संस्कृतिसिनेमा फ़िल्म रात अकेली है : औरतों पर बनी फ़िल्म जिसमें नायक हावी है न

फ़िल्म रात अकेली है : औरतों पर बनी फ़िल्म जिसमें नायक हावी है न

फ़िल्म जिसमें स्त्रियों के खिलाफ़ हिंसा हो रही, वहां कलाकारों को कमज़ोर दिखाकर सामान्यीकरण को मज़बूत करने की प्रवृत्ति रिग्रेसिव लगती है।

फ़िल्म ‘रात अकेली है’ बेहतरीन स्टार कास्ट के साथ बनी औसत दर्जे की है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, श्वेता त्रिपाठी, तिग्मांशू धूलिया और शिवानी रघुवंशी जैसे आला दर्जे के कलाकारों के साथ बनी इस फ़िल्म की कहानी और कलाकारों के साथ न्याय कर पाने की अक्षमता इसकी औसत होने की जिम्मेदार है। फ़िल्म किसी बॉलीवुड ‘कॉमर्शियल’ मेनस्ट्रीम फ़िल्म की तरह ही है, जिसमें हीरो हीरोइन का रक्षक होता है और ऐन मौके पर उसे बचा ले जाता है और सभी मुश्किलों से अकेले जूझकर एक पुरुष नायक की संज्ञा को चरितार्थ करता है।

फ़िल्म की मूल कहानी एक उच्च वर्गीय परिवार के मुखिया ठाकुर रघुबीर सिंह की हत्या के बारे में हैं जिसके क़ातिल की तलाश करते हुए इंस्पेक्टर जटिल यादव (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) पारंपरिक उच्च वर्गीय परिवारों की आंतरिक राजनीति और पुलिस- राजनीति संबंधों के जुड़े बिंदुओं से गुज़रता है। यह फ़िल्म परिवार के भीतर किए जाने वाले यौन शोषण और उस पर चुप्पी के बारे में भी है। इसके साथ ही परिवार के पुरुषों की सेक्स कुंठा के बारे में भी है जहां झूठे मान-सम्मान और इज़्ज़त का ठप्पा सीधे स्त्रियों के माथे मढ़ दिया जाता है। फ़िल्म महिला ट्रैफिकिंग के बारे में भी है, जहां एक पिता अपनी बेटी को बेच देता है। फ़िल्म में यह भी दिखाया गया है कि किस तरह से मंच पर भाषण देने वाले ऊंची साख के नेता और कानून के रक्षक पुलिस इस प्रक्रिया में शामिल हैं।

असल में, यह देश जो किसी लड़की को ‘गोल्ड डिगर’ की संज्ञा देकर मज़ाक उड़ाता है और यौन शोषण के मामलों में लड़की को ही दोषी मानता है लेकिन बलात्कार होने पर इसकी संवेदनाएं इस तरह भड़कती हैं कि सोशल मीडिया पर आग बबूला हो जाता है और पुलिस एनकाउंटर को जायज़ ठहराने लगता है, उसे यह फ़िल्म पुलिसिया हरकतों का असली चेहरा दिखाती है। असलियत यह है कि नेताओं का मूल उद्देश्य अपना हित साधना होता है जिसके लिए वे किसी भी अपराध को अंजाम देते हैं। उन्हें इस भ्रष्ट तंत्र के किसी कानून की रत्ती भर चिंता नहीं होती।

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फ़िल्म तकनीकी स्तर पर

कानपुर की पृष्ठभूमि में बनी यह फ़िल्म सिनेमेटोग्राफी और स्थानीय भाषा के शब्दों को पकड़े रखती है। हालांकि फ़िल्म के डायलॉग कुछ ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ते। कहानी शुरुआत से ही धीरे चलती है और क्लाइमैक्स के समय तेज़ी से अनेक खुलासे करके नायक द्वारा मज़बूत बाहुबली नेता और पुलिस को अवाक कर देना बेहद नाटकीय लगता है। फ़िल्म जिसमें स्त्रियों के खिलाफ़ हिंसा हो रही है, उसमें सशक्त कलाकारों को भी कमज़ोर दिखाकर सामान्यीकरण को मज़बूत करने की प्रवृत्ति रिग्रेसिव लगती है। हालांकि इसकी ख़ास बात यह रही कि बेवज़ह ‘मसाला’ दिखाने के उद्देश्य से बलात्कार के सीन को ‘पॉर्न’ की तरह नहीं परोसा गया है। फ़िल्म में बलात्कार के सीन्स न के बराबर हैं। इससे साफ़ समझ आता है कि उद्देश्य समस्या को दिखाना था, जो आसानी से दर्शक तक ‘कन्वे’ हो चुकी है।फ़िल्म में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की मां (इला अरुण) ने अच्छा अभिनय किया है और डायलॉग्स के नाम पर उनकी बातें याद रह जाएंगी। वह जटिल यादव के रूढ़िवादी विचारों पर प्रहार करते हुए कहती हैं, ‘तुम ठहरे फ्रस्ट्रेटेड’ और वह प्यार को एक ‘पॉज़िटिव एलिमेंट’ की तरह स्थापित करने की कोशिश करती हैं। असल में, भारत में सिनेमा से लेकर टीवी ने एक ख़ास तरह की पुरुष छवि को नायक माना है, रक्षक, गुस्सैल मगर नरम दिल, जो लड़की की रक्षा करेगा लेकिन गुस्से में उसे झकझोर कर रख देगा। ऐसे नायक को डिसेंट यानी चरित्रवान बीवी चाहिए, जो पूजा करती हो, ‘ठीक-ठाक’ दिखे, घर और बाहर का अंतर समझे ,यानी पति को बिकिनी में ‘इम्प्रेस’ करे लेकिन बाहर शरीर ढंककर निकले।

