समाजख़बर गौरी लंकेश की मौत के दिन एक औरत जिन्दा लाश थी

गौरी लंकेश की मौत के दिन एक औरत जिन्दा लाश थी

गौरी लंकेश की हत्या का किस्सा भारतीय समाज में महिलाओं संजीदा हालत को साफ तौर पर दिखाता है जहाँ हर दूसरी औरत जीवन में जिन्दा लाश बनाई जाती है|

क्यों रो रहे हो तुम गौरी लंकेश की मौत पर…? बगावत करने वाले हर इंसान का हश्र ऐसा ही होता है। यही है हमारी सरकार और उससे बने समाज की प्रथा। प्रथा तलाक की, प्रथा जिंदा जला देने की, प्रथा लात-घूसे मारने की, प्रथा आवाज नीची कर अधिकार मांगने की, प्रथा प्रताड़ित होकर भी लौटकर उसी ससुराल में जाने की, प्रथा इच्छाओं को दबाकर ख्वाइशों को पूरे करने की, प्रथा कपड़ो में कैद होकर घर की इज्जत संवारने की|

ये सारी प्रथाएं समाज ने बनाई है औरतों के लिए और जो औरतें इन प्रथाओं के खिलाफ जाती है उनके साथ गौरी लंकेश जैसा ही सुलूक किया जाता है। हालांकि सबके सीने गोली से छल्ली नहीं होते लेकिन सजा, मौत से बद्दतर ही होती है।

गौरी लंकेश की हत्या के दर्द को मैं समाज की तमाम औरतों के दर्द और पीड़ा से इसलिए जोड़ रही हूं क्योंकि जिस रात गौरी लंकेश की हत्या की खबर टीवी चैनल पर चल रही थी उस वक़्त मैं ओखला के होली फैमेली हॉस्पिटल के इमरजेंसी हॉल में थी। मेरी एक रूम-मेट के पीठ में दर्द अचानक बढ़ गया। उसके साथ हम तीन और लड़कियां करीब एक बजे रात हॉस्पिटल पहुंची थी। हॉस्पिटल में मरीजों और उनके साथ आये दोस्त-नाते-रिश्तेदारों की भीड़ थी| उन्हीं में से एक पेशेंट हमारे आगे की कुर्सी में बैठी हुई थी| उसने नीले और लाल रंग की सलवार-कमीज पहन रखी थी| उसके सिर पर दुपट्टा, हाथों में चुड़िया और मांग सिंदूर से भरी थी। उस लड़की के उठते ही मेरी दोस्त पेसेंट सीट पर बैठती है और अचानक उठे दर्द के बारे में डॉक्टर को बताती है तभी नर्स उस लड़की से पूछती है, ये सारी चोट पति के मारने की ही है न? ये सुनते ही मेरा ध्यान अपनी दोस्त से हटकर उस लड़की पर चला जाता है।

सबके सीने गोली से छल्ली नहीं होते लेकिन सजा, मौत से बद्दतर ही होती है।

उसे ध्यान से देखने पर उसकी आंखो के नीचे नीले रंग के घहरे निशान नजर आते है, एक आंख की पलक कटी हुई थी। वो एकदम चुप-सी थी, जिसे देखकर मेरे मन में कई सवाल उठने लगे थे। मैंने मेरी दोस्त सपना को इशारे से उसकी तरफ देखने को कहा| दबी आवाज में होठो को हिलाते हुए लड़की ने बताया कि उसके पति ने उसे मारा है।

हमदोनों उसे देखते रहे और जैसे ही उसकी रिपोर्ट पर नर्स ने साइन करने के लिए कहा तो उसने अंगूठा लगाया। अंगूठे की लकीरे रिपोर्ट पर नीले रंग में छपी और उसकी जिंदगी के कोरे कागज पर काली स्याही-सी छप गयी जैसे ये उसके न पढ़े-लिखे होने की सजा हो, जो रात के एक बजे उसे इमरजेंसी वार्ड में आना पड़ा। करीब एक से डेढ़ घंटे तक हम हॉस्पिटल में रहे। मेरी आंखे उसे बार-बार ताक रही थी। वो एकदम शांत थी, एकदम खामोश, न आंखों में आंसू थे, न चेहरे पर कोई भाव, जिसे देखकर उसे जिंदा लाश कहना कहीं भी गलत नहीं होगा।

औरतों के बोल्ड होने का मतलब है – बदचलन, सनकी, अभिमानी, लड़ाका, स्वार्थी, घर तोड़ने वाली, बागी

उससे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई| मैंने नर्स से जानकारी लेनी चाही तो उसने बताया कि ‘हां पति ने मारा है हमने तो रिपोर्ट बना दी है डोमेस्टिक वोइलेंस की।‘ बस इतनी ही जानकारी देकर वो चली गई और हम चारों आपस में एक दूसरे को देखने लगे।

मन भर गया था मेरा, आंखों में हल्के आंसू थे और कई सारे सवाल। खुद से और समाज से। तभी मैंने कहा, ‘देखना अभी तो इसके मम्मी पापा इसके साथ है लेकिन जैसे ही इसका पति कुछ टाइम बाद माफी मांगने आएगा तो इसे फिर से उस हैवान के पास ही भेज देंगे।‘ पहले तो अपनी बेटी को पढ़ाना जरूरी नहीं लगता और फिर वो बेटी बोझ लगती है। तभी मेरी दोस्त सोनम ने कहा कि इसीलिए लड़कियों को शिक्षित, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और बोल्ड होना चाहिए जिससे कोई भी हाथ उठाने से पहले चार बार सोचे। बात उसकी बिल्कुल सही थी लेकिन अब सवाल यह था कि बोल्ड तो गौरी लंकेश भी थी। वो न केवल अपने अधिकारों के प्रति बल्कि समाज के सरोकार से जुड़े हर पहलुओं के प्रति जागरूक थी और एक पत्रकार के तौर पर निडर होकर अपने सवाल और उन पहलुओं को बेबाकी से समाज के सामने रखने वाली थी| पर समाज की नज़र वो बोल्ड नहीं थी क्योंकि हमारे समाज में औरतों के बोल्ड होने का मतलब है – बदचलन, सनकी, अभिमानी, लड़ाका, स्वार्थी, घर तोड़ने वाली, बागी और कई सारे ऐसे शब्द जो मैं लिखना नहीं चाहती।

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आखिर में मेरा सवाल बस यही है कि बात चाहे बंगलुरु की निडर व बेबाक पत्रकार गौरी लंकेश की हो या राजधानी दिल्ली में रहने वाली अनपढ़ महिला की या फिर गाँव की उस महिला की जिसे ये तक नहीं मालूम कि देश की राजधानी किस दिशा में है….एक मोड़ पर समाज का महिलाओं के प्रति उनका रुख बेहद साफ़ दिखाई देता है – वो है ‘समानता और स्वतंत्रता का मोड़’ फिर वो सत्ता से सवाल-जवाब करने की बात हो या पति की तानाशाही से आज़ादी की बात हो, पितृसत्ता का रुख सिर्फ होता है – दमन की ओर| ऐसे में आखिर वे कौन-से उपाय या समाधान अपनाये जाये जिससे महिलाओं का अस्तित्व परतंत्रता, हिंसा, असमानता और दमन से इतर हो|


इस लेख को कावेरी सिंह (कामिनी) ने लिखा है|

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