इतिहास आंदोलनों में औरतों की हिस्सेदारी से सत्ता में उनकी हिस्सेदारी तय नहीं होती है

आंदोलनों में औरतों की हिस्सेदारी से सत्ता में उनकी हिस्सेदारी तय नहीं होती है

शुरुआती दौर से भारत में स्त्रियों की श्रमिक पह्चान तो थी लेकिन वे स्त्री भी हैं जो उनकी ज़रूरतों को बदल/ बढा सकता है यह स्वीकार करना मुश्किल था।

राजनीति शुरु से ही स्त्री-मुद्दों को समाज का, मानवता का, अधिकारों का मुद्दा मानने से कतराती रही है। देश की आज़ादी अलग और स्त्री की आज़ादी एकदम अलग ! 

“कांग्रेस के गठन के बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से स्त्रियाँ बड़ी संख्या में सामने आती हैं बंगाल के विभाजन के विरोध में 1905 में। पुरुषों के अलावा लगभग 500 स्त्रियों ने मुर्शीदाबाद में विभाजन के विरोध में एक सभा की, वंदे मातरम के नारे लगाए। स्वदेशी आंदोलन के लिए अपने गहने दे दिए। सरलदेवी, रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी इसमें शामिल हुईं। स्त्रियाँ अपने पर्दे से बाहर निकलीं और राष्ट्रीय परिदृश्य का हिस्सा बनीं। स्वाधीनता आंदोलनों में स्त्रियों की भूमिका के साथ भारतीय स्त्री आंदोलन का एक राष्ट्रीय स्वरूप बनता है। 1916 में होम रूल लीग और 1917 में एनी बेसेण्ट ने विमेंस इण्डियन असोसिएशन की शुरुआत की। सरोजिनी नायडू और मार्गरेट बहनों ने उनका साथ दिया। मद्रास में बड़ी संख्या में स्त्रियों के मार्च को एनी बेसेण्ट ने सराहा और कहा कि जब पुरुष हार मान कर बैठ चुके तब स्त्रियों ने आगे आकर मोर्चा सम्भाला है। 1925 में सरिजिनी नायडू कॉन्ग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष चुनी गईं। अपने भाषण में उन्होने यह कहा कि सालों से अब तक जो स्त्री पालना झुलाती थीं और लोरियाँ गाती थी, उसे यह ज़िम्मेदारी सौंप कर आपने अपने गिरते हुए पुरुषत्व का कुछ प्रायश्चित किया है और स्त्री को, जिसकी कोख से सभ्यता की शुरुआत हुई, उसे जनता के दुनियावी और आध्यात्मिक विकास में अपना साथी और साझीदार स्वीकार किया है| उधर पेरिस में भीकाजी कामा, एक पारसी महिला का जुझारूपन और देशभक्ति देखने लायक थी। वे पेरिस से भारत क्रांतिकारी साहित्यिक सामग्री और हथियार भेजा करती थीं और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हिंसा को गलत नहीं मानती थीं।

भारतीय पवित्र ‘घर’ के भीतर सेंध लगाकर स्त्री को सार्वजनिक जीवन में ले आने में महात्मा गाँधी का भी बड़ा योगदान रहा। ‘शक्ति’ के प्रतीक रूप में स्त्रियों ने बढचढ कर महात्मा गाँधी के आह्वान पर देश के लिए अपना वक़्त, धन और प्राण दिए। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, स्वदेशी प्रचार, चरखा चलाना और खादी वस्त्र भण्डारों में काम करना- जैसा बहुत कुछ स्त्रियों ने अति उत्साह से किया। यहाँ स्त्रियों की स्वातंत्र्य चेतना देश की आज़ादी के ख्वाब से जुड़ गई। बाहर निकल कर सामाजिक- सार्वजनिक जीवन में प्रतिभागिता ने स्त्रियों में एक नए उत्साह का संचार किया। “स्त्री को उसके सम्पूर्ण रूप में यदि कहीं अभिव्यक्ति प्राप्त हुई तो इसी युग में। कविता के साथ साथ बाहर की दुनिया के द्वार उनके लिए खुल गए। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से वे व्यापक रचनात्मक संसार से जुड़ी, स्वयम पत्रिकाँ भी निकालीं। देशभक्ति की भावना ने सुभद्रा कुमारी चौहान में एक रूप ग्रहण किया और महादेवी वर्मा में दूसरा।”

