ खींचता है।’ अब सारा की कविता ‘चाँद का क़र्ज़’ की ये पंक्तियां – ‘मैं मौत के हाथ में एक चराग़ हूँ/ जनम के पहिए पर मौत की रथ देख रही हूँ/ ज़मीनों में मेरा इंसान दफ़्न हैं।’ दोनों कवयित्रीयां क़रीब एक जैसे इश्तआरे और बिम्ब इस्तेमाल करती हैं। सरल से दिखने वाले ये बिम्ब अमूर्त तो हैं ही साथ में जीवन यात्रा की जटिलता लिए हुए हैं। 

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पाकिस्तान के गुजरांवाला में 31 अक्तूबर, 1954 को जन्मी इस कवयित्री ने ‘नस्री नज़्म’ में लिखा है – ‘शायरी झंकार नहीं जो, ताल पर नाचती रहे।’


सिल्विया की तरह सारा भी सारी ज़िन्दगी विकृत मानवीय संबंधों के बीच स्थायी प्रेम, अपना अस्तित्व, अपनी पहचान तलाशती रहीं। एक-के-बाद चार शादियाँ हुई और कई पुरुषों का सानिध्य तो मिला पर साथी कोई न मिल सका। उनके हर वैवाहिक संबंध की परिणति अपमान और उत्पीड़न में हुई। इन दोनों का जीवन एक जैसे मानसिक उत्पीड़न से गुज़रा और अंत भी एक जैसा हुआ — दोनों ने खुदकुशी की। सारा के पहले पति को छोड़ बाकी सब अच्छे-ख़ासे शायर भी थे, लेकिन वे भी समाज के बनाए गए ‘मर्द’ ही साबित हुए और उन्हें भी सारा का शायरी करना गवारा नहीं हुआ। उन्होंने इज़्ज़त के झूठे मानदंडों को अपनी शायरी से चुनौती दी। उनकी कविता ‘औरत और नमक’ की पंक्तियां हैं – ‘इज़्ज़त की बहुत सी क़िस्में हैं/ घूँघट थप्पड़ गंदुम/ इज़्ज़त के ताबूत में क़ैद की मेख़ें ठोंकी गई हैं/ घर से ले कर फ़ुटपाथ तक हमारा नहीं/ इज़्ज़त हमारे गुज़ारे की बात है/ इज़्ज़त के नेज़े से हमें दाग़ा जाता है/ इज़्ज़त की कनी हमारी ज़बान से शुरूअ’ होती है/ कोई रात हमारा नमक चख ले/ तो एक ज़िंदगी हमें बे-ज़ाइक़ा रोटी कहा जाता है।’

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अमृता प्रीतम और सारा शगुफ़्ता में बेमिसाल दोस्ती रही। सारा ने पंजाबी में भी शायरी की। सारा का पत्राचार अमृता से चलता रहता था और कई बार उन पत्रों में शगुफ़्ता अपने जीवन का दर्द बयान करतीं। उन्होंने सारा के जीवन और जीवनी को करीब से देखा, जाना और महसूस किया। उन्होंने सारा के सारे ख़तों को संकलित किया और उनकी याद में एक किताब ‘एक थी सारा’ लिखी। उन्होंने सारा के शब्दों को दुहराते हुए लिखा है – ‘ऐ खुदा, मैं बहुत कड़वी हूँ, पर तेरी शराब हूँ! और मैं उसकी नज़रों और उसके खत को पढ़ते-पढ़ते खुदा के शराब की बूँद-बूँद दूध पी रही हूँ।’

उनकी नज़्मों की दो किताबें ‘आंखे’ और ‘नींद का रंग’ प्रकाशित हुई। उनपर कई किताबें भी लिखी गयीं, जैसे – अमृता प्रीतम की ‘एक थी सारा’, अनवर सेन राय का नॉविल ‘ज़िल्लतों के असीर’, शाहिद अनवर का नाटक ‘मैं.. सारा’, असद अल्वी की ‘द कलर ऑफ़ स्लीप’ और आसिफ़ फर्रुख़ी की ‘एन इवनिंग ऑफ केज्ड बीस्ट्स’ आदि। मौत से पहले उन्होंने आख़िरी ख़त सिंधी की मशहूर कवयित्री अतिया दाऊद को लिखा, इसमें उन्होंने कहा – ‘आने वाले कल में मैं भी बुक शेल्फ़ में तुम्हें मिलूंगी और तुम भी बुक शेल्फ़ में सजी मिलोगी।’


पाकिस्तान के गुजरांवाला में 31 अक्तूबर, 1954 को जन्मी सारा शगुफ़्ता ने ‘नस्री नज़्म’ में लिखा है – ‘शायरी झंकार नहीं जो, ताल पर नाचती रहे।’ ज़ाहिर है उन्होंने ने तल्ख़ ज़िन्दगी की तल्ख़ शायरी की। समाज के बने बनाये मर्दवादी मूल्यों के खांचे में मिसफ़िट इस शायरा ने भारी अवसाद में 4 जून 1984 को ख़ुदकुशी कर लिया। ‘ज़िन्दगी की किताब का आख़री सफ़हा’ में उन्होंने लिखा है – ‘बदन से दिल उखड़ गया है मेरा/ बेख़बरी ठंडे क़दम चलने लगी है/ और बाल खोले मुझे बुला रही है।’

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यह लेख आतिफ़ रब्बानी ने लिखा है, जो भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय (मुज़फ़्फ़रपुर) में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर है।

तस्वीर साभार : amarujala

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