इंटरसेक्शनल उभरती और बढ़ती हुई आज की ‘श्रवण कुमारियाँ’

उभरती और बढ़ती हुई आज की ‘श्रवण कुमारियाँ’

पितृसत्तामक विचारों और परम्पराओं के बावजूद मैं अनगिनत बेटियों को जानती हूँ जिन्होंने श्रवण कुमार जैसे ही अपने माँ-बाप की देखरेख और सेवा की है और कर रही हैंI

आज्ञाकारी पुत्र श्रवण कुमार की कहानी तो बचपन में पढ़ी थी| पर माता-पिता की भक्ति के लिए बेटियों का गुणगान करती एक भी कहानी न सुनी और न पढ़ीI ज़ाहिर है कि हमारे पितृसत्तामक समाज में हम बेटियों के माँ–बाप से सिर्फ़ यही उम्मीद रहती है कि हम समय पर, उनकी पसंद की शादी करवा लें, पतिव्रता और सास-ससुर व्रता बने रहें और ससुराल में अपने कारनामों से मायके की बदनामी न होने देंI चूंकि पुरुषप्रधान समाज सिर्फ़ बेटों से आगे चलते और बढ़ते हैं, बेटियों से नहीं| ऐसे में हमारी बेटियों की शिक्षा और कमाने की क्षमता पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जाताI पारिवारिक व्यवसाय और संपत्ति सिर्फ़ बेटों को दी जाती है और वंश का नाम भी सिर्फ़ बेटों से चलता हैI मायके में बेटियों को हम हमेशा से कहते आये हैं “पराया धन” और ससुराल में, “पराये घर से आयी है”I माने बेटी न यहाँ की, न वहाँ कीI न अपनी पहचान, न नाम, न संपत्ति, न धामI सब दूसरों के आसरेI ये हालात बदले ज़रूर हैं, पर उतने नहीं जितने बदलने चाहिये थेl

इन पितृसत्तामक विचारों और परम्पराओं के बावजूद और इसके बावजूद कि बेटियों के लिए ऐसे कोई रोल मॉडल या आदर्श नहीं हैं, मैं अनगिनत बेटियों को जानती हूँ जिन्होंने श्रवण कुमार जैसे ही अपने माँ-बाप की देखरेख और सेवा की है और कर रही हैंI इनमें से कुछ शादीशुदा भी हैंI यानी, इन श्रवण कुमारियों के जीवनसाथी भी इस नेक काम में उनका साथ दे रहे हैंl (मैं कोशिश करती हूँ “पति” शब्द का इस्तेमाल न करने की, क्योंकि पति का मतलब होता है स्वामी या मालिकl आज़ाद भारतवर्ष के संविधान के अनुसार स्त्री-पुरुष बराबर हैंl अब कोई किसी का मालिक नहीं हो सकताl जीवनसाथी हो सकता है और होना चाहिएl)

मेरी जानपहचान वाले परिवारों में ज़्यादातर हमारे पिता का देहांत पहले हुआl बहुत-सी माओं को उनकी बेटियों ने संभालाl इन परिवारों में बेटे भी थे, मगर विदेश में थे या किसी वजह से वे अपनी माँ को अपने पास नहीं रखना चाहते थे या, माँ उनके पास नहीं रहना चाहती थींl इन श्रवण सी बेटियों ने अपने माँ-बाप, या सिर्फ़ माँ, या सिर्फ़ पिता की सेवा किसी परंपरा के चलते नहीं कीl उनसे तो उम्मीद भी नहीं होती कि वे अपने माँ-बाप को संभालेंl ये बेटियाँ माँ-बाप के लिए अपने प्यार और अपनी ज़िम्मेदारी समझकर उनकी परवरिश करती हैंl आज इन बेटियों के लिए यह ज़िम्मेदारी उठा पाना इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि वे शिक्षित और नौकरीशुदा हैं और अपने पैरों पर खड़ी हैंl इनमें से करीब सब ने अपनी पसंद की शादी की या शादी की ही नहींl यानी, वे परंपरागत तरीक़े से नहीं जी रहींl वे काफ़ी हद तक अपनी स्वतंत्रता बचाए हुए हैंl इन्होने शादी क्यों नहीं की मैं नहीं कह सकती, मगर एक-दो के सन्दर्भ में ऐसा हो सकता है कि माँ-बाप की ज़िम्मेदारी उठाने की वजह से शादी नहीं कीl

आज लाखों औरतें अपने बूते पर, बिना मर्द के, अपने परिवार चला रही हैं, अपने माँ-बाप को संभाल रही हैं, अपने भाईयों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर रही हैंl

मेरी एक दोस्त हैl चालीस बरस की होगीl अच्छी पढ़ी-लिखी और होनहार हैl अच्छा कमाने के लायक़ हैl तलाक़शुदा हैl बच्चे नहीं हैंl उसके माता-पिता उसके साथ एक किराए के मकान में रहते हैंl दोनों सत्तर से अधिक उम्र के हैं, दोनों की सेहत नाज़ुक हैl हफ़्ते दो हफ़्ते में उनमें से किसी न किसी को डाक्टर के पास या किसी टेस्ट के लिए ले जाना पड़ता हैl मेरी दोस्त के पास कार है और वह उसे खुद चलाती हैl

