संस्कृतिकिताबें गुनहगार इशरत आफरीं की नारीवादी चेतना

गुनहगार इशरत आफरीं की नारीवादी चेतना

इशरत आफ़रीं साहिबा की कलम पूरे उपमहाद्वीप की औरतों के लिए मशाल से कम नहीं है| उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से नारीवादी है|

मेरा कद
मेरे बाप से ऊंचा निकला
और मेरी माँ जीत गई।

– इशरत आफ़रीं

हम महिलाओं को अक्सर चुप रहने की नसीहत दी जाती है| हम बोलतीं भी हैं तो अपनी ज़ुबान से नहीं, कोई शायर साहब हमारी बेवफ़ाई पर कुछ भी कह देते हैं| किसने देखी थीं हमारी वफ़ाएँ, हमारे दर्द, हमारे शहर, जो उनके शहरों से अलग थे| खैर जब हमसे चुप्पी नहीं सही गई तो हमने लिखा पर किसी आदमी के तख़ल्लुस (उपनाम) के पीछे छिपकर| फिर वक़्त नहीं बदला, हमारी संवेदनाएँ बदल गईं| सामाजिक स्वीकृति के लिए कब तक शहीद होती औरत| उन्होंने जो चाहा हम से करवा लिया, हमने जो किया उनके हिसाब से न किया| हमारी कौम में बग़ावत पलने लगी दिखाई देती हुई पर सिर्फ कुछ काले चिन्हों के रूप में| इन काले चिन्हों ने जो कुछ गहने पहने तो उर्दू के नारीवादी आन्दोलन का रूप ले लिया| इस आंदोलन में कई गुनाहगार औरतों ने शिरकत की| उन गुनाहगार औरतों की फ़ेहरिस्त में एक रोशन नाम है- इशरत आफरीं साहिबा का| इनका दूसरा नाम गर आफरीं न होता तो भी इनका नाम आफरीं होता|

इशरत आफरीं का राजनैतिक बयान

इशरत आफरीं पहले औरत थीं| उनकी पहचान में नारीवादी चेतना का एक बहुत बड़ा भाग है| उनके हर लफ्ज़ पर चैतन्य की परछाई रहती है| इसलिए ही उनकी रचनाओं में परवीन शाकिर जैसी काव्यात्मक निष्पक्षता नहीं थी| उनकी हर कविता सिर्फ साहित्यिक ही नहीं बल्कि अपने वक़्त का राजनैतिक बयान थी| उनकी कल्पना की औरत हम सब के अंदर रहती है, वो किसी विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती| वो औरत वही है जिसे बोलते-बोलते चुप करवा दिया गया या वो इंक़लाबी औरत जिसके इंक़लाब को ज़माने ने बुझा दिया, मिसाल के तौर पर उनके ये शेर देखें –

वो जिस ने अश्कों से हार नहीं मानी

किस ख़ामोशी से दरिया में डूब गई

शहर बहरा है लोग पत्थर हैं

अब के किस तौर इंक़लाब उतरे

साथ ही उन्हें उस औरत का भी ख़याल रहा जिसको लगा था कि ज़िन्दगी फूलों का बाग़ान है पर ज़िन्दगी तो पत्थर की खदान निकली| खैर उसने वहाँ भी हार न मानी –

फूलों में ढली हुई ये लड़की

पत्थर पे किताब लिख रही है

फूलों की ज़ुबान की शायरा थी

काँटों से गुलाब लिख रही है

उनकी शायरी में मुहब्बत का ग़म भी है पर उस ग़म में भी ख़ुद्दारी है, उनकी शायरी की औरत सामाजिक स्वीकृति के लिए सजदों में दफ़न नहीं होती| उसके ग़म में मीर-ओ-ग़ालिब जैसा ग़ुरूर था| फ़र्क बस ये था कि वो औरत थीं और वो समाज के अंदर से समाज को ललकार रही थी|

