संस्कृतिपरंपरा पितृसत्तात्मक सोच वाला हमारा ‘रेप कल्चर’

पितृसत्तात्मक सोच वाला हमारा ‘रेप कल्चर’

हमारे समाज में ऐसे बहुत से घटक है जो पितृसत्ता की जड़ों को और ज्यादा मजबूत करने में मदद कर रहे है जिससे लगातार रेप कल्चर को बढ़ावा मिल रहा है|

दिल्ली में सोलह दिसंबर 2012 की वो रात हमेशा की तरह एक आम रात थी सिवाय उस बदनुमा दाग़ को छोड़कर जिसने निर्भया के नाम से सभ्य समाज की एक ऐसी घिनौनी सच्चाई को हमारे समाने लाकर खड़ा कर दिया जिसे हम सभी आये दिन मीडिया की खबरों में देखते-सुनते रहते थे| पर ये उस घटना का एक ऐसा वीभत्स रूप था जिसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया था| एक लड़की के साथ हुई बर्बरता ने समाज में महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा को लेकर एक साथ कई सवाल खड़े कर दिये और लोगों को सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिर हम कैसे समाज का हिस्सा है? क्या ये वही समाज है जहाँ चारों तरफ विकास और आधुनिकता के डंके पीटे जा रहे है|

निर्भया के साथ हुई इस क्रूर हिंसा ने लोगों को अपने घर की इज्जत वाली दहलीज को पारकर पहली बार सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया था| सभी इस हैवानियत के खिलाफ खड़े होकर अपना-अपना विरोध जता रहे थे| जगह-जगह कैंडल मार्च से लेकर भूख हड़ताल तक की खबरें मीडिया की सुर्खियाँ बन चुकी थी|

जल्द और सख्त न्याय की मांग में चले एक लंबे सघंर्ष के बाद 5 मई, 2017 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपना फैसला पढ़ते हुए चारों दोषियों को  मौत की सजा सुनाई| सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्भया गैंगरेप के मामले में सभी दोषियों को फांसी की सजा दिए जाने के फैसले का लोगों ने जोरदार स्वागत भी किया।

घटनाएँ और उनकी खबरें वही रहती है बस घटना के शिकार और शिकारी बदल जाते है|

पर अब सवाल यह है कि क्या इतना काफी है? विरोध प्रदर्शन के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना और दोषियों को सजा मिल जाने से क्या हमारे समाज में रेप, गैंगरेप या यौनिक हिंसा पर रोक लग पायी है या कभी रोक लग पायेगी? यह अपने आप में एक ज़रूरी सवाल है| निर्भया गैंग रेप के बाद देश में महिलाओं और लड़कियों के लिए आज भी कोई सुरक्षित माहौल नहीं बन पाया है| इस बात का अंदाज़ा आये दिन बलात्कार की बढ़ती खबरों से लगाया जा सकता है| घटनाएँ और उनकी खबरें वही रहती है बस घटना के शिकार और शिकारी बदल जाते है| पर इस प्रक्रिया में कोई भी बदलाव नहीं आता है|

सोशल मीडिया से सड़क पर मोर्चा

ऐसे अपराधों के विरोध में लोग सोशल मीडिया में तुरंत अपना गुस्सा ज़ाहिर करते है और इसके बाद सड़कों पर उतरकर त्वरित और सख्त सजा की मांग करने लगते है| पर अब समय आ गया है कि हम इस समस्या से निपटने के लिए दूरगामी समाधान की ओर बढ़े जहाँ समस्या के समाधान का निर्णय समस्या के मूल कारण से किया जा सके|

संकीर्ण पितृसत्तात्मक सोच है असली जड़

हमारे समाज (जो कि एक पितृसत्तात्मक समाज है) में सामूहिक बलात्कार या महिला विरोधी किसी भी तरह की हिंसा का अगर विश्लेषण किया जाए तो हम यह पाते है इन सभी समस्याओं की मूल जड़ समाज की संकीर्ण पितृसत्तात्मक सोच है, जो महिलाओं के दमन में अपने पुरुषत्व को परिभाषित करती है| हमारे समाज में ऐसे बहुत से घटक है जो पितृसत्ता की जड़ों को और ज्यादा मजबूत करने में मदद कर रहे है। इन घटकों पर बात किये बिना पितृसत्ता की जड़ो की गहराई की माप कर पाना भी मुश्किल होगा।