आंदोलनों में औरतों की हिस्सेदारी से सत्ता में उनकी हिस्सेदारी तय नहीं होती है

बग़ैर भनक लगे स्वतंत्रता –पूर्व स्त्री-मुक्ति हिंदू स्त्री की पितृसत्तात्मक  छवि के निर्माण में पूरी तरह जुट गई। आधुनिक स्त्रीवाद को जी-भर गरियाने और विदेशी बताने के लिए जो ‘जनक-दुलारी-संग्रह’ संजय गर्ग राष्ट्रीय अभिलेखागार से निकाल ले आए उसमें आज़ादी पूर्व की पत्रिकाओं के सम्पादकीय हैं जो स्त्री की आज़ादी को हिंदू धर्म के अनुसार हिंदू स्त्री की आज़ादी सिद्ध करते हैं। इस किताब को स्त्री विमर्श का कालजयी इतिहास कहते हुए सुरेश नीरव आमुख में पूछते हैं कि-करियर की चाह में रक्त सम्बंध को अनदेखा करना क्या स्त्रीत्व है? समाज में भारतीयता कहाँ से आएगी?

इस संग्रह के ज़्यादातर संगृहीत सम्पादकीयों में भारतीय संस्कृति की रक्षा करते हुए स्त्री के उत्थान की बातेँ लिखी गई हैं। एक ओर जातिवादी और राष्ट्रवादी किस्म का स्त्री चिंतन आकर यहाँ दिखाई देता है। क्या स्त्रियाँ शूद्र हैं जो वे यग्योपवीत न धारण करें? (कन्याओं का उपनयनसंस्कार सुभद्रा देवी पेज- 219 मई , 1931)पत्नी की ज़िम्मेदारियाँ लेख में सूर्य कुमारी मेहता बताती हैं कि पति को कैसी पत्नी हाथ में ला सकती है और वह क्या क्या करे कि आसानी से सास-ससुर को भी हाथ में ले सके। (दम्पत्ति, सं: उमाशंकर मेहता , अगस्त, 1930)

भारतीय पवित्र ‘घर’ के भीतर सेंध लगाकर स्त्री को सार्वजनिक जीवन में ले आने में महात्मा गाँधी का भी बड़ा योगदान रहा।

दूसरी तरफ, नारी पत्रिका जिसकी सम्पादक सुभद्रा कुमारी चौहान थीं अपने स्वरूप में काफी प्रगतिशील थी। इस पत्रिका के एक लेख में कैलाशपति त्रिपाठी स्त्रियों के सम्पत्ति में हिस्से की वकालत करते हुए उसे देश के लिए कल्याणकारी बताती हैं। सम्पत्ति में स्त्री के अधिकार की बात उठाना अपने आप में क्रांतिकारी बात थी उस वक़्त। ‘नारी’ का ही एक अन्य लेख स्त्री के श्रम और श्रमिक स्त्री की समस्या भी उठाता है। यह मज़ेदार है कि जैसे स्त्री में दुर्गा, माँ और शक्ति के रूप को देखा गय, स्वयम भारत को माता बना दिया गया, उस वक़्त की स्त्रीवादियों ने भी उसे शक्ति और मातृत्व के तेज से ओत-प्रोत कहा। देवी बनकर, मातृरूपा कहलाई जाकर वह और दयनीय हो गई।

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एक तरफ भीकाजीकामा और सरोजिनी नायडू जैसी स्त्रियाँ थीं जो पितृसत्ता को चुनौती दे रही थीं दूसरी तरह स्वयम गांधी के विचारों से पितृसत्ता को कोई भय नहीं था। वे स्वीकृत परिभाषाओं के दायरे में रहकर ही बात कर रहे थे। प्रेमचंद जब‘गोदान’ में स्त्री को देवियाँ और तितलियाँ वाली बाइनरी में परिभाषित करते हैं तो स्त्री उत्थान के विचारों से पितृसत्ता को कोई चुनौती नहीं मिलती।इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की भरपूर भागीदारी ने उनके खुद के लिए स्वतंत्र फैसलों की कोई राह नहीं खोली। उनकी जीवन शैली में कोई परिवर्तन नहीं आया। स्त्री को उसकी प्रतिभागिता केवल देवी, माँ और शक्ति के नाम पर खपा दिया गया उसके श्रम को मजदूरी की तरह और उसकी हिस्सेदारी को सत्ता में हिस्सेदारी की तरह नहीं देखा गया। स्त्रियाँ स्वयम यह सब अपने देश के पुरुषों , अपने पतियों , भाइयों और बेटों के लिए कर रही थीं। माँ अपना हिस्सा थोडे लेती है। वह सिर्फ संतान हे हित संघर्ष करती है त्याग करती है। इसलिए तमाम परिवर्तनों के बीच’स्त्रियोचित’ जैसा था वैसा ही बना रहा। इस दक्षिणपंथी स्त्रीवाद में जाति और वर्ग के मुद्दे सिरे से गायब थे। धीरे धीरे ‘स्त्री’बाकी सब कोटियों से रहित सिर्फ सवर्ण हिंदू स्त्री हो गई।

