संस्कृतिसिनेमा ‘पदमावत’ फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली के नाम खुलाखत

‘पदमावत’ फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली के नाम खुलाखत

विवादों में घिरी पदमावत फिल्म जाने-अनजाने ही सही कई संवेदनशील मुद्दों को कट्टरपंथ से जोड़ने का संदेश देती है, जिसके लिए निर्देशक संजय लीला भंसाली के नाम है ये खुलाखत|

पदमावत फिल्म पर हुए बड़े विवाद ने इसे इतना लोकप्रिय बना दिया कि हर दूसरे शख्स को इसे देखने की एक बड़ी वजह मिली – विवाद| मैंने भी ये फिल्म देखी, जिसे देखने बाद लगा कि फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली जी के नाम एक खुलाखत लिखकर अपनी बात रखना ज़रूरी है| क्या पता प्रभावी मीडिया के माध्यम से ही सही मेरी बात उन तक पहुंच जाए| इस उम्मीद में ये खत संजय लीला भंसाली जी के नाम-

प्रिय संजय लीला भंसाली जी,

आशा है पदमावत के रिलीज़ होने के बाद आपको काफी सुकून मिला होगा| इस फिल्म से जुड़े अपने अनुभव और कुछ ज़रूरी संदेश आपसे साझा करने जा रही हूँ, अगर कोई बात बुरी लगे तो माफ़ करियेगा और अगर ठीक लगे तो उसे लागू ज़रूर कीजियेगा|

फिल्म के कई सीन को देखकर ऐसा लगा मानो वो एकसाथ हजारों वाक्य कह रहे हो| साथ ही, उसे देखकर कई सवाल मन में उठते हैं|सवालों के आधार पर, अगर मैं अभिनेत्री स्वरा भास्कर की लिखी हुई चिट्ठी को याद करूँ तो वो बहुत जायज़ लगती है| मेरी बातें ज़रूर सबको तल्ख़ लगेंगी, लेकिन वाक़ई में इसबात एकबार फिर सोचने की ज़रूरत है कि क्या इस वक़्त इस फ़िल्म की ज़रूरत हमारे देश को थी?

औरत के सिर पर हर वक़्त माँ का ताज चढ़ाकर उसे बलिदान की आग में झोकते हुए दिखाना, सीधे तौर पर हमारी पुरानी मानसिकता को दिखाता है|

क्या बार-बार औरत किन हालातों में भारत में साँसे लेकर जिन्दा रही है इसबात का उसे एहसास कराना ज़रूरी है? क्या वो दर्दनाक इतिहास की घटना दिखाकर हमारे आत्म को झकझोरना ज़रूरी है? साथ ही, इसबात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि क्या ये फ़िल्म जौहर का ख़ूबसूरत दर्दनाक दृश्य दिखाकर औरतों को फिर से पूजनीय बनाकर उनसे उनके जीने का अधिकार छिनती हुई दिखाई नहीं दे रही है|

औरत के सिर पर हर वक़्त माँ का ताज चढ़ाकर उसे बलिदान की आग में झोंकते हुए दिखाना, सीधे तौर पर हमारी पुरानी मानसिकता को दिखाता है| क्योंकि आज की औरतें तो एक आम नागरिक बनकर अपने अधिकारों के साथ सामान्य ज़िन्दगी जीना चाहती है| वो कुछ बनना चाहती है। हमारे देश की महिलाओं ने अरसों तक वेदनाएं और पीढ़ा सही है| ऐसे में, संजय साहब आज के दौर में ये कितना ज़रूरी और सही है कि इतिहास के उस पन्ने को उजागर करना जो महिला-संघर्ष की बजाय सिर्फ उसके बलिदान की गाथा बताये|

