समाजख़बर ग्राउंड रिपोर्ट : मीडिया के एजेंडे के बीच सिंघु बॉर्डर से ज़मीनी हकीकत

ग्राउंड रिपोर्ट : मीडिया के एजेंडे के बीच सिंघु बॉर्डर से ज़मीनी हकीकत

टीवी मीडिया द्वारा अपने लिए नकारात्मक और ग़लत ख़बर व्यपाक स्तर पर रोज़ देखने के बाद भी अपने आंदोलन के प्रति अडिगता और विश्वास बनाए रखना इन लोगों से सीखा जा सकता है।

बीते 26 जनवरी के बाद मुख्यधारा मीडिया ने किसान आंदोलन को पूरी तरह से हिंसात्मक और किसानों को अनुशासनहीन भीड़ की तरह पेश करने में कोई कसर नहीं बाकी छोड़ी है। ग्राउंड जीरो से आ रही सभी खबरों और वीडियो क्लिप्स दर्शकों को दिखाने और उन्हें अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करने देने के बजाय न्यूज़ रूम से ऐंकर्स हमेशा की तरह सरकारी एजेंडे के तहत काम करने में लगे रहे। पिछले दो महीनों से दिल्ली बॉर्डर पर लगातार शांतिपूर्ण तरीक़े से आंदोलन कर रहे किसानों की तकलीफ़ों मांगों पर टीवी न्यूज़ मीडिया अपने दर्शकों की नज़र में भ्रम फ़ैलाने का काम करने लगी। 26 जनवरी को हुई घटना के बाद जब 27 जनवरी को योगी सरकार ने बॉर्डर खाली करने का आदेश दिया तो जनवरी को किसान नेता राकेश टिकैत मीडिया के सामने रो पड़े और कहा कि वह अपनी जान दे देंगे लेकिन आंदोलन स्थल से नहीं हटेंगे। उनका यह भावनात्मक पक्ष आने के बाद आंदोलन को और मजबूत करने गाज़ीपुर बॉर्डर, सिॆघु बॉर्डर समेत अन्य प्रदर्शन स्थलों पर पर रातों-रात बड़ी संख्या में किसान पहुंचने लगे थे।

वहीं, 29 जनवरी को सिंघु बॉर्डर पर तथाकथित स्थानीय लोगों द्वारा किसानों पर पथराव करने की घटना हुई। इस दौरान पुलिस सिंघु बॉर्डर पर मौजूद थी। कई प्रदर्शकारी किसान घायल हुए। मीडिया तब भी इन हिंसक तत्वों के बारे में सही जानकारी देने की जगह इन लोगों को ऐसे स्थानीय लोग बताती रही जिन्हें किसान आंदोलन की वजह से परेशानी झेलनी पड़ रही है। उनके मुताबिक इन स्थानीय लोगों ने सिंघु बॉर्डर खाली करवाने के लिए हिंसा का सहारा लिया। इस बात को समझने और सिंधु से की गई पहली ग्राउंड रिपोर्ट में हमने जिन किसानों से बात की थी उनसे 26 जनवरी के बाद इस बदले हुए हालात पर उनका सच उन्हीं से जानने हम 31 जनवरी को सिंघु बॉर्डर पहुंचे।

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4 जनवरी की याद के मुताबिक दिल्ली की तरफ से सिंघु बॉर्डर जाने पर प्रदर्शन स्थल पर पहले पुलिस के तंबू फिर पीले बैरिकेड्स थे। बैरिकेड के दूसरी तरफ़ निहंग दल के तंबुओं की शुरुआत के साथ 4-5 किलोमीटर दूर तक किसानों के तम्बू विस्तृत रूप से दिखते थे। 31 जनवरी का मामला अलग था। पुलिस कैंप के लगभग 500 मीटर आगे सीमेंट से बने बैरिकेड्स लगाए गए थे। वहां तैनात पुलिस ने बताया कि मीडिकर्मियों को प्रेस कार्ड दिखाने के बाद ही अंदर प्रवेश मिल सकता था। हमें प्रति व्यक्ति एक प्रेस कार्ड होना जरूरी बताया गया। यह व्यवस्था मन में सबसे पहला सवाल जो खड़ा करती है वह ये है कि इतने पहरेदारी के बीच 29 जनवरी को तथाकथित स्थानीय लोग लाठी पत्थरों के साथ किसानों के तम्बू तक कैसे पहुंचे। हम तीन लोग थे, एक साथी के पास किसी अन्य मीडिया संस्थान का प्रेस कार्ड था। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय का पहचान पत्र दिखाकर एक विद्यार्थी और नागरिक होने के नाते किसानों से बातचीत करने देने का आग्रह किया। पुलिस ने आग्रह मानने से इनकार कर दिया। बताती चलूं कि प्रदर्शन में मौजूद जिन किसानों से पिछले ग्राउंड रिपोर्ट में बातचीत की थी उनमें से दो लोगों के साथ मैं सप्ताह में एक बार उनका हालचाल-तबीयत जानने फ़ोन किया करती थी। उनमें से एक हरियाणा से हैं और दूसरे निहंग दल के एक सदस्य। इन दोनों से व्यक्तिगत स्तर पर परवाह का एक मानवीय रिश्ता बन चुका था। एक नागरिक को सरकारी विश्वविद्याल के पहचान पत्र दिखाए जाने के बाद भी पुलिस किसानों से मिलने की इजाज़त नहीं देना चाहती थी। 

