इंटरसेक्शनलजेंडर हमारी नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था में प्रवास, जेंडर और पहचान के सवाल

हमारी नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था में प्रवास, जेंडर और पहचान के सवाल

प्रवास करने पर किसी महिला की पहचान को निर्धारित करने वाले कारकों और उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली सभी परिस्थितियों में मौलिक परिवर्तन होता है।

मानवी वाधवा

प्रवास शब्द का प्रयाय होता है परिवर्तन या बदलाव। किसी महिला के एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास करने पर उनकी पहचान को निर्धारित करने वाले कारकों और उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली सभी परिस्थितियों में मौलिक परिवर्तन होता है। एक जगह से दूसरी जगह प्रवास करने पर जगह में बदलाव के साथ-साथ दूसरे कई आर्थिक, सामाजिक, भावनात्मक बदलाव भी आते हैं जिनके कारण व्यक्ति को अपनी मान्यताओं, विचारों और दृष्टिकोण में बदलाव लाने पर मजबूर होना पड़ता है। भारतीय समाज में महिलाएँ प्रवास से प्रभावित होने वाला सबसे बड़ा सामाजिक समूह हैं क्योंकि यहाँ, पितृसत्तात्मक ढांचे के आधार पर, विवाह के बाद महिला के अपने ससुराल में जाकर रहने की प्रथा का पालन किया जाता है।

यहाँ पुरुष और महिला जेंडर में एक प्रमुख अंतर यह भी है कि यहाँ महिला को विवाह के बाद अपने पति के घर और परिवार में जाकर रहना होता है। विवाह के बाद होने वाले इस प्रवास में केवल महिला का घर ही नहीं बदलता बल्कि उनका पूरा जीवन, उनका अस्तित्व ही मानो एक तरह से पुनः परिभाषित हो जाता है; उनका नाम बादल जाता है, समाज में उनकी हैसियत और उनकी भूमिका भी विवाह रूपी प्रवास के कारण बदल जाती है। इस तरह विवाह एक तरह से महिला के व्यक्तित्व को फिर से निर्धारित कर दिए जाने की प्रथा हो जाती है। 

आज के समय में जब विश्व में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की घटनाएँ बढ़ी हैं और सामाजिक मान्यताओं में भी बदलाव आया है, ऐसे में केवल विवाह ही, महिलाओं के एक जगह से दूसरी जगह प्रवास करने का एकमात्र कारण नहीं रह गया है। वैश्वीकरण और नव-उदार प्रक्रियाओं और प्रथाओं के चलते प्रवास के अनेक नए और विविध रूप देखने को मिल रहे हैं। इस नयी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अनुरूप खुद को ढालने के लिए अब महिलाओं की पारंपरिक – बेटी, पत्नी और माँ की – भूमिका में भी बदलाव हो रहा है। आज या तो खुद प्रवासी होने के कारण या फिर प्रवास कर रहे लोगों के पीछे रह जाने वाले परिवार के रूप में महिलाओं के जीवन और उनकी जेंडर पहचान में लगातार परिवर्तन हो रहा है।  

अगर भारतीय संदर्भ में देखा जाए, तो यही कहा जा सकता है कि हमारे यहाँ शहरीकरण और औद्योगीकरण केवल देश के कुछ भागों तक ही सीमित रहा है। देश के भीतर होने वाला कुल प्रवास अधिकतर गांवों से शहरों की ओर होता है। हर रोज़ रोजगार की तलाश और शहरों में जीवन जीने की इच्छा से भारतीय गांवों से पुरुषों के झुंड के झुंड शहरों की ओर प्रवास करते हैं। अधिकतर पुरुष शहरों में मिलने वाली नौकरी को, गाँव में खेती से होने वाली अपनी आय को बढ़ाने के ज़रिए और जीवन निर्वाह कर पाने के साधन के रूप में देखते हैं। परिवार के पुरुषों के काम करने के लिए शहरों की ओर चले जाने पर महिलाएँ घरों में बड़े-बूढ़ों और बच्चों की देखभाल के लिए पीछे रह जाती हैं और अक्सर उन सभी ज़िम्मेदारियों का बोझ भी उन्हीं के कंधों पर आ पड़ता है जो पहले पति द्वारा पूरी की जाती थीं। हालांकि, ऐसे में इन महिलाओं पर खेतों पर काम करने और पालतू जानवरों को पालने का अतिरिक्त बोझ आ पड़ता है, लेकिन साथ ही साथ अब उनके पास अधिक आर्थिक स्वतन्त्रता और खुद से फैसले ले पाने का अधिकार भी आ जाता है। इस बारे में हुए अनेक अनुसन्धानों से पता चलता है कि किस तरह प्रवासी मजदूरों की पत्नियों में इस आर्थिक दायित्व और बढ़ते मेल-मिलाप के कारण अधिक आत्म-विश्वास उत्पन्न हो जाता है।