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पदमावत देखकर मुझे कुछ ऐसी ही कैफ़ियत हुई कि जैसे उन वीरांगनाओ के बलिदान को बार-बार दिखाकर आज की महिला से भी वैसी ही अपेक्षा रखी जा रही है कि उसकी आन उसकी योनि में आज भी कैद है| आपने भले ही कई दर्शकों को आख़िरी सीन से रुला दिया हो, लेकिन कहीं न कहीं उसके कंधो पर फिर से गैरत की ज़िम्मेदारी डाल दी है|

आप कैसे भूल सकते हैं की ये वो देश हैं जहां आज भी वृन्दावन में विधवाओं का आश्रम है| लेकिन विदुर का नहीं, एक विदुर जहां अपनी जीवनसंगनी के देहांत के बाद भी जी सकता है जो मन किया खा सकता है, यहाँ तक की जब समाज भी उसे दूसरी शादी के लिए बढ़ावा देता है| वही एक विधवा से उसके अधिकार, उसके जीवन जीने की अभिलाषा की हत्या करता है| हमें ज़रूरत है आज की वीरांगनाओ पर फिल्में बनाने की जो हर रोज़ बलात्कार की खबरे छपने के बावजूद घर के बाहर निकलती हैं, पढ़ती हैं, नौकरी करती है और अपने मनोरंजन के लिए जाती है|

इतना ही नहीं, आपने पदमावत बनाकर उन कट्टरपंथियों को बढ़ावा दे दिया जो औरतों को घर में कैद रखना चाहते हैं और वो भी महज़ इज्ज़त के नाम पर या फिर डिस्को और पब से उसके बाल खींचकर उसे बाहर ढकेलकर शर्मसार करते हैं|

हमें ज़रूरत है आज की वीरांगनाओ पर फिल्में बनाने की जो हर रोज़ बलात्कार की खबरे छपने के बावजूद घर के बाहर निकलती हैं, पढ़ती हैं, नौकरी करती है और अपने मनोरंजन के लिए जाती है|

खैर, अगर मैं ये मुद्दा एकबार छोड़ भी दूँ तो धर्म से जुड़ा दूसरा मुद्दा सामने आता है जो बेहद संवेदनशील भी है| देश की मौजूदा हालत ये है कि किसी इंसान को उसके खान-पान को लेकर मौत के घाट उतार दिया जाता है तो कभी मजहब के आधार पर भीड़ में मौत का शिकार बनाया जाता है| ऐसे में, ये फिल्म मुसलमान को आज भी उसी नज़र से दिखाती है कि वे घुसपैठिया, क्रूर और माँसाहारी है|

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ये सब एकबार फिर कट्टर हिंदूत्व वाले संघियों को मौक़ा देना लगता है| एक अनुभवी निर्देशक के तौर पर आपसे इतनी परिपक्वता की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि जब आप फिल्म में राजपूतों की लड़ायी ख़िलजी से साथ दिखाते है तो दर्शक उसे कोई काल्पनिक या सालों पहले हुई घटना नहीं मानते है, बल्कि इसे मौजूदा हालात से जोड़कर देखते है, जो ‘धर्म’ का एक संवेदनशील मुद्दा बन जाता है और संचार का प्रभावी साधन ‘सिनेमा’ नफरत के इस बीज को पनपने की और  ताक़त देगा| ये फिल्म देखने के बाद दर्शक एक झटके में अकबर जैसे नेक मुग़ल बादशाहों को भूल जाएगा और याद रखेगा तो सिर्फ जौहर और नफ़रत की आग को| औरत को महान बनाकर बार-बार उसके बलिदान की उम्मीद को|

ये मेरे वो अनुभव है जो मैंने आपकी बनाई हुई फिल्म ‘पदमावत’ को देखकर महसूस किये और उन्हीं के आधार पर आपसे यही कहना चाहूँगीं कि बंद कीजिए ऐसी फ़िल्में बनाना, जो आधी-आबादी के दमन और धर्म के नामपर कट्टरपंथ को बढ़ावा दे और वो भी सालों पुराने इतिहास के नामपर|

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