यूँ स्त्री संगठन बनने शुरु हो गए थे। शारदा सदन,पारसी, गुजराती, मराठी स्त्रियों का स्त्री मण्डल, भगिनी समाज आदि। साल 1917 में विमेन्स ईण्डियन असोसिएशन बना। बम्बई में  विमेन काउंसिल 1920  में। फिर एनी बेसेण्ट के ही विमेस इण्डियन असोसिएशन से एक अखिल भारतीय ‘आल इण्डिया विमेन कॉन्फ्रेन्स’ 1926 में बना। एक मराठी कुलीन महिला चिम्नाबाई गायकवाड़ इसकी अध्यक्ष बनीं। ऑल इण्डिया विमेन कांफ्रेंस एक सफल संगठन बना। राजकुमारी अमृत कौर ने 1936 के नागपुर सम्मेलन में जानकारी दी कि साठ स्त्री सद्स्य विधानसभाओं में पहुँची हैं और उनमें से एक विजयलक्ष्मी पण्डित कैबिनेट मिनिस्टर भी हुईं। अरुणा आसफ अली,मैडम कामा, सुचेता कृपलानी जैसी स्त्रियाँ आगे आईं  जिन्होंने न केवल स्त्री-हित में काम किया बल्कि राष्ट्रवादी आंदोलन को मज़बूत किया। स्त्रियों के आज़ादीके आंदोलन में भाग लेने से स्त्री-अधिकारों के प्रति भी जागरूकता बढी। जैसे भारत एक‘माता’ बनी वहीं स्त्रियाँ भी एक मातृत्व शक्ति के रूप में सामने आईं और पुरुषों का सहयोग किया। लेकिन अपने असली शत्रु की पह्चान के बिना इस लड़ाई में आगे बढे हुए कदम पीछे जाने तय थे। यहीं भारत में राष्ट्रीय आंदोलन में नाम-गुमनाम असंख्य स्त्रियों ने बढ-चढ कर भाग लिया।  शक्ति और त्याग की प्रतिमूर्ति कहलाईं। आज़ादी के बाद जबकि यह स्त्री-शक्ति और प्रचण्ड रूप में संगठित होकर सामने आनी थी तभी पहला करारा झटका उसे ‘हिंदू कोड बिल ’ के रूप में मिला।

हिंदू कोड बिल 

ऑल इण्डिया विमेन कॉन्फ्रेंस ने स्त्री-मताधिकार, शिक्षा, बाल-विवाह के खिलाफ, सहमति से सम्बंध की आयु सोलह साल किए जाने और तलाक के कानून के लिए लगातार प्रयास किए। कानूनी हलकों में स्त्री के सम्पत्ति पर अधिकार की चर्चा भी छिड़ी। लेकिन अंतत: यह समझ आया कि हिंदू नियमों में परिवर्तन के बिना स्त्री की दशा सुधरना सम्भव नहीं है।साल 1937 का हिंदू उत्तराधिकार कानून भी समस्याग्रस्त था। एक विधवा को शुचिता के पैमाने पर तोलते हुए उसका सम्पत्ति पर से हक़ खारिज किया जाना एक भयानक पितृसत्तात्मक असुरक्षा थी। यानी एक विधवा को अपवित्र पाए जाने पर पति की सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रह जाता था। साल 1941 में जब हिंदू कोड बिल पर जनता की राय मांगी गई। हंसा, मेहता और सुचेता कृपलानी, दुर्गाबाई देशमुख लगातार इसके पक्ष में बोल रही थीं। साल 1944 में स्त्री संगठन जब राऊ समिति की सिफारिशों को उम्मीद से देख रहे थे वहीं दूसरी ओर उन्हें चेताया जा रहा था कि ‘ पश्चिम के समुद्र में जितने गोते लगाएंगे उतना ही डूबने का खतरा बढ जाएगा।‘ यहीं ताराबाई शिंदे का लेख ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ फिर से याद करना चाहिए जिसमें उन्होंने समाज सुधारक पुरुषों को लताड़ा था कि वे अपने लिए सबकुछ चाहते हैं, अंग्रेज़ स्त्री से विवाह करना छोड़कर उन्होंने हर बात में अंग्रेज़ों से सीखा है, उनकी नकल की है लेकिन वही सब वे अपनी स्त्रियों को नहीं देना चाहते। वे नहीं चाहते कि स्त्रियाँ भी उनकी तरह ही आगे आएँ।

