इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ भारतीय मीडिया पर इतनी सिमटी क्यों हैं LGBTQIA+ की खबरें

भारतीय मीडिया पर इतनी सिमटी क्यों हैं LGBTQIA+ की खबरें

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 हटाकर समलैंगिकता को वैधीकरण की सौगात मिली, तब मीडिया ने पहली बार इस पर सही कवरेज की। हालांकि कुछ दिन बाद सब ज्यों का त्यों हो गया।

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। शिक्षा, जानकारी, मनोरंजन उपलब्ध करवाना और मार्गदर्शन करना ही पत्रकारिता के सबसे अहम काम हैं। इसके माध्यम प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सिनेमा व डिजिटल मीडिया में बंटे हुए हैं। इंटरनेट के इस दौर में संभवतः आज भी अख़बार और न्यूज़ चैनल्स ही विश्वस्तर पर जनसंचार के सबसे प्रचलित माध्यम हैं। पर मौजूदा समय में भारत में लोकतान्त्रिक स्तम्भ के यह माध्यम साफतौर पर ढहते नज़र आ रहे हैं। 

आपके मन में इस वक्त अचानक यह विचार उठा होगा कि हमें तो दुनियाभर की सारी जानकारी अखबारों और न्यूज़ चैनलों से मिल जाती है। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि जानकारी देने वाले यह माध्यम आपका ध्यान केवल उन्हीं मुद्दों पर आकर्षित करते हैं जो आपके मत आरोपण करने के लिए सुविधापूर्ण होते हैं। सरल भाषा में समझा जाए तो यह मेनस्ट्रीम (मुख्यधारा) मीडिया अब अधिकांश रूप से राजनीतिक व धार्मिक मुद्दों पर दर्शकों का मनोरंजन करके, टीआरपी कमाने वाला व्यवसाय हो चुका है। सोचने वाली बात है कि जब मंज़र ऐसा है तो शिक्षा और मार्गदर्शन तो छोड़िए, सही जानकारी मिलना भी बहुत दूर की बात है।

चलिए राजनीति और धर्म की बात तो हो गई पर संस्कृति और समाज का क्या? वर्षों से संघर्ष करते आ रहे हमारे ही समाज के एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को जब साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 हटाकर समलैंगिकता के वैधीकरण की सौगात मिली, तब मीडिया को पहली बार इस मुद्दे पर सही रूप से जगा हुआ पाया। हालांकि कुछ दिन बाद सब ज्यों का त्यों हो गया। मेनस्ट्रीम मीडिया से बात की भी गई तो सिर्फ होमोसेक्सुअलिटी (समलैंगिकता) की। ट्रांस-सेक्सुअलिटी, बायसेक्सुअलिटी, ए-सेक्सुअलिटी, इंटरसेक्सुअलिटी, क्वीयर (अनूठा) जैसे शब्दों (या यूं कहें कि लोगों) को पूरी तरह नज़रअंदाज कर दिया गया।

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हाल ही में प्राइड मंथ बीता| इस दौरान जून महीने में हर साल एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग अपनी लैंगिकता पर गर्व करते हुए जश्न मनाते हैं और इस विषय पर समाज में जागरूकता लाते हैं, पर मेनस्ट्रीम मीडिया के ज़्यादातर हिस्से ने इसे कवर करना ज़रूरी नहीं समझा। पिछले महीने मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, हैदराबाद, गोवा, जयपुर, पुणे, कोलकाता, विशाखापट्टनम जैसे अन्य शहरों में प्राईड परेड का आयोजन किया गया पर बड़े-बड़े न्यूज़ चैनलों और अखबारों ने भी यह जानकारी आम जनता तक नहीं पहुंचायी । ऐसे में सवाल यह उठता है की जब लोग इन विषयों को पढेंगे, देखेंगे, सुनेंगे नहीं; तो आखिर सोचेंगे, समझेंगे, परखेंगे कैसे?

सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो बड़े शहरों में फिर भी डिजिटल और सोशल माध्यमों के ज़रिए एलजीबीटीक्यू+ के विषय पर चर्चा धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन इतना काफी नहीं है। हमारे देश की अधिकतर जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो इन माध्यमों से वंचित हैं। आम लोगों के मन में अब भी समलैंगिकता को लेकर वही पुराना डर बैठा हुआ है। उन्हें आज भी लगता है कि यह एक मानसिक बीमारी है जो छुआछूत से फैल सकती है। लोगों को यह तक नहीं पता कि एलजीबीटीक्यू+ का पूरा मतलब क्या होता है। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीते वर्ष इंडियन साइकाइट्रिक सोसायटी ने यह घोषित किया गया है कि होमोसेक्सुअलिटी कोई बीमारी नहीं है। इसी के साथ ही वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) ने भी घोषणा कर दी है कि ट्रांस-सेक्सुअलिटी कोई मानसिक विकार नहीं है। ऐसे में अगर अखबार और न्यूज चैनलों जैसे जनसंचार के प्रमुख माध्यम इन विषयों के मिथकों का भंडाफोड़ नहीं करेंगे, तो हमारा समाज अंधेरे में जीता रहेगा।

जून महीने में हर साल एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग अपनी लैंगिकता पर गर्व करते हुए जश्न मनाते हैं|

हाल ही में ‘ताइवान’ समलैंगिक विवाहों का वैधीकरण करने वाला एशिया का पहला देश बन गया है। इस ऐतिहासिक और प्रभावशाली फैसले का श्रेय ताइवान की जनता और प्रदर्शनकारियों के साथ-साथ वहां की मीडिया को भी जाता है, क्योंकि उन्होंने इस मुद्दे को पर्याप्त कवरेज दिया। फिलहाल भारत में समलैंगिक विवाह और समलैंगिक जोड़े के द्वारा बच्चा गोद लेना अवैध है, जिसे कानूनी तरीके से लगातार चुनौती दी जा रही है। अगर भारतीय मीडिया ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों व अन्य मुद्दों पर ठीक तरह से चर्चा होना शुरू हो जाए, तो जल्द से जल्द इन फैसलों को पलटा जा सकता है। लेकिन समस्या ही यह है कि इन विषयों को केवल डिजिटल मीडिया कवर कर रहा है।

तस्वीर साभार : sentinel

सिनेमा और रेडियो की ओर नज़र डाली जाए तो फिर भी बदलाव देखा जा सकता है। समलैंगिकता का मज़ाक उड़ाने से लेकर ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ जैसी फिल्म तक का सफर बॉलीवुड के लिए काफी लंबा रहा। इस बिंदु को बिल्कुल नहीं नकारा जा सकता कि मनोरंजन का यह माध्यम भारत के लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है और उनकी सोच को कुछ हद तक प्रभावित करता है। चूंकि रेडियो पर युवाओं का दबदबा है, वह इन बातों को जनता तक पहुंचाने का एक अच्छा मंच है। इसलिए फिल्मों और रेडियो कार्यक्रमों के ज़रिए लैंगिकता से जुड़े मुद्दे उठाना और पिछड़ी विचारधाराओं को तोड़ना वक्त की मांग है।

जनता के असली मुद्दों को उठाना और समाज को आइना दिखाना ही पत्रकारिता है। ऐसे में मीडिया के किसी समुदाय या अनुभाग के साथ भेदभाव करना केवल गलत ही नहीं बल्कि आचार नीतियों के ख़िलाफ़ है। सिर्फ नाम के लिए एक समलैंगिक जोड़े की सहानुभूति वाली कहानी दिखा देने से आज के हालात नहीं सुधरेंगे। समाज में ठोस परिवर्तन लाने के लिए एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की परेशानियां, संघर्ष और विरोध के साथ-साथ उनकी सफलता, साथ और उन्हें समान नज़रिए से दिखाना अति आवश्यक है। मेंस्ट्रीम मीडिया की यह शुरुआत जहां से भी हो, समाज के लिए बेहतर है।

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तस्वीर साभार : bbc

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