बलात्कार, हिंसा और लड़कियों के अपहरण जैसे मुद्दों के लेकर बनी यह फ़िल्म स्त्रियों की उन्मुक्तता और सशक्तिकरण के बारे में कम और फ़िल्म के नायक के बारे में अधिक है।

जटिल यादव भी ऐसी बीवी चाहता था। उसकी इनबिल्ट पितृसत्ता जब तब बाहर निकलती है, उसे राधा (राधिका आप्टे) से प्यार होता है, जो उसकी इच्छाओं से ठीक उलट होती है। राधा के लिए वह बुरा महसूस करता है लेकिन जब भी उसे लगता है राधा ने उससे झूठ बोला है, वह एक आम भारतीय पितृसतात्मक आदमी की तरह उसके चेहरे में उंगलियां गड़ाकर उसे झिंझोड़ देता है और उसपर फ़ोन फेंककर गुस्सा निकालता है। हालांकि कहानी में जटिल यादव एक संवेदनशील नायक है, जो राधा के दर्द को समझता है इसीलिए तो उसको सबसे बचाकर ग्वालियर ले जाता है। इस तरह से संवेदना की आड़ में फ़िल्म के नायक की पितृसत्ता को छिपा दिया जाता है। यह फ़िल्म की ख़ामी है।

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फ़िल्म का किरदार राधा ‘चंबल की रिबेल’ है जिसे उसका बाप बेच देता है लेकिन वह हारती नहीं है। वह अपना प्रेम चुनती है, ठाकुर के शारीरिक शोषण से जूझते हुए उसने जिजीविषा बचाए रखी और विक्रम के साथ भागने का प्लान बनाया। यह दिखाता है कि आधुनिक भारत की नायिका मुश्किलों से हारकर आत्महत्या नहीं करती, बल्कि जूझते हुए बाहर निकलने का रास्ता चुनती है. राधा जटिल यादव का अपनी ओर बढ़ता लगाव महसूस करती है और तब भी वह उसे चूमने से इनकार कर देती है। इस किरदार को राधिका ने अच्छे से निभाया है लेकिन इसे और सशक्त होना चाहिए था। इस फ़िल्म में श्वेता त्रिपाठी के किरदार को सबसे ज़्यादा नज़रअंदाज़ किया गया है। वे सपोर्टिंग रोल बनकर रह जाती हैं और इक्के दुक्के सीन संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के लिए उन्हें दिखा दिया गया है। यह फ़िल्म की कहानी और निर्देशन का सबसे कमज़ोर पहलू है। वसुधा (शिवानी रघुवंशी), जिसका शोषण ठाकुर बचपन से करता आ रहा था और आखिरकार वसुधा उसकी हत्या कर देती है। धीरे चलती फ़िल्म का क्लाइमैक्स आसानी से नहीं पचता। हालांकि वसुधा शुरू से ही कुछेक संवादों से यह स्पष्ट करती नज़र आती हैं कि कैसे यह परिवार भावनाशून्य है और किसी को ठाकुर के मरने से फ़र्क़ नहीं पड़ता।

नेता और पुलिस की खिचड़ी

फ़िल्म का एक बड़ा भाग नेता और पुलिस की आपसी खिचड़ी को दर्शाता है जिसमें बाहुबली नेता मुन्ना (अभिजीत) रघुवीर ठाकुर की पत्नी और ड्राइवर को मारने के बाद अपनी फैक्ट्री में दफना देते हैं और कुछ दिन बाद थाने में पड़ी फाइलें बंद कर दी जाती हैं। फ़िल्म में सबसे अधिक उपेक्षित किरदार के रूप में एसएसपी की भूमिका निभाने वाले यानी तिग्मांशु धूलिया भी अपनी जगह बनाते हैं, जो स्थानीय नेता से संबंध होने के ख़ातिर बार-बार इंस्पेक्टर को चेतावनी देता है कि नेता के ख़िलाफ़ कुछ न हो लेकिन अड़ियल इंस्पेक्टर एसएसपी के आदेश को नज़रअंदाज़ करते हुए सारे ख़ुलासे कर देता है। यह भाग सबसे अधिक नाटकीय लगता है क्योंकि ऐसे समय में, जब धड़ाधड़ एनकाउंटर किए जा रहे हैं, नेता अपने भाड़े के आदमियों से विरोधियों का मर्डर करा रहे हैं, एक इंस्पेक्टर का यह नायकत्व मिथ्या ही है।

कुल मिलाकर, बलात्कार, हिंसा और लड़कियों के अपहरण जैसे मुद्दों के लेकर बनी यह फ़िल्म स्त्रियों की उन्मुक्तता और सशक्तिकरण के बारे में कम और फ़िल्म के नायक के बारे में अधिक है। नायक औसत भारतीय पुरुषों की तरह ही संवेदनशील है, जो ग़ुस्से में पत्नी के साथ मारपीट करता है और फिर अगले पल सब सामान्य हो जाता है क्योंकि वह पत्नी से प्रेम करता है। फ़िल्म में आख़िर में ‘हैप्पी एंडिंग’ होती है जब राधा जटिल के प्रेम को स्वीकार कर लेती है। इस तरह का अंत ‘रिबेल’ होने की अवधारणा को कमज़ोर करता नज़र आता है। हालांकि कॉमर्शियल उद्देश्य से बेहतर है क्योंकि भारतीय दर्शक सच नहीं जानना चाहता, वह अत्यधिक इमोशनल है, जो ‘भला है बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है’ की अवधारणा को अब भी ढोते चल रहा है।

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तस्वीर साभार :  Report Door

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