समाजकार्यस्थल स्त्री-विमर्श के सेमिनारों में पितृसत्ता का वार

स्त्री-विमर्श के सेमिनारों में पितृसत्ता का वार

स्त्री-विमर्श पर केंद्रित सेमिनारों में पितृसत्ता के वार को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है| फिर बात चाहे स्त्रीवाद पर बोलने की हो या लेखिकाओं को उनकी सुंदरता का बखान कर मंच पर आमंत्रित करने की हो|

किसी भी समय और समाज की सामान्य समझ वाली अवधारणाओं का सम्बन्ध उस समय और समाज की वर्चस्वशाली संस्कृति से होता है जिसकी व्याख्या वो अपने पक्ष में करता है| इन व्याख्याओं को तार्किक आधार देने के लिए प्रकृति और प्राकृतिक संरचना का इस्तेमाल किया जाता है| इस भ्रम को इसी रूप में हर जगह स्थापित करने की कोशिश पुरुषवादी मानसिकता जाने-अनजाने कई स्तरों पर करती है| एकेडमिक सेमिनार भी इससे अछूती नहीं हैं| साहित्यिक व एकेडमिक सेमिनारों में भी हमारे बुद्धिजीवियों की पुरुषवादी मानसिकता किसी न किसी रूप में ज़ाहिर होती रहती है|

दिमाग से परे लेखिका का देह वाले जुमलों से मंच-आमन्त्रण

इस अभिव्यक्ति के कई स्तर होते हैं| बहुत बार किसी लेखिका को मंच पर आमंत्रित करने के लिए किसी ऐसे जुमले का इस्तेमाल किया जाता है जो सीधे-सीधे उसके दैहिक आकर्षण की तरफ इशारा करता है| सुंदरता की समझ पर चिंतन करते हुए भी ऐसे बुद्धिजीवियों की समझ स्त्री के शरीर में ही अटकी रहती है| वहीं दूसरी ओर, किसी पुरुष लेखक को आमंत्रित करते हुए उसके शरीर को लेकर कोई शब्द नहीं कहा जाता, हमेशा उसका परिचय उसकी बौद्धिकता से कराया जाता है| लेकिन बौद्धिकता की किसी भी ऊंचाई पर पहुँच जाने के बाद भी स्त्री का परिचय शारीरिक सुन्दरता के प्रचलित मानदंडों के आधार पर ही दिया जाता है| रीतिवादी स्त्री दृष्टि का विरोध करते हुए भी साहित्य के बुद्धिजीवियों का दृष्टिकोण अभी भी उसी खांचे में अटका है|

माहौल को हल्का करने के लिए लेखिका के देह-केंद्रित जुमलों का इस्तेमाल

कई बार इसे न्यायसंगत ठहराने की भी भरपूर कोशिश यह कहकर की जाती है कि माहौल को हल्का बनाने के लिए ऐसे ही इन जुमलों का इस्तेमाल किया गया| पर सवाल यह है कि ऐसे जुमलों का इस्तेमाल पुरुषों के लिए क्यों नहीं किया जाता? हमेशा स्त्रियाँ ही क्यों? क्या सेमिनार में आमंत्रित लेखिका माहौल को हल्का बनाने के लिए आती हैं? बौद्धिक चर्चा के दौरान भी स्त्री मनोरंजन का ही साधन है?

महिला केंद्रित सेमिनार में बेपर्दा होती पुरुषवादी मानसिकता

पुरुषवादी मानसिकता का सबसे विद्रूप परिचय विमर्श केन्द्रित सेमिनारों में मिलता है| खासतौर पर स्त्री-विमर्श से सम्बंधित गोष्ठियों में, जहाँ पर सभी लोग स्त्री के पक्ष में, स्त्री के साथ और स्त्री के संघर्ष में अपनी संवेदना को जोड़ने के लिए मौजूद होते हैं| इन सेमिनारों में स्त्री जीवन के मार्मिक यथार्थ और उसके प्रतिरोध से संबंधित कुछ बातों पर इस तरह से ठहाके लगते हैं मानो ऐसी बातों से मनोरंजन करने आए हों| जैसे निचले तबके की स्त्री की बात करते हुए यह कहा जाये कि वह मध्यवर्गीय स्त्रियों की तरह समझौतापरस्त नहीं होती बल्कि बहुत बार पति से मार खाने पर उन्हें भी पीट देती हैं, तो इस पर खूब जम के ठहाके लगते हैं और सारा विमर्श और स्त्री मुक्ति की सारी अवधारणा क्षण भर में ही कहीं गुम हो जाती है|

