इंटरसेक्शनलजेंडर ग़ायब हो रहे है आज्ञाकारी श्रवण कुमार

ग़ायब हो रहे है आज्ञाकारी श्रवण कुमार

आज इक्कीसवीं सदी में भी बेटों के ही गुणगान हो रहे हैं, हालांकि श्रवण कुमार जैसे आज्ञाकारी पुत्र लापता होते जा रहे हैंI आधुनिक जीवन में “हम” और “हमारे” की जगह “मैं“ और “मेरा” ले लेते हैंI

पता नहीं आजकल के बच्चे माता-पिता की सेवा करने वाले श्रवण कुमार की कहानी सुनते-पढ़ते हैं या नहींI हमने तो बचपन में ये कहानी पढ़ी भी थी और सुनी भी थीI एक  ग़रीब, नेक दंपत्ति का एक बेटा थाI उसका नाम था श्रवण कुमारI माँ बाप उसे बेहद प्यार करते थेI दोनों ने उसे बहुत प्यार और मेहनत से बड़ा किया, पढाया-लिखाया , काम करना और अपने पांवों खड़ा होना सिखायाI

बड़ा होकर श्रवण कुमार एक कर्मठ व्यक्ति और आज्ञाकारी पुत्र बनाI वह भी अपने माँ-बाप को बहुत प्यार करता थाI उन्हें खुश रखने की कोशिश करता थाI जैसे माँ-बाप ने बरसों उसकी देखरेख और सेवा की थी, उसी तरह श्रवण अपने बूढ़े माँ-बाप की सेवा करने लगाI शायद प्रकृति का यही नियम है या तब यही नियम थाl

श्रवण के माँ बाप की अंतिम इच्छा थी तीर्थयात्रा पर जाने कीI मगर, दोनों अब इतने कमज़ोर थे कि खुद चल फिर नहीं सकते थेI वे लोग ग़रीब थे इसलिए घोडा, घोडा या बैल गाडी या पालकी का खर्च नहीं उठा सकते थेI उनके भक्त बेटे ने एक भैंगी बनायीI भैंगी या कावड़ देखे हैं? यह दो पलड़े की तराजू जैसी होती है जिसे लोग समान ढ़ोने के लिए कंधे पर रखकर ले जाते हैंI श्रवण ने उस भैंगी में अपने माँ-बाप को बैठाया और ले गया उन्हें तीर्थयात्रा परI उसने अपने माँ-बाप की अंतिम इच्छा पूरी कीI माँ बाप धन्य हुए और बेटा भी धन्य हुआI

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हमारे समाज ने हमेशा बेटों की माता-पिता प्रेम, भक्ति और बेटों की माँ-बाप के प्रति ज़िम्मेदारी के बहुत चर्चे किये हैl बेटों को बुढ़ापे का सहारा और लाठी कहा जाता हैl उन्हें वंश चलाने वाला कहा जाता हैl इसी वजह से उनकी परवरिश, पढाई-लिखाई पर बहुत ध्यान दिया जाता रहा हैl परिवार के संपत्ति भी उन्हीं को जाती हैl

माता-पिता की भक्ति की ये कहानी किसी बेटी के बारे में कभी न सुनी, न पढ़ीI शायद इसलिए क्योंकि पितृसत्तामक और पुत्र प्रेमी समाजों में बेटी के गुणगान नहीं होतेI बेटी को तो पराया धन माना जाता हैI उसे ससुराल वालों की सेवा के लिए तैयार किया जाता हैI माँ-बाप को बेटियों से कोई अपेक्षा नहीं होतीI कन्यादान करके माँ-बाप गंगा नहाते हैंI मेरे समाज में तो माँ-बाप बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते थेI इसे पाप माना जाता हैI इसी वजह से हमारे समाज में पतिव्रता औरतों की बहुत सी कहानियां हैंI लड़कियों से सिर्फ़ पतिव्रता होने की उम्मीद की जाती थी और आज भी काफ़ी हद तक ऐसा ही हैI माता-पिता व्रता होना बेटी के लिए ज़रूरी नहीं है और उसे न ये ज़िम्मेदारी दी जाती है न ही बेटों जैसे हक़ और सुविधाएं दी जाती हैंl

बेटों को कहते है बुढ़ापे का सहारा या लाठीl इसीलिये पारिवारिक संपत्ति सिर्फ़ बेटों को दी जाती हैl बेटियों को थोडा दहेज़ देकर रवाना कर दिया जाता हैl