टीवी मीडिया द्वारा अपने लिए नकारात्मक और ग़लत ख़बर व्यापक स्तर पर रोज़ देखने के बाद भी अपने आंदोलन के प्रति अडिगता और विश्वास बनाए रखना इन लोगों से सीखा जा सकता है। 

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पुलिस द्वारा बनाए गए अवरोध

बहुत देर हमें वही खड़े देखकर पुलिस दल में से एक व्यक्ति ने हमें बताया कि एक दूसरा रास्ता आसपास के गांव से होते हुए है। इस लम्बे घुमावदार रास्ते से सीधा प्रदर्शस्थल के अंदर पहुंचा जा सकता था। 4-5 किलोमीटर के इस कच्चे रास्ते पर हम पैदल चल पड़े। यह रास्ता आसपास के गांवों के अंदर से होकर गुजरता है। कई बार हमें आगे का रास्ता समझ नहीं आता, स्थानीय लोगों को अपना उद्देश्य बताने के बाद हमने जगह-जगह पर उनकी मदद ली। सिंघु गांव के एक फोटो कॉपी दुकानदार ने रास्ता बताते हुए कहा, “ज्यादा लोग टीवी देखते हैं। वेबसाइट वाले छोटे-छोटे मीडिया को बहुत कम लोग पढ़ते हैं क्योंकि विज़ुअल ज्यादा समझ आता है लोगों को। टीवी वाले दिखाते हैं कि हम लोगों ने मारपीट की लेकिन यहां के ज्यादातर लोग उनके साथ हैं। इस गांव में देखिए, कितने खेत हैं। खेतों वाला गांव इन किसानों को समझेगा नहीं क्या। ये कुछ बीजेपी समर्थक गुंडे थे जो जमा होकर गए थे। वे यहां के हैं भी तो उन्हें स्थानीय लोग मत बुलाइये, उन्हें फलां फलां गांव में रहने वाला बीजेपी का गुंडा कहिये।” अगर स्थानीय लोगों के मन में किसान आंदोलन के प्रति खटास होती तो वे आंदोलन को समर्थन देने के इरादे से आए बाहरी लोगों की सहायता करने से कतराते

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हम उस रास्ते से होते हुए प्रदर्शनस्थल तक जा पहुंचे। जिस तरह से प्रदर्शनकारियों को हिंसात्मक तत्वों की तरह दिखाया जा रहा है उसका असर बाहरी लोगों के साथ संवाद करने के दौरान उनके व्यवहार में देखने को मिला। वे अपने विचारों को लेकर काफ़ी स्पष्ट हैं लेकिन शब्दों के चुनाव, बाहरी लोगों से बातचीत करने में झिझक का हल्का भाव देखने को मिला। किसी भी बयान को ऑन रेकॉर्ड देने में वे बहुत सतर्कता बरत रहे थे। यह व्यवहार उनका मूलभूत व्यवहार नहीं है, ये बात मैं इसलिए कह सकती हूं क्योंकि पिछली बार जब सिंघु आना हुआ तो ऐसा महसूस नहीं होता था। टीवी मीडिया और सत्ता द्वारा 26 जनवरी के बाद से दोगनी शक्ति लगाकर जनता के मन में इस आंदोलन को लगातार देशविरोधी आंदोलन साबित करने की कोशिश हो रही है। यह बात किसानों को मालूम है। इसलिए वे अपने आंदोलन के चित्र को ग्राउंड ज़ीरो से दूर टीवी के माध्यम से सूचना पाने वाली जनता के नज़रों में धूमिल कियए जाने से बचाना चाह रहे हैं। यही कारण है कि कई किसान प्रदशनकारी इस चिंता में बाहरी लोगों से बात करते समय सतर्कता बरते दिखे। 

सिंघु बॉर्डर , मुख्य स्टेज

मंगल सिंह निहंग दल के सदस्य हैं। पिछले बार भी हमारी उनसे बातचीत हुई थी। वे बताते हैं, “मेरी बीवी आ रही है कल। आप आना मिलने। उसे मेरी चिंता हुई तो उसने कहा मैं आती हूं। मैंने कहा आजा, आप आना मिलने उससे। वह रहेगी कुछ दिन।” मंगल सिंह ने ट्रैक्टर रैली में हिस्सा लिया था। वह बताते हैं कि उन्होंने उस दिन अपने आसपास हिंसा की कोई घटना नहीं देखी थी। मंगल सिंह जी से बात करते हुए आपको किसी भारतीय गांव के बुजुर्ग याद आएंगे जो बिना शब्दों को नाप-तौलकर भावनात्मक बहाव में अपना हृदय खोलकर रख देना चाहते हैं। निहंग दल के अन्य सदस्य मंगल सिंह से इशारे में कहते हैं कि इतने व्यक्तिगत जानकारी देने की क्या जरूरत। मंगल सिंह जवाब देते हैं “ये लोग पिछली बार भी आए थे, इन्होंने वही लिखा जो हमने कहा था। ये वे लोग नहीं है जो हमें बदनाम कर रहे हैं। ये मेरी तबीयत जानने के लिए समय-समय फोन करती थी। यहां बहुत शोर है बेटा। मैं काम रहता हूं रसोई में न लंगर बनाने का। इसलिए आवाज़ सुन नहीं पाता था ठीक से।” किसी अप्रिय घटना की बिना तहकीकात किए, आंदोलनकारियों के अलावा अन्य लोगों की संलिप्तता पर बिना जांच बिठाए, आंदोलन के हर सदस्य को देशद्रोही या हिंसक बताना, सूचनाओं को एक पक्षी दृष्टिकोण से प्रसारित करना सरासर अनैतिक है।