मैं काफ़ी हैरान और खुश होती हूँ जब यह दोस्त बताती है कि वे तीनो सिनेमा या नाटक देखने गए थे, या कोई अच्छा भाषण सुनने जायेंगेl यानी, यहाँ ज़िन्दगी जी जा रही है, घसीटी नहीं जा रहीl माँ बाप यहाँ बोझ नहीं हैं, साथी हैं और आनंद का ज़रिया हैंl

माँ-बाप की परवरिश करने की वजह से मेरी यह दोस्त फुलटाइम नौकरी नहीं कर पा रहीl वह सिर्फ़ वही काम ले रही है जो वह ज़्यादा घर से कर सके ताकि माँ-बाप अकेले न होंl उसे अपने माँ बाप के लिए यह सब करना अच्छा लग रहा हैl उसे इस बात का कोई दुःख नहीं है कि वह इतना ज़्यादा पढ़कर फुलटाइम काम नहीं कर रहीl उसके लिए बूढ़े माँ बाप को संभालना नौकरी करने से कम ज़रूरी, सृजनात्मक या आनंदमय नहीं हैl

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मेरी इस श्रवण कुमारी की माँ काफ़ी जिद्दी हैंl उनकी किसी से ठीक से नहीं बनतीl उनकी उनके जीवनसाथी, बेटी, घर पर काम करने वालों के साथ खटपट चलती रहती हैl मेरी दोस्त परेशान ज़रूर होती है पर उन्हें संभालना नहीं छोडतीl वह हंसकर कहती है, खटपट किस रिश्ते में नहीं होती और वैसे भी माँ-बाप से तलाक़ नहीं लिया जा सकताl

मेरी इस दोस्त के बड़े भाई हैंl शादीशुदा हैं, दो बच्चे हैं, अच्छा कमाते हैं और उसी शहर में रहते हैंl दो साल से तो अपने माँ-बाप को न कभी मिलने आये, न फ़ोन कियाl ऐसा क्यों है कोई ठीक से नहीं बता सकताl साल में एक दो बार मेरी दोस्त भाई को फ़ोन करके या मेसेज करके बता देती है कि माँ-बाप कमज़ोर होते जा रहे हैं और भाई को मिलना चाहते हैंl भाई कह देते हैं आयेंगे, मगर आते नहीं हैंl ख़ासतौर से माँ को बेटे के आने की उम्मीद हमेशा लगी रहती हैl हर त्यौहार से पहले वे कहती हैं कि इस बार वह ज़रूर आयेगाl त्यौहार आते हैं और चले जाते हैं पर बेटा नहीं आताl

समाज में कुछ लोग अपने फ़ायदे के लिए, प्राक्रतिक भेदों को भेदभाव में बदल देते हैं, ऊंच-नीच पैदा कर देते हैंl

मेरी अपनी भी ऐसी ही कहानी हैl हमारे पिता के गुज़रने के बाद माँ ने अपने घर में अकेले रहना पसंद कियाl तीन चार साल अकेले रहींl आस-पड़ोस अच्छा था इसलिए हम निश्चिन्त थेl फिर माँ को दिल का दौरा पड़ाl वे बिलकुल ठीक तो हो गयीं पर उसके बाद उनके छह  बच्चों को लगा उन्हें अब अकेले नहीं रहना चाहिएl हमारे एक भाई और बहन अपने परिवारों के साथ विदेश में थे, एक भाई फ़ौज में थे और छोटी बहन एक छोटे शहर में रहती थीl मेरे बड़े भाई और मैं दिल्ली में रहती हूँ, इसलिए उन्हें दिल्ली लाना ही ठीक थाl मैं जानती थी कि माँ भाई के परिवार में नहीं रह पाएंगी इसलिए मैंने उन्हें हमारे साथ रहने को कहाl मैं अपने जीवनसाथी और दो बच्चों के साथ रहती थी और नौकरी भी करती थीl मेरी माँ यह कहकर मेरे पास नहीं आयीं कि “शादीशुदा बेटी के साथ कैसे रहेंगीl लोग क्या कहेंगेl”

वे मेरे बड़े भाई, भाभी व उनके दो बच्चों के साथ, उनके बड़े से घर में रहने गयींl चन्द महीनों में ही मेरे भाई और माँ दोनों ने कहा उनका वहां रहना मुश्किल हैl खटपट और तकरार बहुत थेl अंत में मेरी माँ मेरे पास आ गयीं और अपनी आखिरी सांस तक हमारे साथ ही रहींl ऐसा नहीं था कि मेरे साथ उनकी खटपट नहीं होती थीl खटपट तो कहीं भी हो सकती है, मगर हमने हाथ खड़े करके ये नहीं कहा कि हम इकट्ठे नहीं रहेंगे और उन्हें कहीं और भेजा जाएl

