नारीवाद शादी ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिष्ठा का सवाल है| नारीवादी चश्मा

शादी ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिष्ठा का सवाल है| नारीवादी चश्मा

शादी की एक संस्था पितृसत्ता के सभी साधनों को अपने साथ इस कदर लेपेटे हुए है कि किसी एक के बिना शादी के पूरे रंग में भंग पड़ जाता है।

इनदिनों अपने उत्तर भारत में सादियों का मौसम चल रहा है। शाम के वक्त कोई भी गली-चौराहा डीजे की गूंज से अछूता नहीं मिलता। कोरोना महामारी के दौर में भी शादियों के ज़ोर में कोई कमी नहीं है। शादी में गेस्ट की संख्या भले ही कुछ जगहों पर सीमित की गयी है, लेकिन तामझाम वाली रौनक़ में कहीं कमी नहीं है। अब आप कहेंगें कि क्यों न हो ऐसा, आख़िर शादी एक़बार ही तो होती है। तो आइए आज बात करते है शादी के इसी तामझाम वाले समीकरण की। शादी अपने भारतीय समाज में हर इंसान के लिए बेहद ख़ास बतायी, सुनाई और समझायी जाती है, जिसके चलते कई बार ये बेहद अहम भी हो जाती है, क्योंकि पूरा समाज अपनी पूरी ताक़त जो इसमें झोंक देता है।

यों तो एक समय के बाद किसी साथी का साथ होना इंसान की ज़रूरत होती है, जो उसका ख़्याल रखे, उसे समझे-सुने और शारीरिक व मानसिक ज़रूरतों को पूरा करे। इंसान की इसी ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए हमारे पितृसत्तामक समाज में ‘शादी’ की अवधारणा भी इसलिए शुरू की गयी, जो किसी भी महिला-पुरुष के रिश्ते को समाज के अनुसार तथाकथित वैध बनाता है। हाँ ये अलग चर्चा का विषय है कि शादी की संस्था में कहीं भी महिला-पुरुष से इतर किसी अन्य जेंडर को जगह नहीं दी गयी है और अगर कोई नय जेंडर इस संस्था को अपनाने की कोशिश करता है तो वो समाज के गले नहीं उतरती है।

शादी की इसी पितृसत्तामक संरचना ने शादी को इंसान की ‘ज़रूरत’ से ज़्यादा ‘प्रतिष्ठा’ का सवाल बना दिया है। दो इंसान एक-दूसरे के साथ अपनी पूरी ज़िंदगी जीने के लिए सहज हैं या नहीं, वैचारिक रूप से उनमें सामंजस्य बन रहा है या नहीं इन सभी सवालों से परे जाति, गोत्र, कुल, दहेज के वजन, लड़की के रंग-रूप जैसी तमाम बातों को शादी का मूल बना जा चुका है, जिसके चलते शादी का मतलब अपना शौर्य प्रदर्शन और प्रतिष्ठा बना दिया गया है, जिसमें महिला-पुरुष क्या पूरा समाज घुट-घुट कर जीने को मजबूर है।

‘दहेज’ और ‘नख़रे’ योग्यता और प्रतिष्ठा के मानक

‘शर्मा जी के बेटे को एक करोड़ रुपए और एक गाड़ी तिलक में चढ़ा।‘

‘वर्मा जी ने अपनी बेटी को दो करोड़ दहेज दिया।‘

‘लड़के वालों की कोई माँग नहीं है। इसका मतलब है लड़के में कुछ कमी है।‘

‘कोई दहेज नहीं लिया और इतना सीधा, पड़े-गिरे परिवार का है।‘

पितृसत्ता जितना महिलाओं को नुक़सान पहुँचाती है उतना ही नुक़सान पुरुषों को भी पहुँचाती है। इसका सीधा रूप हम ऊपर के इन वक्तव्यों में देख सकते हैं, जो शादी के नामपर पुरुष की योग्यता और समाज की प्रतिष्ठा से संबंधित है। ये हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है कि आज भी दहेज की मोटी रक़म शान का प्रतीक है और जैसे ही कोई पुरुष इसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाने का प्रयास करता है तो उसकी योग्यता पर सीधे सवाल किए जाते है। यही वजह से कई बार न चाहते हुए भी मन को मारकर पुरुषों को दहेज की माँग में अपनी गर्दन झुकानी पड़ती है।

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क़र्ज़ में डूबना है क्योंकि शादी प्रतिष्ठा का सवाल है

मोहित (बदला हुआ नाम) ने अपनी बहन की शादी में बैंक से पंद्रह लाख का लोन लिया। वहीं सागर (बदला हुआ नाम) के पिता ने अपनी आधी से अधिक ज़मीन बेटी की शादी के लिए बेच दी। मोहित और सागर ने ऐसा इसलिए नहीं कि दहेज की ज़्यादा माँग थी, बल्कि ऐसा इसलिए कि उनकी एक आख़िरी बेटी या एकलौती बेटी की शादी थी और बेटियाँ भी अपने किसी भी शौक़ में कोई समझौता नहीं चाहती थीं।

