इंटरसेक्शनलहिंसा बलात्कार सिर्फ मीडिया में बहस का मुद्दा नहीं है

बलात्कार सिर्फ मीडिया में बहस का मुद्दा नहीं है

मीडिया में बहस का मुद्दा बलात्कार तो है लेकिन इसमें न्याय दिलाने की बात या औरतों के खिलाफ इस अमानवीयता की शिकायत की बजाय अपने पक्ष को कितने कलात्मक ढ़ंग से हम पेश कर रहे हैं यह ज्यादा ज़रूरी हो गया है।

बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के खिलाफ अपराध नहीं बल्कि यह पूरी मानव सभ्यता और इंसानियत के खिलाफ अपराध है। कुछ दिनों पहले आठ महीने की मासूम बच्ची के साथ जो हुआ वह कुछ नया नहीं है। अब तो ऐसा लगता है कि हमारे कानों को इस तरह की खबर सुनने की आदत-सी हो गई है। मैंने सोशल मीडिया पर देखा भी और सुना भी। एक संगीन अपराध को महज बहस बनाया जा रहा है। गनीमत है कि बहस का मुद्दा बलात्कार रखा जाता है। भले ही वह अपने उद्देश्य से भटका हो। बहस का मुद्दा बलात्कार तो है लेकिन इसमें न्याय दिलाने की बात या औरतों के खिलाफ इस अमानवीयता की शिकायत की बजाय अपने पक्ष को कितने कलात्मक ढ़ंग से हम पेश कर रहे हैं यह ज्यादा ज़रूरी हो गया है।

हमने तो बात रख दी

जब इस तरह की कोई बहस होती है  तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तो बोलने के लिए जितने भी महानुभाव आते हैं उनका सिर्फ यही ध्यान होता है कि हम बेहतर बोलें, टीवी पर सुन्दर दिखे और किसी बात पर श्रोताओं ने ताली बजा दी तब तो कहना ही क्या। इन सबसे उन्हें ऐसा लगता है कि उनका आना सार्थक हो गया| भले ही वे सार्थक बोले या न बोले। मुद्दे की गंभीरता पर चर्चा हो या न हो। ‘बस हमने तो बात रख दी।‘

जरूरी बात ‘ब्रेक’ के बाद

बहस के दौरान अगर कोई ज़रूरी बात निकलती है तो उसे तुरंत रोककर ‘ब्रेक’ ले लिया जाता है। ब्रेक के बाद लौटते ही वो जरूरी बात दब जाती है और बहस सिर्फ बहस रह जाती है। ये सब देखकर ऐसा लगता है जैसे पूरा मीडिया व्यापार बनकर रह गया है। कहीं किसी का बलात्कार हो जाता है तो यह गंभीर मुद्दा कम होता है। खुले शब्दों में कहें तो मीडिया को अपनी कमाई के लिए मसाला मिल जाता है। दो-चार दिन बाद चर्चा बिल्कुल बंद हो जाती है। जनता का आक्रोश भी धीरे-धीरे दब जाता है। आक्रोश  खत्म हो जाता है| शायद ऐसा इसलिए भी होता कि मीडिया उन्हें उस विषय पर समाज का खामोश चेहरा दिखाने लगता है| लेकिन वहीं दूसरी तरफ यही दबा हुआ आक्रोश इसी तरह की किसी और घटना पर उभर आता है।

बहस के दौरान अगर कोई ज़रूरी बात निकलती है तो उसे तुरंत रोककर ‘ब्रेक’ ले लिया जाता है।

बलात्कार का दोषी कौन?