बुद्धिजीवी की सौतिया डाहपर चर्चा

लम्बे समय तक फिर स्त्रियों के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं जैसे ‘तिरिया-चरित्तर’ और ‘सौतिया डाह’ की ही चर्चा होती रहती है| क्या किसी वर्ग की या किसी व्यक्ति की प्रतिरोधी चेतना हँसने, मनोरंजन करने और ठहाके में उड़ा देने की बात है? कब हमारी संवेदना उस स्तर तक पहुंचेगी जहाँ हमें उनका दुःख अपना दुःख लगेगा उनका प्रतिरोध हमारा साझा प्रतिरोध बनेगा? मध्यवर्गीय दृष्टिकोण और समझौतापरस्ती के विरोध में बोलते हुए हमारे बुद्धिजीवी खुद उसी मानसिकता से संचालित होते हैं|

मनबढ़से स्त्री का चरित्र-आंकलन

पुरुषवादी मानसिकता का प्रतिकार करने वाली स्त्री मध्यवर्गीय और तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत उच्च नैतिक मूल्यों वाले तबके के लिए मनोरंजन की ही वस्तु होती है| जब उनके घर की स्त्री कोई प्रतिकार करे तो या तो वह पागल होती है या मनबढ़ होती है या फिर नीच मानसिकता और नीच रहन-सहन की मानी जाती है| ‘मनबढ़’ शब्द उसके चरित्र का विश्लेषण करता है और नीच मानसिकता या नीच रहन-सहन एक खास तबके के लोगों को संबोधित होता है, जो मध्यवर्गीय मानसिकता के लिए हेय हैं|

स्त्रीवाद का अस्मिता से वर्चस्व तक पहुंचना

सेमिनारों में और उसके बाहर भी ‘स्त्रीवाद’ या फिर ‘स्त्रीवादी’ शब्दों का इस्तेमाल इस रूप में किया जाता है मानो इसके द्वारा अलगाववाद या लिंग आधारित ध्रुवीकरण किया जा रहा हो| स्त्रीवादी और पुरुषवादी को एक ही तराजू पर तौला जाता है| उन्हें इस रूप में व्याख्यायित किया जाता है जैसे एक ओर पुरुषवाद हो और दूसरी ओर करीब उन्हीं वर्चस्ववादी अवधारणाओं से भरा हुआ विपरीत लिंग वाला स्त्रीवाद| स्त्रीवाद की ऐसी परिभाषा हमारे ऐसे ही बुद्धिजीवियों ने गढ़ी है| स्त्रीवाद को अस्मिता की लड़ाई से वर्चस्व के स्तर पर पहुँचाने का काम ऐसी ही मानसिकता द्वारा किया जाता है|

पुरुषवादी मानसिकता का सबसे विद्रूप परिचय विमर्श केन्द्रित सेमिनारों में मिलता है|

भटकाती रही पितृसत्ता स्त्रीवाद को

इस मानसिकता ने स्त्री मुक्ति की मूल अवधारणा को पीछे छोड़ दिया है जो कि स्त्री को मानव समाज का हिस्सा बनाने और उसे सामाजिक प्राणी के रूप में प्रतिष्ठित करने से जुड़ी है न कि लिंग भेद को बढ़ावा देने से| स्त्रीवाद और पुरुषवाद को एक ही नजरिये से मूल्यांकित करना भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की एक खास तरह की दृष्टि है जिसके द्वारा धीरे-धीरे न्याय की कोई लड़ाई अपना रास्ता ही बदल दे या अपने मूल उद्देश्यों से भटक जाये|

पुरुषवादी मानसिकता का अमानवीय इतिहास

एक ओर वर्चस्व की होड़ और अमानवीयता है तो दूसरी ओर अस्मिता और मनुष्यता फिर दोनों को एक ही तराजू पर तौलने का क्या औचित्य है? इतिहास गवाह है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुषवादी मानसिकता जितना अमानवीय कोई भी मातृसत्तात्मक व्यवस्था या स्त्रीवादी आन्दोलन नहीं रहा है| स्त्रियों का कोई भी संघर्ष या प्रतिरोध सत्ता या वर्चस्व की संस्कृति स्थापित करने के लिए नहीं रहा है| कई बार सेमिनारों में हमारे बुद्धिजीवी साहित्य की एकता और अखंडता की चिंता प्रकट करते रहते हैं| उन्हें विमर्शात्मक या फिर अस्मितामूलक साहित्य, साहित्य की एकता और अखंडता का बंटवारा लगता है| उनके अनुसार साहित्य सिर्फ साहित्य होता है और उसकी पहचान सिर्फ साहित्य के रूप में होनी चाहिए न कि विमर्शात्मक या अस्मितावादी साहित्य के रूप में| ऐसे बुद्धिजीवियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य क्या है? किसी भी तरह की कला में मानवीय संवेदना की अभियक्ति का कारण क्या है?