हम जब भी प्रतिष्ठा की बात करते हैं तो इसका मतलब सिर्फ़ पुरुष नहीं होता है, बल्कि इसका मतलब दोनों पक्ष से है। शादियों ने क़र्ज़ में डूबकर दो-चार दिन की चमक-दमक बनाना एक ऐसा चलन बन रहा है, जो समाज को, घर को और इंसान को उनकी बुनियादी ज़रूरतों से दूर कर चंद समय में फीकी पड़ने वाली चमक की ओर ले जा रहा है। इन सबमें पूरे जीवन की जमापूँजी और ऊर्जा झोंक दी जाती है, काश इसकी दिशा इंसान के विकास से अवसरों से होती।

शादी की एक संस्था पितृसत्ता के सभी साधनों को अपने साथ इस कदर लेपेटे हुए है कि किसी एक के बिना शादी के पूरे रंग में भंग पड़ जाता है।  

शौक़ के नामपर भेंट चढ़ता लड़कियों का सम्पत्ति का अधिकार

मुदिता (बदला हुआ नाम) ने अपनी शादी में पिता से चालीस हज़ार के लहंगें की माँग की। इसके साथ ही, माँग की कि ससुराल में उसका आँगन सामान से भरना चाहिए। इन ख़र्चों के बजाय जब पिता ने यही पूँजी उसके नाम से बैंक में फ़िक्स करने की बात कही तो मुदिता एकदम तैयार नहीं हुई। आख़िर में पिता के अपनी पूरी ज़मीन बेचकर अपनी आख़िरी बेटी की शादी की।

हम जब भी भारतीय समाज में लड़कियों के सम्पत्ति के अधिकार की बात करते हैं तो लोग नाक-मुँह सिकोड़ने लगते है। इसकी प्रमुख वजह है हमारे यहाँ कि महँगी शादियाँ, जिसके लिए परिवार को चाहते या कई बार न चाहते हुए भी अपनी ज़िंदगीभर की कमाई झोकनी पड़ती है। चूँकि परिवार अपनी जमापूँजी का बड़ा हिस्सा शादी की चकाचौंध में खर्च करता है इसलिए सम्पत्ति में हिस्सा देने की बात से ही उसकी भौं तन जाती है, इसलिए सम्पत्ति के अधिकार को सरोकार से जोड़ने के लिए हमें शौक़ के नामपर फ़िज़ूल ख़र्चों से बचकर सोचने-समझने की संस्कृति विकसित करनी होगी। नहीं तो शादी के एक दिन चकाचौंध सम्पत्ति पर बेटी के अधिकार को हमेशा दूर रखेगी।

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सुंदरता और रक्त की शुद्धता माने शादी की प्रतिष्ठा

शादी के लिए लड़की हमेशा सुंदर और सुशील चाहिए होती है। सुंदर मतलब – गोरी रंगत और सुशील मतलब – जो कोई माँग न करें और चुप रहे। शादी की बात शुरू करने में ये अहम मानक है। वहीं शादी हमेशा ऊँचे कुल, जाति, धर्म, गोत्र और गाँव-पता इन सबको ध्यान में रखकर की जाती है, जिससे रक्त की शुद्धता बनी रहे। यानी कि शादी की एक संस्था पितृसत्ता के सभी साधनों को अपने साथ इस कदर लेपेटे हुए है कि किसी एक के बिना शादी के पूरे रंग में भंग पड़ जाता है।  

हो सकता है आपको लगे कि मैं शादी के ख़िलाफ़ हूँ तो आपको बताऊँ ‘जी हाँ! मैं ऐसी हर उस शादी के ख़िलाफ़ हूँ जो पितृसत्तामक मूल्य पर टिकी है। जो इंसान की ज़रूरत से ज़्यादा उसकी प्रतिष्ठा का सवाल हो। जो इज़्ज़त के नामपर परिवार को क़र्ज़ में डूबने को मजबूर करती हो। जो सुंदरता और शुद्धता के नामपर लड़कियों को कमतर महसूस करवाती हो।‘ वास्तव में ज़रूरी है कि हम दो इंसान के रिश्ते को किसी संस्था में लपेटने की बजाय उनके विकास पर ध्यान दें और ऐसा तभी संभव हो सकता है जब हम शादी को ज़िंदगी का लक्ष्य नहीं बल्कि ज़िंदगी का हिस्सा समझें। इसलिए शादी को प्रतिष्ठा का मुद्दा न बनाने की बजाय दो इंसान की सहमति को वरीयता दें।

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तस्वीर साभार : qz.com

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