जनता अपना आक्रोश ही व्यक्त कर सकती है, क्योंकि सारे नियम-कानून किसी और के हाथ में है। जनता में कानून का डर है| लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अपराधी को कानून का कोई डर नहीं क्योंकि उसका गॉडफादर उसे बचाने के लिए मौजूद है। इसलिए वह डर की सारी सीमा पार कर चुका है।

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हमारे देश में जो इस तरह की घटनाए हो रही हैं इसके लिए दोषी कौन है? क्या कानून व्यवस्था दोषी है? अगर हां तो फिर क्या नया कानून बनाने की जरूरत है। सवाल ज़रूरी है क्योंकि  कानून का डर आम सीधी-साधी जनता में है, अपराधियों में नहीं है। इस तरह तो डरे हुए को और डराया जा रहा है। सुरेन्द्र वर्मा ने आम जनता की स्थिति पर अपने एक वक्तव्य में कहा था-

कोई फर्क नहीं पड़ता राजा राम है कि रावण,
जनता तो सीता है
राजा राम हुआ तो वनवास दी जाएगी
राजा रावण हुआ तो हरण की जाएगी।

क़ानूनी चक्रव्यूह में महिला

अखबारों में रोज़ किसी न किसी जगह एक-दो बलात्कार की खबर पढ़ने को मिल जाती है। यह कोई खबर मात्र नहीं जिसे इतने हल्के में डेली रूटीन की तरह छाप दिया जाता है। बल्कि यह स्त्री की संपूर्ण मनोभावना को ध्वस्त कर देने वाला संगीन अपराध है जो पीड़िता से उसके जीने का अधिकार छीन लेता है। यह वह अमानवीय अपराध है जो हैवानियत की सारी हद पार कर देता है। हमारे समाज की संरचना कुछ इस तरह की है कि यहां हर हाल में स्त्री को ही दोषी माना जाता है। इसलिए अरविंद जैन ने अपनी किताब ‘औरत होने की सज़ा’ में लिखा है ‘‘समाज, सत्ता, संसद और न्यायपालिका पर पुरुषों का अधिकार रहने की वजह से सारे कानून और उनकी व्याख्याएं इस प्रकार से की गई हैं कि आदमी के बच निकलने के हजा़रों चोर दरवाजे मौजूद हैं| जबकि औरत के लिए कानूनी चक्रव्यूह से निकल पाना एकदम असंभव इसलिए पीड़िता खुद को दोषी मानकर सम्मानपूर्ण जीवन नहीं जी पाती।‘

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कैसे रुके ये अपराध?

अब ज़रूरी सवाल ये है कि आखिर इस तरह के अपराध को कैसे रोका जाए। कई संस्थाए हैं जो इस तरह के अपराध के खिलाफ आवाज उठाने का काम कर रही है| जागरूकता अभियान भी चला रही है जो कि सराहनीय है। कई संस्थाएं स्कूल, कालेज और सामाजिक स्तर पर बहस का भी आयोजन करती है| मगर दुर्भाग्यवश ये बहस इस बात पर सिमट जाती है कि पीड़िता सुनसान जगह पर अकेले क्या कर रही थी? अगर जाना जरूरी था तो अपने साथ अपने भाई या पिता को साथ लेकर क्यों नहीं गई?  उसने क्या पहन रखा था?  उसका आचरण कैसा है? वगैरह-वगैरह| ये सवाल पीड़िता को दोषी साबित करने के लिए काफी होते हैं। क्या हमारा समाज एक स्त्री को शरीर और भोग से ऊपर नहीं देखना चाहता या फिर अपनी ओछी सोच की गुलामी से ऊपर नहीं उठना चाहता।

एक और ज़रूरी बात यह है कि नागरिक कहीं की भी हो उसे राजनीतिक इस्तेमाल का मुद्दा न बनाया जाए। जरूरी यह है कि उसे उसके मौलिक अधिकारों के तहत न्याय मिलना चाहिए। घटना किसी भी शहर, प्रदेश ,नगर ,गांव की हो, जगह ज़रूरी नहीं बल्कि जो हो रहा है उसका रूकना जरूरी है।


यह लेख कुमारी ज्योति गुप्ता ने लिखा, जो इससे पहले स्त्रीकाल में प्रकाशित हो चुका है|

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