इंटरसेक्शनलजेंडर औरत ही औरत की दुश्मन होती है ? : एक नारीवादी अध्ययन

औरत ही औरत की दुश्मन होती है ? : एक नारीवादी अध्ययन

‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ का जुमला एक निरर्थक धारणा है, जेंडर के नियमों को बनाए रखने की साजिश और पितृसत्ता का चक्रव्यू है जो महिलाओं को कमजोर साबित करना चाहता है, महिलाओं की दोस्ती और संगठन को चोट पहुंचना चाहता है।

‘ये दीदी मेरे पड़ोस में रहती है, मुझे इनका टैटू बड़ा पसंद आया जिसकी वजह से मैंने भी अपनी बाजू पर मेहंदी की डिजाइन बनवाई। तो आस-पड़ोस के लोग कहने लगे कि दीदी की गलत आदतें लग गई है। ये सिलसिला कुछ ऐसा चला कि पहले दीदी ने काम करना शुरु किया फिर मैंने, दफ्तर और फील्ड पर जाने के लिए मुझे साइकिल लेनी पड़ी फिर स्कूटी – अब हर बात पर लोग कहते है कि गलत रास्ते पर निकल गई है, चरित्र पर भी ऊंगली उठाते हैं। पर मुझे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैंने खुद के लिए देखा है कि दीदी के आगे बढ़ने से मुझे कितनी उम्मीद मिली है। अगर एक औरत आगे बढ़ती है तो दूसरी औरतों को आगे बढ़ने का मौका मिलता, उन्हें लगता है कि वो भी घर की चार दीवारी से निकल कर कुछ कर सकती है।’- महिला, नागेपुर गांव, वाराणसी

जेंडर और हिंसा के मुद्दों पर काम करते हुए ‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है’ वाला जुमला हमेशा सुनाई देता है। महिला और पुरुष के बीच के फर्क पर बात करो या महिला हिंसा पर या फिर पितृसत्ता पर समझ बनाओ– महिलाएं सबसे पहले कहती है ‘दीदी पुरुष तो हिंसा करते ही है पर हिंसा में महिलाओं की भी भागीदारी होती है। मायके में मां ससुराल के लिए तैयार करती है, पढ़ाई से रोकती है, खाने-पीने से लेकर कई चीजों में लड़कों को ज्यादा लाड़ दिखाती है वहीं ससुराल में सास पति और मेरे बीच में फूट डालने की भरपूर कोशिश करती है।’

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इसे नकारा नहीं जा सकता कि महिलाएं भी पितृसत्तामक बन जाती है, सालों से जिस सामाजिक व्यवस्था का हम हिस्सा है वो हमारे अंदर इतना रच बस जाती है कि हम उसी ढांचे के सूत्रधार बन जाते हैं। पुरुष पर आर्थिक तौर पर निर्भर होना, समाज से स्वीकृति की चाह, एक ढांचे में बंधे रहने से मिलने वाली सुरक्षा, सामाजिक तौर तरीकों के साथ चलने पर लोग आप पर सवाल नहीं उठाएंगे| पर विरोध करने पर मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा और सबसे अहम बात इस मुद्दे की समझ न होना कि जो जेंडर आधारित फर्क है वो गैर-बराबरी का जातक है और हम इसे चुनौती दे सकते हैं जो महिला को पितृसत्ता के ढांचे में बंधे रहने के लिए बाध्य करते हैं।

‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ वाली थ्योरी पितृसत्ता की सोची समझी चाल है ताकि महिलाएं एकजुट होकर गैरबराबरी के इस ढांचे को चुनौती न दे पाएं।

रही बात ससुराल में सास के व्यवहार की तो गौर से सोचिए कि एक घर का मुखिया पुरुष होता है, फिर उसका बेटा – ऐसे में मां और बहन के लिए बेटा आर्थिक संसाधन देता है, सुरक्षा प्रदान करता है और समाज में उनकी प्रतिष्ठा कायम रखता है। लेकिन बहू के आने से इस स्थिति में बदलाव होता है और ये संसाधन बंटते नजर आते हैं जो विवाद का कारण बनते हैं।

पर जब इसे गहराई से समझने लगते हैं तो समझ में आता है कि ‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ वाली थ्योरी पितृसत्ता की सोची समझी चाल है ताकि महिलाएं एकजुट होकर गैरबराबरी के इस ढांचे को चुनौती न दे पाएं। परिवार में हर छोटे-बड़े फैसले में पुरुष की मोहर लगती है, महिलाओं से पूछा भी नहीं जाता वो महज उन आदेशों को अमली जामा पहनाती है। घर में पिता एक लड़की के बाहर जाने-आने, कपड़े, समय की पाबंदी और पढ़ाई-लिखाई के सारे नियम कानून मां के जरिए लागू करवाते हैं और खुद भलाई का चोगा पहनकर अलग हो जाते हैं। अपनी बेटी को समाज की पीड़ा, उलाहना, समाज की पवित्रता की कसौटी से बचाने के लिए वो पुलिस बन जाती है, नैतिकता का पाठ पढ़ाती है और उसकी आज़ादी पर पहरा लगा देती है। लेकिन ये सुरक्षा-असुरक्षा के नियम, नैतिकता के कायदे तो पुरुष के द्वारा ही तय किए गए है जिसने पहले मां को और फिर मां के जरिए बेटी को अपनी जंजीरों में बांध रखा है।

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सोचने वाली बात ये है कि क्या पुरुषों में लड़ाई नहीं होती, क्या दो लड़कों की दोस्ती में मन-मुटाव नहीं होता, क्या वो एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या और द्वेष की भावना नहीं रखते? जाहिर सी बात है कि हां ऐसा होता है पर इस बात पर कभी जोर नहीं दिया जाता और ना ही इसे महिलाओं के बीच की दुश्मनी की तरह उछाला जाता है। एक महिला को दूसरी महिला का दुश्मन कहने से महिलाओं के बन सकने वाले समूहों और दोस्ती में पहले ही पितृसत्ता सुराख कर देती है। ऐसे में बेहद जरुरी है कि महिलाएं इस साजिश को समझे और बेनकाब करें ताकि संगठित होकर जेंडर आधारित भेदभाव और पितृसत्ता पर नकेल कसी जा सके।

अकेली महिला मजबूत है पर संगठित महिलाएं वो ताकत है जो पितृसत्ता के ढांचे को चकनाचूर करने का हौसला रखती है।

मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि ‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ का जुमला एक निरर्थक धारणा है, जेंडर के नियमों को बनाए रखने की साजिश और पितृसत्ता का चक्रव्यू है जो महिलाओं को कमजोर साबित करना चाहता है, महिलाओं की दोस्ती और संगठन को चोट पहुंचना चाहता है। अकेली महिला मजबूत है पर संगठित महिलाएं वो ताकत है जो पितृसत्ता के ढांचे को चकनाचूर करने का हौसला रखती है।

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तस्वीर साभार : www.bgr.in

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