मंगल सिंह

कुछ दूर पर हम हरियाणा से आये सतपाल सिंह जी से मिले। वह अपनी वीलचेयर से एक कागज़ पर लिखे पोस्टर के जरिये अपनी बात कह रहे थे। मौखिक रूप से कुछ बोलने की जगह उन्होंने अपनी तख्ती ऊंची कर दी।

सतपाल सिंह

5 दिसम्बर से सिंघु बॉर्डर पर टेबल लगाकर अपनी एक छोटी सी पुस्कालय बनाने वाले दो नवयुवक मिले। ये दोनों फतेहगढ़ साहिब के निवासी हैं और पेशे से दोनों रिसर्च स्कॉलर हैं। “हमारे पास जितनी भी किताबें हमने उन्हें इस लाइब्रेरी के रूप इस संघर्ष को समर्पित की हुई हैं।” उन किताबों में से अपनी पसंदीदा किताब पूछे जाने पर उन्होंने शहीद करतार सिंह सराभा की एक किताब पर उंगली रखी। बताते चलें, शहीद करतार सिंह सराभा भारत की आज़ादी संघर्ष में शामिल आंदोलकारी थे। मात्र 15 साल की उम्र में वे गदर पार्टी का हिस्सा बन गए थे।

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वहां पंजाबी में लिखी पाश की कविताओं का संग्रह भी नज़र आया और लियो टॉलस्टॉय की लिखी ‘वॉर एंड पीस’ भी दिखी। “चारों भाषाओं की किताबें हैं। पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी। ऐसी किताबें हैं को संघर्ष को समर्पित हों, कोई अशांति वाली क़िताब नहीं है” वे बताते हैं। गौर करिए कि इस लोकतांत्रिक देश में एक किसान आंदोलन स्थल पर किताबों की खुली लाइब्रेरी बनाने वाले नवयुवकों को किताबों के कंटेंट को शांतिपूर्ण बताते हुए अपने और आंदोलन के चरित्र और नियत पर सफ़ाई देने की मजबूरी से गुजरना पड़ता है। पिछली ग्राइंड रिपोर्ट में भी हमने एक बुक स्टोर के बारे में लिखा था। 26 के बाद भले ही आपको टीवी मीडिया भर्मित करने में कोई कसर न छोड़े, इस आंदोलन स्थल का किताबों से राब्ता वैसे ही बना हुआ है। यह बात व्यवस्था को सामूहिक शर्म में डालने वाली है, व्यवस्था को जनता के प्रति अपनाए रवैये पर थोड़ी आत्म चिंतन करने की जरूरत झलकती है। 

दिल्ली पुलिस के ड्रोन दिखे, ड्रोन द्वारा किसानों पर निगरानी रखा जा रहा है। ‘खालसा ऐड’ जिसने समय समय पर जगह-जगह आपदा झेलने वालों की मदद की, उन्हें टीवी मीडिया ने खालिस्तान से जोड़कर आंदोलन को कमजोर करना चाहा था। वे अभी भी पानी, स्वास्थ्य कैम्प , इत्यादि की व्यवस्था बनाए हुए हैं। सिंघु बॉर्डर पर महिलाओं की संख्या पहले से कम लगी। सात बजते ही रात के खाने का लंगर जगह-जगह चालू हो गया। पहले की ही तरह कुछ आसपास के इलाकों के कूड़े बीनने वाले बच्चे, कुछ सड़कों पर रात गुजारने वाले लोग जो शुरू से इस आंदोलन के गवाह बने हैं, इन लंगरों में भोजन करते दिखे। सूरज ढ़लते ही ट्रकों में 5-6 लोग सोने की जगह बनाने लगे। एक ट्रक में कुछ बुजुर्ग भजन करते दिखे। कुछ ट्रकों में टीवी लगे थे। टीवी मीडिया द्वारा अपने लिए नकारात्मक और ग़लत ख़बर व्यापक स्तर पर रोज़ देखने के बाद भी अपने आंदोलन के प्रति अडिगता और विश्वास बनाए रखना इन लोगों से सीखा जा सकता है। 

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तस्वीर साभार : सभी तस्वीरें लेखक ऐश्वर्या द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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