पितृसत्ता में महिलाओं का बाजारीकरण

फिल्मों के संदर्भ में अक्सर कहा जाता है कि फ़िल्में हमारे समाज का आईना होती है| अगर बात की जाए वर्तमान हिंदी सिनेमा की तो फिल्मों में आज हम ऐसे गानों को सुन रहे है जो महिलाओं और लड़कियों को इंसान से वस्तु बना कर प्रस्तुत कर रहे है। तंदूरी मुर्गी से लेकर पटका बम्ब जैसे शब्दों ने महिलाओं का बाजारीकरण कर दिया है| महिला को इंसान समझने की बजाय ऐसी फिल्मों और इनके गानों ने महिलाओं को इस्तेमाल करनी एक वस्तु बना दिया है। इसके चलते ऐसी मानसिकता को पैदा हो चुकी है कि कोई भी व्यकि जब चाहे ,जहाँ चाहे  महिलाओं को वस्तु समझकर बर्बरता कर रहा है।

फ़िल्मी गानों में यौनिक हिंसा को लोगों के सामने ऐसे परोसा जाता है कि वो अपराध से ज्यादा  मनोरंजन लगने लगता है।

ऐसी  फिल्मों और गानों का असर लोक संगीतों पर भी पड़ रहा है।  अगर हरियाणवी गीतों की बात करें तो उनमें महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली यौनिक हिंसा को साफ-साफ देखा जा सकता है। हैरानी की बात तो ये है कि फ़िल्मी गानों में यौनिक हिंसा को लोगों के सामने ऐसे परोसा जाता है कि वो अपराध से ज्यादा मनोरंजन लगने लगता है।

पितृसत्ता की उपज संकीर्ण बयानबाज़ी

बात सिर्फ फिल्मों और गानों तक नहीं रुकती है| हद तो तब हो जाती है जब ऐसी घटनाओं के बाद हमारे जनप्रतिनिधि और प्रतिष्ठित हस्तियों के संकीर्ण सोच वाले बयान, जैसे :- “लड़के तो लड़के होते है लड़को से गलती हो जाती है|”  “कभी कभी रेप सही होता है कभी गलत|” या फिर “अगर वो हमारी एक लड़की के साथ गलत करेगे ,तो हम उनकी हज़ार लड़की उठाएंगे|” इस तरह के बयानों से लोगों के मन बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के प्रति संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है।

और पढ़ें : पितृसत्ता से कितनी आजाद हैं महिलाएं?

योनि वाली एशट्रे

डिजिटल इंडिया के दौर में हमारे देश में ज्यादा से ज्यादा सुविधाएँ ऑनलाइन उपलब्ध करवाई जा रही है, जिनमें ऑनलाइन शॉपिंग भी शामिल है| हाल ही में, ऐसे ही एक ऑनलाइन शॉपिंग साइट ने अपने प्रॉडक्ट में एक ऐसे एशट्रे को बेचने के लिए प्रस्तुत किया जिसको महिला आकृति की शक्ल में ढाला गया और जिसमें महिला की योनि (वजाइना) में सिगरेट बुझाने का इंतजाम किया गया था। सवाल यह है कि आखिर हमारा समाज ऐसी वस्तुओं के ज़रिए अपनी कौन-सी ताकत या मानसिकता को दिखाना चाहता है|

आज एक तरफ न्याय व्यवस्था को मजबूत करने के लिए अनेक बदलाव हो रहे है| वहीं दूसरी तरफ अपराधियों के खिलाफ  विरोध प्रदर्शन किये जा रहे है। लेकिन हमें अब इस बात पर गौर करना होगा कि इन सब से पितृसत्ता की संकीर्ण मानसिकता कितनी खत्म हो रही है| अगर ऐसी फिल्में, गाने, बयान और   प्रॉडक्ट पर रोक नहीं लगाई गई जो कि समाज में रेप कल्चर को बढ़ावा दे रही है  तो ऐसी बर्बरता को रोक पाना मुश्किल ही नही असंभव जाएगा।

Comments:

  1. Riya says:

    Very Well written 👏👏

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