मैं तो जलते हुए ज़ख्मों के तले रहती हूँ

तू ने देखा है कभी धूप का सहरा कोई

वो जो लौट भी आया तो क्या दान करूँगी

मैं तो उसके नाम का इक ज़ेवर नहीं रखती

दोपहरों के ज़र्द किवाड़ों की ज़ंजीर से पूछ

यादों को आवारा रखना कितना मुश्किल है

वो उस औरत की भी बात करती हैं जिसके जीवन का अर्थ सिर्फ़ आदमी की ख्वाहिशों की बलि चढ़ना था| उनका सवाल समूचे समाज को कटघरे में खड़ा कर देता है| सही सवाल पूछना भी अपनेआप में एक आन्दोलन होता है| उनके लफ़्ज़ों की अगुवाई में छिड़े इस आंदोलन ने पितृसत्तात्मक समाज को ख़ासा परेशां किया|

जिन्हें कि उम्रभर सुहाग की दुआएँ दी गई

सुना है अपनी चूड़ियाँ ही पीसकर वो पी गई

जो म’आबाद में दिया जलाने आती थी

वो लड़की क्यूँ अँधियारों की नज्र हुई

सरों का ये लगान अब के फ़स्ल कौन ले गया

ये किस की खेतियाँ थीं और किस को सौंप दी गईं

इशरत की नारीवादी शायरी

उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से नारीवादी है| हालाँकि उसकी लेखन शैली उर्दू परंपरा के लिए नई नहीं है| शायद वो पारंपरिक पितृसत्तात्मक शायरों को उनकी ही ज़बान में जवाब देना चाहती थीं|

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उर्दू शायरी के उन्हीं रंगों से उन्होंने एकदम नायाब तस्वीरें बनाईं| उनकी यह ग़ज़लें उन्हीं तस्वीरों का अनुवाद हैं-

लड़कियां माँओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती है
तन सहरा और आँख समंदर क्यों रखती हैं

औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी
संदूकों में बंद यह ज़ेवर क्यूँ रखती हैं

वह जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं
चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यूँ रखती हैं

वह जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पाँव
बचा बचा कर सर की चादर क्यूँ रखती हैं

बंद हवेली में जो सान्हें हो जाते हैं
उनकी ख़बर दीवारें अकसर क्यूँ रखती हैं

सुबह ए विसाल किरनें हम से पूछ रही हैं
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यूँ रखती हैं

हाँ मजाज़ से लेकर कैफ़ी आज़मी ने लिखी हैं ख़ूबसूरत नज़्में औरतों के उत्थान के लिए| हाँ बहुत आदमी शामिल हैं इस नारीवादी आंदोलन में| पर हमें हमारे शब्द खुद बोलने होंगे| हमें पढ़ना होगा इशरत आफ़रीं, किश्वर नाहीद, फहमिदा रियाज़ और ज़हरा निगाह जैसी तरक्कीपसंद औरतों को| हमें अपनी आज़ादी का मोर्चा आप ही निकालना होगा| हवेली के मकीं तो चाहते हैं कि घर में ही रहे घर की लड़की|

इशरत आफ़रीं साहिबा की कलम पूरे उपमहाद्वीप की औरतों के लिए मशाल से कम नहीं है| क्योंकि उन्होंने अपनी शायरी और नज्मों को हसीन वादियों या कल्पनाओं में सीमित न करते हुए आधी आबादी के सरोकार से जुड़े मुद्दों को उठाया| साथ ही, इन्होंने हमेशा अपने लफ्जों के ज़रिए महिलाओं की तरक्की को केंद्र में रखा है| समय के साथ हमारे लिए भी यह ज़रूरी है कि हम इस आंदोलन में उनके साथ बढ़ते रहें| जैसे कि उनका एक शेर है-

और मता-ए-जान-ओ-दिल कुछ भी न मुझको चाहिए

सीने में इक चराग़-सा आँख में इक लहू रहे

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