विवाह के बाद होने वाले इस प्रवास में केवल महिला का घर ही नहीं बदलता बल्कि उनका पूरा जीवन, उनका अस्तित्व ही मानो एक तरह से पुनः परिभाषित हो जाता है।

प्रवासी मजदूर की इस पत्नी की पहचान और उनका व्यक्तित्व, पुरुषों द्वारा निभाए जाने वाले इन ‘मरदाना’ उत्तरदायित्वों को पूरा करने के बोझ तले निखर कर सामने आता है जब उन्हें सामाजिक सम्बन्धों में परिवार की प्रतिनिधि बन कर खड़ा होना पड़ता है या फिर परिवार के खर्च की व्यवस्था करनी पड़ती है। संयुक्त परिवारों में ऐसा नहीं होता क्योंकि वहाँ परिवार में दूसरे पुरुष सदस्य (अधिकार परिवार के सबसे बुज़ुर्ग पुरुष सदस्य) यह दायित्व संभाल लेते हैं; हालांकि, यह छोटे परिवारों के लिए तो विशेष रूप से सही है। ऐसे में महिलाओं का सशक्तिकरण पुरुषों के प्रवास से उत्पन्न स्थिति के उपफल के रूप में होता है क्योंकि महिलाओं को ‘परिवार के मुखिया’ का दायित्व संभालना पड़ता है। ऐसे में कई बार प्रवास कर बाहर गए पुरुष की पत्नी खुद कुछ आय अर्जित करने की इच्छुक भी हो सकती है क्योंकि उन्हें अपने पति से कभी-कभार मिलने भेजी जाने वाली रकम के न आने पर घर खर्च भी चलाना होता है। भारत में ग्रामीण महिलाओं द्वारा चलाए जाने वाले स्व-सहायता समूहों (सेल्फ हेल्प ग्रुप) और सूक्ष्म वित्त संस्थाओं की सफलता से भी परिवार की आय में महिलाओं के बढ़ते योगदान का पता चलता है। 

दूसरी ओर, कुछ महिलाओं को परिवार में पति के मौजूद न रहने के कारण परिवार के दूसरे बुजुर्ग सदस्यों द्वारा अपने पर अधिक नियंत्रण किया जाना भी महसूस हो सकता है। महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण करने और उस पर अंकुश लगाए रखने का विचार तो हमेशा से ही रहा है लेकिन पति के घर से दूर होने पर यह और अधिक संभव हो सकता है। इसके अलावा लंबे समय तक सेक्स न कर पाना या फिर शहर में रह रहे पति के दूसरी महिलाओं के साथ संभावित संबंध रखने के कारण पत्नी में एचआईवी संक्रमण होने का खतरा भी प्रवास से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।  

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महिलाओं की परंपरागत जेंडर भूमिका में एक अन्य बदलाव उस स्थिति में आता है जब कोई पुरुष रोजगार की तलाश में अपने परिवार को साथ लेकर शहर की ओर प्रवास करते हैं। गाँव से शहरों की ओर प्रवास करने वाले अधिकतर प्रवासी शहरों में अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र जैसे भवन निर्माण, औद्योगिक मजदूर, आतिथ्य उद्योग आदि में रोजगार पाते हैं।

कुछ महिलाओं को परिवार में पति के मौजूद न रहने के कारण परिवार के दूसरे बुजुर्ग सदस्यों द्वारा अपने पर अधिक नियंत्रण किया जाना भी महसूस हो सकता है।

चूंकि इन्हें मिलने वाली मजदूरी बहुत अधिक नहीं होती और महंगाई के कारण शहरों में जीवन निर्वाह करना कठिन हो जाता है, ऐसे में महिलाओं को भी मजबूरन नौकरी तलाश करनी पड़ती है। आज के दिन भारत के किसी भी बड़े शहर में अपने पति के साथ भवन निर्माण स्थल पर मजदूरी कर रही या घरों में साफ़-सफ़ाई करने वाली किसी प्रवासी महिला को देख पाना एक आम बात है। इस असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में जेंडर के आधार पर महिलाओं से साथ भेदभाव और उन्हें हाशिए पर धकेलना भी आमतौर पर दिखाई दे जाता है। महिलाओं को न केवल पुरुषों के अपेक्षा कम भुगतान किया जाता है, बल्कि उन्हें हर समय काम के स्थान पर यौन शोषण का डर भी बना रहता है।