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यह विचित्र था कि स्वाधीनता के जो पुरुष नेता स्त्रियों के आंदोलन में बढचढ कर शामिल होने के हिमायती थे वे उनके अधिकारों को लेकर एकदम पुरातनपंथी पितृसत्तावादी पुरुष हो गए। नेहरू को भी अपने कान्ग्रेसी साथियों की सदाशयता पर गलत ही भरोसा था क्योंकि वे शिद्दत से चाहते थे कि ‘हिंदू कोड बिल’ पास होकर कानून बने और स्त्रियाँ कानून के समक्ष बराबरी का दर्ज़ा हासिल करें। आज़ादी के बाद भी इस बिल पर कोई कार्यवाही तब तक नहीं हुई जब तक कि अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक अलग समिति नहीं बनी। अम्बेडकर का चिंतन क्रांतिकारी था। जाति और जेण्डर शोषण को साथ देखने का काम थियरिस्ट के रूप में सबसे पहले उन्होंने किया। अपने ‘नारी और प्रतिक्रांति’ नाम के लेख में मनुस्मृति के उद्धरणों के ज़रिए उन्होन सिद्ध किया कि कैसे हिंदू मानस में स्त्री की बरबरी और आज़ादी के खिलाफ जो सोच है वह आरम्भ से योजनबध्ह तरीके से डाली गई है। अम्बेडकर हिंदू कोड बिल के पुरज़ोर समर्थक थे। बदले हुए समाज के लिए कानून बनाने के लिए समाज की ज़िम्मेदारी के पैरोकार। हिंदू कोड बिल को पास करवाने में उनका योगदान इतना अधिक है कि यह बिल उन्हीण के नाम से जुड़ गया। इस बिल में विवाह की आयुसीमा बढाने, स्त्रियों को तलाक का अधिकार देने, मुआवज़ा तथा उत्तराधिकार के अधिकार देने व दहेज को ‘स्त्रीधन’ मानने की सिफारिश की गई थी।

आज़ादी के बाद जबकि यह स्त्री-शक्ति और प्रचण्ड रूप में संगठित होकर सामने आनी थी तभी पहला करारा झटका उसे ‘हिंदू कोड बिल ’ के रूप में मिला।

राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल हिंदू कोड बिल से उसी रूप में सहमत नहीं थे। राजेंद्र प्रसाद ने पत्र और नोट भेज भेजकर बार-बार नेहरू को चेताया था कि यह हिंदू जनमानस के खिलाफ है और अगले चुनावों में कांग्रेस को इसका नतीजा भुगतना पड़ सकता है ।लतिका सरकार लिखती हैं कि इसके बाद नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से इस बाबत पत्राचार समाप्त कर दिया और सरकार गिर या बची रहे हिंदूकोड बिले के लिए वे कृतसंकल्प थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी  और हिंदू महासभा के अध्यक्ष निर्मल चंद्र चैटर्जी, भारतीय जनसंघ और  आर एस एस भी इसके विरोध में थे। जैसे स्त्री को अधिकार मिलने से हिंदू धर्म की चूलें हिलने वाली थी। नेहरू पर इसका दबाव भी बना और हिंदू कोड बिल चार टुकड़ों में बँटकर पास हुआ। 

एक रणनीति बनाकर नेहरू और अम्बेडकर ने बिल को टुकड़ों- टुकड़ों में सदन में रखा और टुकड़ों- टुकड़ों में में ही पास करवाया। हिंदू विवाह कानून बना और शादी धर्म के पंजों से निकलकर एक कानूनी कॉन्ट्रैक्ट बना। तलाक का अधिकार मिला स्त्री को। यह काफी विवादास्पद रहा। फिर हिंदू उत्तराधिकार कानून, हिंदू अल्पव्यस्कता एवम अभिभाकवत्न कानून, हिंदू एडॉप्शन और गुज़ारा भत्ता कानून्। लेकिन एक समेकित हिंदू कोड बिल पास नहीं हो सका। स्त्रीवादी संगठनों का विरोध भी धीरे-धीरे शांत हो गया और अंग्रेज़ों के खिलाफ पुरुषों से एकजुट महिलाओं को अब आज़ाद भारत में सीधा अपना शत्रु नहीं दिखाई पड़ा।

