नारीवाद उफ्फ! क्या है ये ‘नारीवादी सिद्धांत?’ आओ जाने!

उफ्फ! क्या है ये ‘नारीवादी सिद्धांत?’ आओ जाने!

नारीवाद के बारे में सभी ने सुना होगा। मगर यह है क्या? इसके दर्शन और सिद्धांत के बारे में ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम। इसे पूरी तरह जाने और समझे बिना नारीवाद पर कोई भी बहस या विमर्श बेमानी है। नव उदारवाद के बाद भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति आए बदलाव के बाद इन सिद्धांतों को जानना अब और भी जरूरी हो गया है।

नारीवाद के बारे में सभी ने सुना होगा। मगर यह है क्या? इसके दर्शन और सिद्धांत के बारे में ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम। इसे पूरी तरह जाने और समझे बिना नारीवाद पर कोई भी बहस या विमर्श बेमानी है। नव उदारवाद के बाद भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति आए बदलाव के बाद इन सिद्धांतों को जानना अब और भी जरूरी हो गया है।

दरअसल, नारीवाद एक ऐसा दर्शन है, जिसका उद्देश्य है- समाज में महिलाओं की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाना और उनकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना। नारीवाद ही बता सकता है कि किस समाज में नारी-सशक्तीकरण के लिए कौन-कौन सी रणनीति अपनाई जानी चाहिए। महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं, इसके बावजूद उन्हें अवसरों से वंचित कर दिया जाता है। नारीवाद ऐसी तमाम परिस्थितियों के विषय में बताता है।

किसी भी विचारधारा के अपने कुछ सिद्धांत होते हैं, जिनकी मदद से हम उस विचारधारा को अच्छी तरह समझ सकते हैं। अब हम जिक्र करेंगे नारीवाद से जुड़े कुछ प्रचलित सिद्धांतों का, जिन्हें कई बार नारीवाद का प्रकार भी माना जाता है।

‘महिला-अधिकार से होगा सुधार’ – उदारवादी नारीवाद

पितृसत्ता के अन्य सिद्धांतों के इतिहास में उदारवादी नारीवाद का इतिहास बेहद पुराना है। यह स्त्री-पुरुष की समानता के सिद्धांत पर आधारित है। अठारहवीं सदी की शुरुआत में उदारवादी नारीवादियों ने आजादी व समानता के जनतांत्रिक मूल्यों और औरतों की अधीनता के बीच के अंतरविरोध को रेखांकित किया। उदारवाद की बुनियाद बने आजादी, समानता और न्याय के विचार सत्ताहीन और चहारदिवारी में बंद महिलाओं की जिंदगी के अनुभवों से बिल्कुल विपरीत थे। महिलाओं के बारे व्याप्त ऐसी गलत धारणाओं को ठीक करने में शुरुआती उदारवादी नारीवादियों, विशेषकर मेरी वोल्स्टोन क्राफ्ट ने जोरदार ढंग से हस्तक्षेप किया। साल 1792 में लंदन से पहली बार प्रकाशित अपने आलेख ‘महिलाओं के अधिकारों का समर्थन’ में उन्होंने महिला-अधिकारों की पुरजोर हिमायत की।

इसके बाद, इटली की क्रिस्¬टीन डी पिजान ने पहली बार लिंगों के आपसी संबंधों के बारे में लिखा और जेरेमी बैंथम ने अपनी किताब ‘Introduction to the Principles of Morals and Legislation’ में स्त्रियों को उनकी कमजोर बुद्धि का बहाना बना कर अधिकारों से वंचित करने की कई राष्¬ट्रों की मंशा की आलोचना की। इस धारा में मेरी वोलस्¬टोनक्राफ्ट, हैरियट टेलर, जान स्¬टुवर्ट मिल, बैट्टी फ्राइडन ग्¬लोरिया स्¬टेनम व रेबिका वाकर जैसे नाम शामिल हैं।

