इंटरसेक्शनलहिंसा बलात्कार पीड़िताओं पर दबाव बनाता है भारतीय समाज – ह्यूमन राइट्स वाच

बलात्कार पीड़िताओं पर दबाव बनाता है भारतीय समाज – ह्यूमन राइट्स वाच

ह्यूमन राइट्स वॉच का अध्ययन यौन हिंसा के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के उद्देश्य से बने कानूनों, प्रासंगिक नीतियों और दिशानिर्देशों को लागू करने में लगातार सामने आ रही कमियों को सामने रखता है|

स्मिता शर्मा

मई 2017 में हरियाणा राज्य के रोहतक जिले में एक 23 वर्षीय महिला की हत्या कर दी गई|  पीड़िता की लाश दो लोगों ने उनके कथित अपहरण के चार दिन बाद मिली, जिन्होंने उनके साथ बलात्कार किया| सिर ईंट से कुचल दिया और उसके बाद शरीर पर कार चढ़ा दी| शव-परीक्षण से पता चला कि अंदरूनी चोटें नृशंस और क्रूर यौन उत्पीड़न का नतीज़ा थीं|

दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक युवा छात्रा के सामूहिक बलात्कार और मौत के पांच साल बाद जिसने कानूनी और अन्य सुधारों की राह दिखायी| भारत में यौन हिंसा और बलात्कार की उत्तरजीवी लड़कियों और महिलाओं को न्याय और स्वास्थ्य देखभाल, परामर्श और कानूनी सहायता जैसी सहायता सेवाएं पाने में भारी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है| अप्रैल 2013 में, भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से कानून में संशोधन किया|  महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा से सम्बंधित अपराधों की नई श्रेणियों को शामिल किया और सजा को और अधिक कठोर बना दिया| विधेयक पारित होने के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा था ‘भारत में ऐसा कानून पहली बार अस्तित्व में आया है और संसद ने इसकी मंजूरी दी है| यह देश में क्रांति का आगाज़ करेगा|’

हालांकि सकारात्मक कदम उठाए गए हैं, जिसमें भारतीय राजनेताओं और अधिकारियों की महती राजनीतिक इच्छाशक्ति का संकेत दिखाई देता है| मगर जिन परिवर्तनों का वादा किया गया था वे हकीकत से बहुत दूर रह गए हैं| मई 2017 के रोहतक मामले में, पुलिस ने यह दावा करते हुए अपना बचाव किया कि परिवार ने केवल मौखिक शिकायत की थी और बाद में इसे वापस ले लिया| इस बलात्कार और हत्या पर सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन के बाद ही राज्य सरकार ने मामला निपटाने में लापरवाही के लिए दो पुलिस अधिकारियों को निलंबित और एक अन्य को स्थानांतरित कर दिया| ह्यूमन राइट्स वॉच ने यह भी पाया कि भारत में महिलाओं और लड़कियों को अक्सर कलंकित होने के डर के कारण हमलों की रिपोर्ट दर्ज कराने से डर लगता है, और क्योंकि पीड़ितों या गवाहों को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करनेवाली आपराधिक न्याय प्रणाली में वे संस्थागत बाधाओं को पार करने में असमर्थ महसूस करती हैं|

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मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में स्कूल ऑफ जेंडर स्टडीज की अंजली दवे कहती है कि बलात्कार को अब भी महिलाओं की शर्मिंदगी के बतौर पेश किया जाता है और इसपर बात करने में महिलाओं के सामने कई सामाजिक बाधाएं खड़ी रहती हैं|

भारत में अब लैंगिक हिंसा से निपटने के लिए कई कानून हैं जैसे कि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013, यौन अपराधों से बाल सुरक्षा अधिनियम, और अगर पीड़ित दलित (पूर्व में “अस्पृश्य”) या आदिवासी समुदाय से हैं तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम| समय के साथ कानूनी बदलाव प्रभावी हुए और 2015 (सबसे हालिया साल जिसके लिए आंकड़े उपलब्ध है) के अंत तक पुलिस के पास दर्ज हुए बलात्कार की शिकायतों की संख्या में 39 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई|