आज इक्कीसवीं सदी में भी बेटों के ही गुणगान हो रहे हैं, हालांकि श्रवण कुमार जैसे आज्ञाकारी पुत्र लापता होते जा रहे हैंI आज के श्रवण कुमार पढाई और नौकरी की तालाश में अपने माँ बाप को छोड़कर दूसरे शहर या देश चले जाते हैंI कुछ परदेस से पैसे भेज देते हैं| कभी-कभी मिलने भी आ जाते हैं, मगर बुढापे में माँ-बाप का सहारा नहीं बन पातेI बहुत-सी बुढापे की लाठियां माँ बाप को देश में छोड़कर खुद विदेश चली जाती हैंl बिना लाठी और सहारे के माँ-बाप अकेलेl बेटियों को कभी सहारा नहीं मानाl बेटियों के ससुराल वाले बिलकुल नहीं चाहते कि बेटियां अपने माँ बाप की किसी भी तरह से मदद करेंl और बहुत से माँ बाप बेटियों की मदद ले कर पाप नहीं कमाना चाहतेl\

हमारे समाज ने हमेशा बेटों की माता-पिता प्रेम, भक्ति और बेटों की माँ-बाप के प्रति ज़िम्मेदारी के बहुत चर्चे किये हैl

पहले माँ-बाप और बेटों का रिश्ता दो तरफ़ा थाI अब यह रिश्ता एक तरफ़ा होता जा रहा हैI माँ-बाप बेटों की परवरिश करते हैं, 25-30 साल तक उन्हें पालते पोसते हैं, कमाने लायक़ बनाते हैं और फिर बहुत से बेटे फुर्र उड़ जाते हैंI कुछ तो वापिस मुड़कर नहीं देखतेI माँ बाप तरस जाते हैं उन्हें देखने को, उनका प्यार पाने कोI

मैं कई बेटों को जानती हूँ, जो उसी शहर में रहते हैं| मगर उनका अपने माँ-बाप से कोई लेना-देना नहीं हैI कहानी कुछ भी हो सकती है या बनायी जा सकती है, जैसे – सास बहू की नहीं बनती, घर छोटा है, समय नहीं है, वगैरह-वगैरहI

श्रवण कुमारों की जगह लेते वृद्ध-गृह

हालत अब यह हो गयी है कि भारतीय मूल्यों वाले भारत के शहरों में वृद्ध-गृह बन चुके हैं और बन रहे हैंI ग़रीबों के लिए सरकारें बना रही हैं, अमीरों के लिए बिल्डर बना रहे हैंI

यही नहीं, आये दिन अखबारों में बेटे ने अपने माँ-बाप पर की गयी हिंसा की ख़बरें पढने को मिल रही हैंI माँ-बाप की अवहेलना और उनके साथ दुर्व्यवहार इतना बढ़ गया है कि दिल्ली में रेडियो पर एक सरकारी विज्ञापन बजता हैI इसमें जनता को और ख़ासतौर से माँ बाप से मुंह फेरने वाले बेटों को बताया जाता है कि यह अवहेलना, दुर्व्यवहार और हिंसा केवल नैतिक रूप से ग़लत नहीं है, यह क़ानूनी अपराध भी हैI

इन हालात को देखकर मन में एक सवाल उठता है – कहाँ गयी हमारी भारतीय सभ्यता? कहाँ गए हमारे एशियाई मूल्य? वे राष्ट्र प्रेमी जो अपने समाज की किसी भी बुराई को देखना पसंद नहीं करते व जो बुराई देखने वालों को देशद्रोही कह देते हैं| वे तो इस हालत को देखकर कहेंगे की यह सब पाश्चात्य सभ्यता का असर हैI उनकी नज़र में – हर बुराई बाहर से आयी हैI हम तो दूध के धुले, सर्वगुण संपन्न थे, हैं और रहेंगेI इनके विचार में भारतवासी इतने भोले या कच्चे हैं कि पाश्चात्य वाले इन्हें कुछ भी सिखा सकते हैं, अपने माँ बाप से नफ़रत करना भीI जय हो हमारे भोलेपन कीI

अब परिवार छोटे होते हैं और इसी के साथ-साथ हमारे दिल भी छोटे हो जाते हैंI

औद्योगीकरण और शहरीकरण के नीचे चरमराते हमारे मूल्य

मेरा तो यह मानना है की मूल्य देशी विदेशी, एशिआई, पाश्चात्य नहीं होतेI हमारे मूल्यों का रिश्ता होता है| हमारी जीवन शैली से, और ख़ास तौर से हमारे उत्पादन के तरीक़ों सेI कृषि व दस्तकारी प्रधान समाजों के मूल्य अलग होते हैं और औद्योगिक, शहरी समाजों के अलगI जब यूरोप और अमरीका कृषि प्रधान थे तब वहाँ भी बड़े परिवार थे, वहाँ भी परिवारों में और पड़ोसियों में प्यार, सदभाव और सहकार थाI सहकार के बिना कृषि प्रधान जीवन नहीं चल सकताI भारत में औद्योगीकरण, शहरीकरण, मुनाफ़ाखोरी आधारित अर्थ व्यवस्था, और घोर उपभोक्तावाद का वही असर हो रहा है और होगा जो पाश्चात्य देशों में हुआI