‘पूंजीवाद है महिला-गुलामी की जड़’ : समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवाद

समाजवादी नारीवादियों ने न केवल महिलाओं की गुलामी के उदय के – एंगेल्स के विश्लेषण को अपनाया, बल्कि मार्क्सवादी धारणाओं को लागू कर महिलाओं के शोषण चक्र को भी समझने का प्रयास किया। ये नारीवादी, महिलाओं के उन मौजूदा विश्वासों और प्रवृत्तियों का महिमंडन नहीं करते, जिन पर पितृसत्ता विचारधारा का वर्चस्व होता है और जो महत्त्वपूर्ण तरीके से रोजमर्रा के जीवन के पितृसत्तात्मक ढांचे से प्रभावित होते हैं।

भारत में समाजवादी नारीवादियों ने घरों से काम करने वाली महिलाओं को एकजुट करने के प्रयास किए हैं। महिला खेतिहर मजदूरों के लिए खासतौर से जमीन के स्वामित्व की मांगें उठाई हैं। बारबरा इह्रेंरिच ने अपने लेख ‘समाजवाद क्¬या है?’ में इस बात का जिक्र किया है कि मार्क्सवाद और नारीवाद को मिला कर ही समाजवादी नारीवाद की विचारधारा विकसित हुई है।

समाजवादी नारीवादियों की समाज के बारे में सोच केवल अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है। इनका मानना है कि उत्पादन-प्रक्रिया में प्रजनन-कर्म (जो घर में नारी द्वारा किया जाता है) आता है। लिंग के आधार पर विभाजित श्रम एक तरह से नारी पर थोपा जाता है। इसी प्रकार पितृसत्तात्¬मक समाज में नारी के यौन संबंधी कार्य भी पुरुषों की मर्जी के अनुसार निर्धारित होते रहे हैं। ये मानते हैं कि स्¬वतंत्र प्रजनन व यौन कर्म के लिए शोषण को खत्म करना जरूरी है, यह तभी हो सकता है जब पूंजीवादी व्¬यवस्¬था व पितृसत्ता का अंत हो।

समाजवादी नारीवाद की रणनीति की व्याख्या ‘शिकागो वीमेंस लिबरेशन यूनियन’ के चैप्टर (1972) में की गई। इसके अनुसार समाजवादी नारीवादी मानते हैं कि पूंजीवादी व्¬यवस्¬था में पूंजीवादी वर्ग का वर्चस्व व दमन संस्थाओं के माध्यम से व्यवस्थित तरीके से सुनिश्चित किया जाता है।

और पढ़ें : आज क्यूँ ज़रूरी है नारीवाद?

‘जेंडर से है भेदभाव का सारा खेल’ : रेडिकल नारीवाद

‘रेडिकल नारीवाद’ में निहित ‘रेडिकल’ शब्द का अर्थ अतिवादी या हठधर्मी के विपरीत ‘संपूर्ण ज्ञान’ यानी ‘जड़ तक जाने से’ है। यह इस बात को दिखाता है कि समकालीन समाज में जेंडर पर आधारित विभेद किस तरह पूरे जीवन की संरचना करते हैं। यह पितृसत्ता द्वारा स्त्रियों के ऊपर प्रभुत्व की प्रणाली के प्रति अपने विरोध के मसले पर एकजुट हैं। रेडिकल नारीवादियों का कहना है कि पितृसत्ता के कारण महिलाओं ने भी ‘नारी गुणों’ की हकीकत को स्वीकार किया। यह पुरुष संस्कृति के मूल्यों को चुनौती देता है और यह इस बात का हिमायती नहीं है कि महिलाएं पुरुषों का अनुसरण करें। इसके विपरीत यह महिलाओं की पारंपरिक-संस्कृति पर आधारित नए मूल्यों का सृजन चाहता है।