बलात्कार को अब भी महिलाओं की शर्मिंदगी के बतौर पेश किया जाता है|

ह्यूमन राइट्स वॉच का अध्ययन यौन हिंसा के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के उद्देश्य से बने कानूनों, प्रासंगिक नीतियों और दिशानिर्देशों को लागू करने में लगातार सामने आ रही कमियों को सामने रखता है| इस रिपोर्ट में 21 मामलों में- जिनमें 10 में घटना के समय लड़कियों की उम्र 18 साल से कम थी- गहन शोध, भारतीय संगठनों के शोध और ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा पीडितों, उनके परिवार के सदस्यों, अधिवक्ताओं, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, वकालत करनेवालों, डॉक्टरों, फॉरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों के 65 साक्षात्कारों का इस्तेमाल करते हुए समस्या की व्यापकता का वर्णन किया गया है| साथ ही इस रिपोर्ट में पीड़ितों, उनके परिवार के सदस्यों, वकीलों, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, अधिवक्ताओं, डॉक्टरों, फॉरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों से ह्यूमन राइट्स वॉच के किए गए 65 से अधिक साक्षात्कार शामिल हैं| रिपोर्ट में इन मामलों का इस्तेमाल करते हुए विस्तृत सिफारिश की गई है कि किसप्रकार अधिकारी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपराधिक न्याय प्रणाली में पीड़ितों और उनके परिवारों से संवेदनशीलता, गरिमा के साथ और बिना भेदभाव के व्यवहार हो|

अधूरी है पुलिस की कार्यवाई

भारतीय कानून में यह प्रावधान है कि यौन उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न के प्रयास के मामलों में,  प्रशिक्षित महिला पुलिस अधिकारी उत्तरजीवी की गवाही दर्ज करें, उसके बयान का वीडियो टेप तैयार करें और यथाशीघ्र न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज कराए| आपराधिक दंड संहिता में 2013 हुए संशोधनों ने पुलिस अधिकारियों द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज करना अनिवार्य बना दिया है, जो ऐसा करने में विफल रहते हैं उन्हें दो साल तक जेल की सजा हो सकती है|

ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस हमेशा इन नियमों का पालन नहीं करती है| वे प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने में बाधा डालते हैं, जबकि पुलिस जांच शुरू करने के लिए यह पहला कदम है, खासकर यदि पीड़िता आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिए वाले समुदाय से आती हो| पुलिस जब-तब पीड़िता के परिवार पर “मामला निपटाने” या “समझौता” करने का दबाव डालती है, खासकर यदि अपराधी शक्तिशाली समुदाय का हो|

साल 2013 का संशोधन पुलिस द्वारा  बलात्कार की शिकायत दर्ज करने में विफलता को अपराध करार देता है, लेकिन बरखा का मामला दर्ज करने से इनकार करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक दंड संहिता की धारा 66 ए के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई| मजिस्ट्रेट भी पुलिस को जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मामला दायर करने का निर्देश देने में नाकाम रहे|

महिलाओं और लड़कियों ने कहा कि परामर्श सहित उनकी स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर लगभग कोई ध्यान नहीं दिया गया, जबकि यह स्पष्ट हो गया था कि उन्हें इसकी बहुत जरूरत थी|

साल 2013 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम में यौन अपराधों की परिभाषा का विस्तार करके ताक-झांक और पीछा करने जैसे नए अपराधों को शामिल कर लिया गया| हालांकि, 2014 में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव द्वारा दिल्ली और मुंबई में किये अध्ययन से पता चलता है कि पुलिस के पास ऐसे अपराध बहुत कम दर्ज कराए जाते हैं और यहां तक कि जहां रिपोर्ट दर्ज भी की गई है, वहां भी ऐसे मामलों में पुलिस अक्सर एफआईआर दर्ज करने या इन अपराधों की ठीक से जांच करने में नाकाम रही है| कई माता-पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस शिकायत दर्ज करने के बाद उन्हें अपनी बेटियों की सुरक्षा की चिंता थी क्योंकि आरोपी को जमानत मिल गई और फिर उसने लड़कियों को धमकी दी|

अक्सर, लड़कियां घर से बाहर की अपनी गतिविधियों पर खुद रोक लगा लेती हैं या माता-पिता उनकी  गतिविधियों पर और ज्यादा प्रतिबंध लगा देते हैं| कई उत्तर भारतीय राज्यों, जैसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजस्थान में अनधिकृत ग्रामीण जातीय परिषद, जिसे खाप पंचायत कहा जाता है| अगर अभियुक्त प्रभावशाली जाति का हो तो  दलित या अन्य तथाकथित “निम्न जाति” के परिवारों पर आपराधिक मामला आगे नहीं बढ़ाने का दवाब डालते हैं| स्थानीय राजनेता और पुलिस अक्सर इन पंचायतों के फरमानों से सहानुभूति रखते हैं या उनसे आँखें मूँद लेते हैं, इस तरह वे अप्रत्यक्ष तौर पर हिंसा का समर्थन करते हैं| भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल 2011 में उनके कार्यों को “पूर्णतः अवैध” करार दिए जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है|