एक समय में साहित्य चिंतकों के यहाँ यही सवाल विचारधारा खासतौर पर मार्क्सवादी विचारधारा और साहित्य के सन्दर्भ में उठा था| साहित्य में रचनाकार की मूल संवेदना की अभिव्यक्ति निश्चित तौर पर दिखाई देती है चाहे वह किसी खास विचारधारा से प्रेरित हो या नहीं| और संवेदना के इस झुकाव के स्तर पर उसके साहित्य की पहचान बड़े सामाजिक सरोकारों के साथ जुड़ती है| साहित्य का मूल्यांकन रचनाकार की विचारधारा को आधार बनाकर भले न किया जाये लेकिन रचना की मूल संवेदना और उद्देश्य से हटकर नहीं की जा सकती है|

बाल्जाक का समाज

बाल्जाक का विश्लेषण करते हुए एंगेल्स ने लिखा है- “बाल्जाक का अपनी वर्गीय सहानुभूतियों और राजनीतिक पूर्वग्रहों के खिलाफ बाध्य होकर लिखना, अपने प्रिय कुलीनों के अवश्यंभावी विनाश को देख पाना, और उनका चित्रण इस तरह करना कि गोया इससे बेहतर उनकी नियति हो ही नहीं सकती थी, और उनका भविष्य के लोगों को वहाँ देख पाना, जहाँ वे सचमुच उनके समय में पाए जा सकते थे, मेरी राय में यथार्थवाद की एक महानतम विजय है और बूढ़े बाल्जाक की सबसे शानदार उपलब्धि है|”

बाल्जाक का समाज के प्रतिगामी तत्त्वों के खिलाफ बाध्य होकर लिखना कहाँ से संभव हो सका? यह बाध्यता किसकी थी? यह बाध्यता एक रचनाकार की मानवीयता के प्रति ईमानदारी की उपज है और यह ईमानदारी उसे मानव-समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता से मिलती है| विचारधारा भी मूलतः प्रतिबद्धता का मूर्त रूप है| विमर्शों की मूल संवेदना भी विचारधारा ही है और अस्मिता की लड़ाई भी विचारधारा की ही लड़ाई है| वर्चस्ववादी संस्कृति के खिलाफ दमित-शोषित तबके, वर्ग, जाति व लिंग के साथ खड़ी होने वाली विचारधारा की लड़ाई| मनुष्य को किसी खास जाति और लिंग में बांधकर रखने और इस आधार पर उसका शोषण करने वाली व्यवस्था के खिलाफ विचारधारा की लड़ाई|

ऐसी विचारधारा से जुड़ा हुआ साहित्य निश्चित तौर पर साहित्य की जिम्मेदारियों और उसके व्यापक मानवीय संवेदनाओं का वहन करता है न कि साहित्यिक विभेद को जन्म देता है| जिस तरह साहित्य में प्रगतिशील और प्रतिगामी मूल्यों की पहचान आवश्यक है उसी प्रकार विमर्शों में भी इन मूल्यों की तलाश और उनकी प्रतिबद्धता को चिह्नित करना जरुरी है, लेकिन विमर्शों और उससे जुड़े साहित्य को साहित्य के विस्तृत फलक से अलगाकर उसे एक खास घेरे में सीमित कर देना उचित नहीं है|

एकेडमिक सेमिनारों में कई बार इस घेरेबंदी की पुरजोर कोशिश होती नजर आती है| इस कोशिश का सम्बन्ध उसी अहम् की तुष्टि से है जो सदियों से किसी न किसी रूप में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती है| इसके लिए वही हथकंडे अपनाए जाते हैं जो परम्परागत रूप से पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मजबूत आधार रहे हैं और समय-समय पर जिनका रूप परिवर्तित और परिष्कृत होता रहा है| इन हथकंडों से किसी भी सार्थक विमर्श और उसकी विचारधारा की वह जमीन ही खिसकाने की कोशिश की जा रही है जिस पर उसके प्रतिरोध का दारोमदार टिका है| ऐसी स्थिति में इन सेमिनारों और विमर्शों की प्रासंगिकता और उसकी मूल अवधारणा पर भी सवाल खड़े होते हैं| ये सवाल अब तक के पूरे संघर्ष को नये सिरे से व्याख्यायित करने की माँग भी करते हैं|

ऐसे सेमिनारों की चर्चाएँ कई बार हमें उस जगह पर ला खड़ा करती हैं जहाँ से दिग्भ्रमित होने की पूरी संभावना होती है, क्योंकि सिम्बोर्श्का के शब्दों में कहें तो ‘इंसाफ भी तभी तक अपनी राह चलता है, जब तक नफरत इसकी दिशा नहीं बदल देती|’ नफरत की इस दिशा और उसकी तरफ मोड़ने वाले तत्वों की भी पहचान जरुरी है और उनसे सतर्क रहना भी|

और पढ़े: भारत में स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष: इतिहास के झरोखे से 

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content