इसलिए सत्तर के दशक तक स्त्री आंदोलनों में एक अव्याखेय चुप्पी छाई रही। स्त्रियाँ स्थानीय विद्रोहों में भाग लेती थीं और उसकी समाप्ति के बाद वापस घर की ओर लौट जा रही थीं। महिला बटालियन ने तेलंगाना के विद्रोह में भाग लिया जोश से लेकिन आंदोलन के भूमिगत होते ही स्त्रियों को बाहर कर दिया गया। सत्ता और निर्णय में भागीदारी के लिए कहीं कोई चुनौती स्त्री की ओर से नहीं थी। जब 72-73 के अकाल में श्रमिकों का आंदोलन हुआ जिसमें मजदूरों ने खाली पड़ी ज़मीनों को कब्ज़ा कर  जोतना शुरु किया। इस आंदोलन में औरतों ने बढचढ कर भाग लिया। नारेबाज़ी, गीत गा गाकर, प्रदर्शनों की अगुआई करके औरतों ने धीरे धीरे लैंगिक भेदभाव के मुद्दों पर भी ध्यान देना शुरु किया। शराब स्थानीय औरतों की ज़िंदगी में ज़हर थी। पति पी कर आते थे और पत्नियों का पीटा जाना आम बात थी जो शराब–विरोधी आंदोलन की वजह बनी। भील आदिवासी औरतें शराब बनाने वाली भट्टियों में जाकर शराब बनाने के सब बर्तन तोड आती थीं। यह एक गाँव से दूसरे गाँव तक फैलना शुरु हुआ। शहादा आंदोलन शराब विरोध और पत्नी-उत्पीड़कों की पिटाई में तब्दील हो गया।

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कम्युनिस्ट औरतों के प्रयासों  से 1940 के शुरुआती सालों में क्षेत्रीय महिला समितियाँ बनीं। महिला आत्मा रक्षा समिति बंगाल, लोक स्त्री सभा पंजाब, आंध्रा महिला संघम, दिल्ली महिला संघ,  केरला महिला  संघम। इन्हीं से बाद में 1954 में नेशनल फेडरेशन ऑफ विमेन का गठन हुआ। इन क्षेत्रीय समितियों ने बंगाल के अकाल के दिनो में पीड़ित जनो की सहायता के लिए, वाजिब दामों पर राशन की मांग के लिए, दवाओं के लिए, जमाखोरों के खिलाफ आंदोलन किए व अन्य राज्यों से भी स्त्रियों को इन मुद्दों पर  एक्जुट करनेकीकोशिश की। इन समितियों ने दंगा पीड़ितों की मदद के लिए काम किए। आल इण्डिया विमेन कॉन्फ्रेंस और क्षेत्रीय समितियों में मतभेद दिखने लगे क्योंकि AIWC में अधिकांश सम्भ्रांत स्त्रियाँ ही थीं। 1953 में कोपेनहेगेन में अंतर्रष्ट्रीय स्त्री सम्मेलन में जो भारतीय दल गया था उसने इस सम्मेलन के घोषणापत्र में निहित संदेश को आगे बढाते।हुए NFIW  गठित किया। 

हालांकि प्रगतिशील आंदोलनों से निकली कम्युनिस्ट महिलाओं ने पहलकदमी लेते हुए स्त्री संगठन बनाए लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख अकसर ही या तो कोई दखल अंदाज़ी न करने का रहा या उनका मत रहा कि स्त्रियों को अलग संगठन बनाने की बजाए ट्रेड यूनियन,किसान सभाओं या छात्रसंघों में ही कम करना चाहिए। स्त्रियों की श्रमिक पह्चान तो थी लेकिन वे स्त्री भी हैं जो उनकी ज़रूरतों को बदल/ बढा सकता है यह स्वीकार करना मुश्किल था। स्त्रियों के अलग संगठनों की हिमायत करते हुए ईएमएस नम्बूदरीपाद ने जो दस्तावेज़ तैयार करके पार्टी के सामने बातचीत के लिए रखा उसमें कामगर और ग्रामीण महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्नानघर और शौचालय की ज़रूरत पर बल दिया। इसका मज़ाक उड़ाते हुए आक्रामक तेवरों वाले पार्टी नेताओं ने ‘लैट्रीन डोक्यूमेण्ट’ कहा।

आगे यह लड़ाई और लम्बी चलने वाली थी |  


यह लेख इससे पहले चोखेरबाली में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : bbc

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