नदारद ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाएं

भारत में डॉक्टर कानूनी तौर पर ऐसी  महिलाओं और लड़कियों को प्राथमिक उपचार या चिकित्सीय इलाज़ मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं, जो उनसे संपर्क करते हैं और बलात्कार की बात जाहिर करते हैं| मेडिकल जांच न केवल चिकित्सीय जरूरतें पूरा करती है, बल्कि संभावित फॉरेंसिक सबूत इकट्ठा करने में भी मदद करती है| भारतीय आपराधिक कानून के तहत अभियोजन पक्ष केवल बलात्कार की उत्तरजीवी की गवाही पर बलात्कार के लिए दोषसिद्धि सुनिश्चित कर सकता है, जहां वह तथाकथित भौतिक विवरणों में अकाट्य और सुसंगत है| फॉरेंसिक पुष्टिकरण कानूनी रूप से प्रासंगिक माना जाता है लेकिन आवश्यक नहीं है| साल 2014 में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने यौन हिंसा उत्तरजीवियों के लिए चिकित्सीय-कानूनी सेवा के लिए दिशानिर्देश जारी किए जिससे कि स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों द्वारा से यौन उत्पीड़न उत्तरजीवियों की जांच और इलाज को मानकीकृत किया जा सके| ये दिशानिर्देश गोपनीयता, गरिमा, भयमुक्त माहौल बनाने और ज्ञात सहमति सम्बन्धी महिलाओं और बच्चों के अधिकार का सम्मान करने के लिए तैयार की गई प्रक्रियाओं को एकीकृत करते हैं|

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ये दिशानिर्देश वैज्ञानिक चिकित्सीय जानकारी और प्रक्रियाएं भी मुहैया करते हैं जो उन प्रचलित  मिथकों और बलात्कार से जुड़े अपमानजनक व्यवहारों को सुधारने में सहायता करती हैं जिन्हें आम चिकित्सीय-कानूनी व्यवहारों द्वारा बढ़ावा दिया गया है| यह ‘चिकित्सीय रूप से निर्दिष्ट’ पीड़िता की आन्तरिक योनि जाँच तक सीमित करने वाले ‘टू फिंगर टेस्ट’(दो उँगलियों द्वारा परीक्षण) के प्रचलित तरीके को ख़त्म करता है और कहीं पीड़िता ‘सेक्स की आदी’ तो नहीं, जैसे अवैज्ञानिक और  अपमानजनक चरित्रहनन वाले चिकित्सीय निष्कर्ष के इस्तेमाल को ख़ारिज करता है|

ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा दस्तावेजीकरण किए गए बलात्कार के लगभग सभी मामलों में, महिलाओं और लड़कियों ने कहा कि परामर्श सहित उनकी स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर लगभग कोई ध्यान नहीं दिया गया, जबकि यह स्पष्ट हो गया था कि उन्हें इसकी बहुत जरूरत थी|

क़ानूनी सहायता तक नहीं है पहुंच

अपर्याप्त कानूनी सहायता विशेषकर उन उत्तरजीवियों के लिए चिंता का विषय है जो गरीब और हाशिए के समुदायों से आते हैं| साल 1994 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि यौन हमले की  पीड़िताओं को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए और सभी पुलिस स्टेशनों को कानूनी सहायता विकल्पों की सूची रखनी चाहिए| दिल्ली में यह सुनिश्चित करने के प्रयास हुए हैं – दिल्ली महिला आयोग एक रेप क्राइसिस सेल का संचालन करता है जो पुलिस स्टेशनों के साथ समन्वय करता है, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि यह भी तदर्थ व्यवस्था है और पूरी तरह प्रभावी नहीं है – फिर भी देश के अन्य हिस्सों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था दुर्लभ है| ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन 21 मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से किसी में भी पुलिस ने पीड़िता को कानूनी सहायता के उनके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया या कानूनी सहायता प्रदान नहीं की|


यह लेख इससे पहले स्त्रीकाल में प्रकाशित हो चुका है जो ह्यूमन राइट्स वाच की तरफ से तैयार की रिपोर्ट का सारांश है, जिसे स्मिता शर्मा ने लिखा है|

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