यह वर्तमान सामाजिक-प्रणाली के समूची उत्पीड़न को रेखांकित करता है, जिसमं किसी औरत के मूल्यांकन का तरीका उसकी उर्वरता के अलावा पुरुषों के लिए उसका यौन आकर्षण ही होती है। आधुनिक रेडिकल नारीवादी सिद्धां¬त के उदय में कुछ किताबों ने अहम भूमिका अदा की, जिनमें पहली किताब सिमोन द बोऊवार की ‘द सेकेंड सेक्स’ थी। इसके साथ ही, शूलामिथ फायरस्¬टोन की किताब द डायलेटिक्¬स ऑफ़ सेक्स में भी रेडिकल नारीवाद की अवधारणा का विवरण दिया गया है।

‘पितृसत्ता का लैंगिक-शोषण से है स्त्री-अधीनता’ : पर्यावरणीय नारीवाद

पर्यावरणीय नारीवाद रेडिकल नारीवाद का विस्तृत स्वरूप है। इनके अनुसार स्¬त्री की अधीनता, पितृसत्ता के जरिए लैंगिक शोषण है और इसी प्रवृत्ति ने पुरुष और स्¬त्री के बीच स्¬वाभाविक जैविक भिन्¬नताओं पर जोर दिया है। यह धारा जोर देती है कि स्त्रियों में कुछ गुण निहित हैं, जैसे- प्रकृति से निकटता, पालन-पोषण करने के गुण, जनवादी और इकठ्ठे रहने की भावना व शांति बनाए रखना। इस प्रकृति के अनुसार हिंसा और दूसरों पर हावी होना पुरुषों में निहित गुण हैं। नारीवाद ने पृथ्वी पर पितृसत्तात्मक प्रक्रिया के वर्णन द्वारा पर्यावरण के बारे में एक राजनीतिक समझ पैदा की है।

‘अश्वेत स्त्री के शोषण की परिस्थिति ज्यादा जटिल’ : अश्वेत नारीवाद

अश्वेत नारीवाद का केंद्रीय तर्क है कि वर्गीय, नस्लीय और लैंगिक शोषण एक-दूसरे से संबंधित है। सालों से नारीवाद की प्रचलित धाराओं ने लैंगिक-शोषण पर बात करते हुए नस्लीय वर्गीय-शोषण को लगातार नजरअंदाज किया हैं। इसके बाद, साल 1974 में कॉमबाही रिवर कलेक्टिव ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि अश्वेत स्त्री की मुक्ति के बाद ही पूरे मानव-समाज की मुक्ति संभव है। अश्वेत आंदोलन की आधारभूमि को तैयार करने में एलिस वॉकर केवुमेनिस्म के सिद्धांत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

एलिस वाकर और अन्य नारीवादियों ने यह जाहिर किया कि अश्वेत स्त्री के जीवन अनुभव श्वेत और मध्यवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा न सिर्फ अलग हैं बल्कि उसके शोषण की परिस्थितियां भी अधिक जटिल हैं। अश्वेत स्त्री आंदोलन के उदय का कारण भी इसी तर्क पर आधारित है कि श्वेत मध्यमवर्गीय और पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने नारीवाद की जिस धारा का नेतृत्व किया, उसमें वर्ग व नस्ल पर आधारित शोषण को तवज्जो नहीं दिया गया।

पेट्रिशिय हिल कॉलिन्सने ने अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘फेमिनिस्ट थॉट’ में अश्वेत नारीवाद को परिभाषित करते हुए कहा कि ‘इस नारीवाद को सैद्धांतिकी देती हुई विदुषियों ने साधारण अश्वेत स्त्री के अनुभवों और उसके विचारों को शामिल करते हुए एक अलग किस्म को दृष्टि अपने समुदाय और समाज के प्रति प्रदान की।’

Also read in English: Feminism 101: 4 Common Myths Debunked

Comments:

  1. shiv kharwar says:

    लैंगिक समानता दावे व हकीकत – https://www.societyofindia.in/2019/10/gender-equality-in-india.html

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