कृषि प्रधान समाज में परिवारों में बुज़ुर्गों का बहुत योगदान होता है और उनकी बहुत अहमियत होती हैI घर और पेशा चलाने के लिए उनके ज्ञान और तजुर्बे की ज़रुरत होती हैl  वे गुरु और कंसलटेंट होते हैंI मगर औद्योगिक जीवन में क्या काम है बूढों का? किसी इंजिनियर को उसके किसान माँ बाप भला क्या सिखा सकते हैं? सो अब काम काज, पैसा कमाने के लिए तो बुज़ुर्गों की ज़रुरत है नहींI त्यौहार वगैरह में वे कुछ मदद कर सकते हैंI माँ बाप अब म्यूजियम में रखी पुरानी चीज़ों जैसे हैं बस! कभी कभी देख लो पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए, यह काफ़ी हैIआज शहरों के छोटे फ्लैट्स में माँ बाप बहन भाई, अन्य रिश्तेदार, या गाँव वाले नहीं समातेI और फिर शहरी लोगों के पास वक़्त भी नहीं होताI अब परिवार छोटे होते हैं और इसी के साथ-साथ हमारे दिल भी छोटे हो जाते हैंI

आधुनिक जीवन में “हम” और “हमारे” की जगह “मैं“ और “मेरा” ले लेते हैंI बड़े शहरों, बड़ी नौकरियों, बड़ी तनख्वाहों में इंसान छोटे, संकीर्ण और स्वार्थी हो जाते हैंI

इसी सब के चलते श्रवण कुमार  जैसे आज्ञाकारी पुत्र खोने लगते हैं और उनकी जगह आ जाते हैं वृद्ध गृह, जिनमे पेशेवर लोग बूढों की देखरेख करते हैंI अपने बच्चे और रिश्तेदार साल में एकाध बार मिलने आ जाते हैं या फ़ोन कर लेते हैंI अभी हाल ही में मदर्स डे पर लिखी एक कविता पढ़ी थी जिसमे लिखा था कि अमीर बेटे अच्छी नस्ल के महंगे कुत्ते पाल रहे हैं, माँ-बाप को अपने पास नहीं रख रहेl फेसबुक पर एक माँ ने लिखा कि उनका बेटा बचपन से ही भुलक्कड़ हैl वह अपने नए बड़े मकान में अपनी माँ के लिए कमरा बनवाना भूल गया, सो माँ उसके पास नहीं रह सकतींl

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आज के ज़माने के बेटों के बारे में एक दिल को छूने वाली कहानी पढ़ी थीI एक बूढ़े पिता अपने बेटे के साथ रहते थेI वे बीमार रहते थे और कुछ ज़्यादा कर नहीं पाते थेI किसी के पास समय नहीं था उनकी देखरेख करने काI एक दिन बेटे ने पिता से कह ही दिया,” पिताजी, अब आप के जीवन में कुछ भी नहीं बचा हैI आप की तबियत भी ठीक नहीं रहतीI ऐसे जीने का कोई मतलब तो है नहींI मैं सोच रहा था कि मैं लकड़ी का एक लम्बा डिब्बा बना लूँगा और उसमे आप को लिटाकर, सामने वाली पहाड़ी से नीचे गिरा दूंगाI आप को इस बेकार जीवन से मुक्ति मिल जायेगीI”

पिता भला क्या कहते इसके सिवा, “ बेटा तुम ठीक कहते होI यही करोI”

दो दिन बाद बेटा बक्सा ले आया, उसमें पिता लेट गए और बक्से को ऊपर से बंद कर दियाI फेंकने वाली जगह पर पहुँच कर बेटे ने कहा “तो अलविदा पिताजी”

अन्दर से पिता ने ज़ोर से कहा “अरे रुको बेटाI सुनोI ऐसा करो, मुझे बिना बक्से के ही धक्का दे दोI बक्सा क्यों ज़ाया करते होI हो सकता है तुम्हारे बेटे को तुम्हारे लिए इस बक्से की ज़रुरत पड़े!”

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तस्वीर साभार : scroll.in

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