मेरी माँ की अर्थी मेरे घर से उठीl हम भाई-बहनों ने मिलकर उनका अंतिम संस्कार कियाl दो चार लोगों को छोड़कर और सब ने बेटी विरोधी परंपराओं को तोड़ने के लिए हमें बधाई दीl लोग क्या कहेंगे वाली बात झूठ साबित हुईl हम अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिए लोगों को बीच में ले आते हैंl आज पढाई-लिखाई के क्षेत्र में बेटियां आगे हैंl वे हर पेशे में पहुँच चुकी हैंl खेलकूद में वे देश और दुनिया में नाम कमा रही हैंl हर सरकार में औरतें हैं, हर आन्दोलन में हैंl बाहर भी काम कर रही हैं, घर भी चला रही हैं, बच्चे भी पाल रही हैंl

आज लाखों औरतें अपने बूते पर, बिना मर्द के, अपने परिवार चला रही हैं, अपने माँ-बाप को संभाल रही हैं, अपने भाईयों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर रही हैंl अब भी क्यों हमें बेटों की लालसा है? अब क्यों बेटियां बोझ हैं? क्या अब भी हमारे देश में हम बेटियों की भ्रूण में हत्या करते रहेंगे, उन्हें पराया धन कहते रहेंगे, उन्हें बोझ समझते रहेंगे?

बेटियों की और कितनी अग्निपरीक्षा लेगा ये पितृसत्तामक समाज?

मेरा मानना है कि अब पुरुषसत्ता को ख़त्म करना ज़रूरी है और यह मुमकिन भी हैl आखिर पुरुषसत्ता हम इंसानों की बनायी ही तो है, और अगर हम चाहें तो उसे ख़त्म कर सकते हैंl प्रकृति भेद बनाती है, अनेक बनाती हैl दुनिया में इतनी अनेकता है की 700 करोड़ से भी ज़्यादा इंसानों में दो इंसान भी एकदम एक जैसे नहीं हैंl प्रकृति अनगिनत तरह के इंसान, पेड़-पौधे, परिंदे, पक्षी, कीड़े मकौड़े बनाती हैl मगर प्रक्रति नहीं कहती कि गोरे बेहतर हैं , पुरुष बेहतर हैं, ब्राह्मण बेहतर हैं, गुलाब और हाथी बेहतर हैंl सब फ़र्क हैं और सबकी अपनी जगह और अहमियत हैl

हमारे समाज में कुछ लोग अपने फ़ायदे के लिए, प्राक्रतिक भेदों को भेदभाव में बदल देते हैं, ऊंच-नीच पैदा कर देते हैंl अगर गौर से देखें तो ऊंच-नीच वाले तमाम विचार और ढाँचे सिर्फ़ अन्धविश्वास हैंl इनका कोई प्राकृतिक आधार नहीं हैl चाहे पुरुषसत्ता हो, जातिवाद या नस्लवाद या वर्गl हमने करीब हर जगह से राजा महाराजा हटा दिएl उसकी जगह प्रजातंत्र ले आयेl दासप्रथा भी करीब हर जगह से ख़त्म हो गयीl ठीक इसी तरह अब पुरुषसत्ता को भी अलविदा कहने का समय आ गया हैl हमारे संविधान रचने वालों ने तो 66 साल पहले ही पुरुषसत्ता और जातिवाद को हटाने के लिए हरी झंडी दिखा दी थीl अब हम सब को मिलकर अपने समाज और परिवार से इन संविधान विरोधी गैर-बराबरियों और अन्यायों को जड़ से उखाड़ना हैl तभी हमारे बेटे और बेटियां फल-फूल सकेंगे, हमारे परिवारों में खुशियाँ होंगीl जहाँ असमानता और अन्याय है वहां खुशियाँ भला कैसे रह सकती हैंl

अगर बेटे-बेटी दोनों की सामान परवरिश हो, दोनों को सामान सुविधाएं और अवसर दिए जाएँ, दोनों को उनकी पसंद और काबलियत के हिसाब से शिक्षा दी जाए तो दोनों फले-फूलेंगेl अगर बेटा माँ-बाप के काम धंधे को नहीं संभालना चाहता तो बेटी संभाल लेगीl अगर बेटा निकम्मा निकल जाता है या उसे कुछ हो जाता है तो बेटी है न बुढापे की लाठी या सहारा बनने कोl माँ बाप और परिवार के विकल्प भी दुगने हो जायेंगेl मैंने आजतक कोई ऐसे किसान नहीं देखा या देखी जो अपनी आधी ज़मीन को पर पूरा ध्यान दे और आधी पर न देl तो फिर माँ बाप ऐसा कैसे कर सकते हैंl यह तो अपने पाँव पर खुद कुल्हाड़ी मारने वाली बात हैl


तस्वीर साभार : hindustantimes 

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