इसके अलावा महिलाओं पर काम पर मजदूरी करने और फिर घर आकर घर के काम करने का दोहरा बोझ भी पड़ जाता है। मैंने देखा है कि कैसे पुरुष नौकरी के बाद देसी शराब पीकर अपना समय बिताते हैं जबकि महिला काम से वापिस आकर खाना बनाती हैं, साफ़-सफ़ाई करती हैं और बच्चों की देखभाल भी करती हैं। खुद पैसा कमाने के बाद भी, इस तरह की महिलाएँ हमेशा ही दूसरे के नियंत्रण के अधीन बनी रहती हैं। उनके मन में प्रवासी होने की असुरक्षा का भाव अपने जेंडर के कारण और भी अधिक हो जाता है। चूंकि घर में सभी निर्णय लेने और खर्च करने के फैसलों पर पति का नियंत्रण बरकरार रहता है, तो ऐसे में महिला की अपनी पहचान केवल एक पत्नी और माँ की भूमिका के नीचे दबकर रह जाती है।  

इस पूरे मुद्दे में ध्यान दिए जाने योग्य एक दूसरा पहलू यह भी है कि घर पर माँ की गैर-मौजूदगी में सबसे बड़ी लड़की पर ही अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने और घर के काम करने का दायित्व आ पड़ता है और इस कारण उन्हें शिक्षा पाने के अवसरों से भी हाथ धोना पड़ता है। धीरे-धीरे वह परिवार में महिला की भूमिका ही निभाने लगती है और फिर उसी भूमिका में बंध कर रह जाती है। 

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प्रवासी महिलाओं के व्यक्तिगत और प्रजनन स्वास्थ्य पर भी प्रवास का बहुत बुरा असर पड़ता है क्योंकि उन्हें इन नई परिस्थितियों में मूलभूत स्वच्छता सुविधाओं के अभाव का सामना करने के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत साफ़-सफ़ाई को लेकर शर्मिंदगी का एहसास लगातार होता रहता है। इसके अलावा प्रवासी श्रमिकों के बच्चों के साथ भी यौन शोषण किए जाने (खास कर ठेकेदारों या सूपर्वाइज़र द्वारा) या फिर यौनकर्म के लिए अगुवा कर लिए जाने का भय भी लगातार बना रहता है। 

महिलाओं की पारंपरिक पहचान, विशेषकर समाज और परिवार में भारतीय महिलाओं की भूमिका, प्रवास के कारण बहुत प्रभावित होती है।

यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि प्रवास के बारे में मौजूद सरकारी आंकड़ों में, महिलाओं के प्रवास को केवल परिवार में उनके स्थान और सामाजिक भूमिका के संदर्भ में ही दर्ज़ किया गया है। प्रवास पर किए जाने वाले सर्वे के डिज़ाइन और परिभाषाओं के वर्गीकरण के कारण महिलाओं के प्रवास को या तो विवाह के कारण किया जाने वाला प्रवास या फिर किसी प्रवासी के परिवार का अंग होने के कारण होने वाले प्रवास के रूप में देखा जाता है। आकड़ों को दर्ज़ करते समय विवाह से पहले और बाद में महिला के रोजगार में लगे होने पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता। इसका परिणाम यह होता है कि महिला प्रवासियों को केवल प्रवास करने वाले पुरुषों के साथ आने वाली ही समझा जाता है और एक प्रवासी श्रमिक वर्ग के रूप में अर्थव्यवस्था में उनके योगदान को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। जहाँ एक ओर इस नए आर्थिक परिवेश में जेंडर भूमिकाएँ ध्वस्त हो रही हैं और महिलाओं को एक नई आर्थिक भूमिका के साथ जोड़कर देखा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर महिला की सामाजिक भूमिका की मान्यता के चलते उनकी पहचान को अनदेखा किया जा रहा है। इसके अलावा, सरकारी आंकड़ों की यह कमी नीति निर्माण में भी बाधक बनती है और नीतियों के महिला जेंडर उन्मुख न होने का एक बड़ा कारण हो सकती है। 

महिलाओं की पारंपरिक पहचान, विशेषकर समाज और परिवार में भारतीय महिलाओं की भूमिका, प्रवास के कारण बहुत प्रभावित होती है। प्रवास होने के कारण अब पुरानी भूमिकाओं में बदलाव आ रहा है और नई तरह की जेंडर पहचान विकसित हो रही है। राजनीतिक-आर्थिक मान्यताओं और मूल्यों में बदलाव के चलते प्रवास की प्रक्रिया में भी बदलाव देखे जा रहे हैं और इसके कारण जेंडर आधारित नए मुद्दे भी सामने आएंगे। प्रवास के कारण जेंडर भूमिकाओं और जेंडर पहचान में हो रहे बदलावों के आगे भी जारी रहने की आशा रहेगी।  

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यह लेख मानवी वाधवा ने लिखा है जिसे सोमेन्द्र कुमार ने अनुवादित किया है और यह इससे पहले तारशी में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : landportal.org


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