समाजख़बर दलित बच्चों की हत्या दिखाती है ‘स्वच्छ भारत’ का ज़मीनी सच

दलित बच्चों की हत्या दिखाती है ‘स्वच्छ भारत’ का ज़मीनी सच

साल 2019 तक बहुतेरे गाँव में स्वच्छ भारत मिशन की गूँज तक भी सुनाई नहीं पड़ती और खुले में शौच करने के लिए दलित बच्चों की हत्या इसका जीवंत उदाहरण है।

कहते हैं कि अपने भारतीय समाज में जाति का इतिहास बड़ा पुराना है, पर जितना पुराना इसका इतिहास नहीं है उससे कई गुना ज़्यादा मज़बूत इसकी जड़ें हैं। अब बदलते समय के साथ हर दूसरा इंसान आसानी से कहता है कि ‘अरे! अब कहाँ कोई जाति-पाती करता है।’ ऐसा कहते-लिखते लोग आपको अपनी मित्र मंडली से लेकर सोशल मीडिया में थोक के भाव में मिल जाएँगें। हाँ ये अलग बात है कि सोशल मीडिया में वे अपने तथाकथित उच्च जाति के तमग़ों वाले सरनेम की लंबी फ़ेहरिस्त अपने नाम के आगे लगाने और उसपर इतराने से तनिक भी नहीं कतराते हैं।

ख़ैर, अगर ये बात सिर्फ़ दिखावट तक होती तो शायद इतनी तकलीफ़देह नहीं होती। लेकिन जब ये व्यवस्था किसी के विकास का रोड़ा और किसी की मौत का कारण बन जाए तो एक गंभीर समस्या बन जाती है।

इसी तर्ज़ पर, यह लेख हाल ही में हुए मध्यप्रदेश के भावखेड़ी गाँव में हुए दो दलित बच्चों की हत्या के बारे में हैं । बीते दिनों दो दलित बच्चों को खूब पीटा गया जिसके वज़ह से उनकी मौत हो गई । इस हत्या को अंजाम देने वाले यादव समुदाय के दो पुरुष हैं । ऐसे तो अखबार में रोज़ ही कोई न कोई ख़बर आती रहती है कि दलित समाज के लोग आए दिन सवर्णों के गुस्से का शिकार हो जाते हैं । इसी वज़ह से हमारे बीच दलित उत्पीड़न एक आम ख़बर बनकर रह गया है । लेकिन हाल ही में हुई इस घटना को सिर्फ एक ख़बर समझकर उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है । यह घटना सरकार के सामाजिक नीतियों और दलितों के संवैधानिक अधिकार पर सिरे से सवाल खड़ा करती है ।

इस घटना से देश में मौजूद जातिगत समस्याएं उज़ागर होती हैं कि अभी भी दलित समुदायों के लोग सामाजिक रूप से सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं ।

साल 2018 में एक आंकड़े के अनुसार भारत के 90 फ़ीसद गाँव और शहर ODF (Open Defacation Free) घोषित किया गया और इस सूची में भावखेड़ी गाँव का भी नाम शामिल हैं और अपने अमरीकी यात्रा के दौरान हुए हाउडी मोदी कार्यक्रम के दौरान उन्होंने यह कहा कि आने वाले 2 अक्टूबर जो कि महात्मा गाँधी की 150वीं जन्मतिथि है को समूचा भारत ओपन डेफकेशन फ्री हो जाएगा । हैरानी कि बात यह है कि उनके उदघोषणा के कुछ ही दिनों बाद यह घटना हमारे देश में घटित होती है जो कि स्वच्छ भारत मिशन और ODF के आँकड़ों पर जरूरी सवाल खड़ा करती है ।

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पत्रकारों की रिपोर्ट के अनुसार दलित बच्चों के पीड़ित परिवार से बातचीत के दौरान यह पता लगता है कि यह समस्या सिर्फ स्वच्छ भारत मिशन की ही नहीं बल्कि जाति प्रथा गरीबों के साथ अन्याय और देश में पर्याप्त सामाजिक भेदभाव की भी है । दलित बच्चों के परिजनों के अनुसार उन्हें पानी के लिए घंटों खड़ा रहना पड़ता है और उनके हज़ार कोशिश के बावजूद भी उन्हें सरकारी सेवा का कोई लाभ नहीं मिलता । उन्होंने पंचायत से अनुरोध किया था कि सरकारी योजना के तहत उन्हें घर और शौचालय बनवाने के लिए राशि उपलब्ध कराई जाए लेकिन यह राशि उन्हें न देकर पंचायत के सगे संबंधियों को दे दिया जाता है ।

बच्चे के पिता कहते हैं कि पास के खेत से जब वह लकड़ी लाने जाते हैं तो वहाँ के उच्च जाति के लोग उन्हें जातिगत गालियाँ देते हैं उनके बच्चों के साथ स्कूलों में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है । उन्हें मिडडेमील के लिए अलग प्लेट लाने को बोला जाता है । अध्यापक भी उन्हें भेदभाव की नज़रों से देखते हैं इन्हीं सब कारणवश उनके बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं और उसी स्कूल में वह कुछ रुपये के लिए सफ़ाई कर्मचारी बन जाते हैं ।

जाति-धर्म के नामपर बढ़ती हिंसा को अब महज़ ख़बर तक सीमित करना अपनी आँखें बंद करने जैसा और ख़ुद को मरा हुआ घोषित करने जैसा ही है।

इस घटना के तहत इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश की सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाएं कितनी खोखली हैं । साल 2014 में स्वच्छ भारत मिशन को लाया गया था और साल 2019 तक बहुतेरे गाँव में इस मिशन की गूँज तक भी सुनाई नहीं पड़ती । यह घटना समाज पर ये सवाल खड़ा करती है कि खुले में शौच कर रहे बच्चों की क्या गलती थी ? या फिर यहाँ उनकी हत्या की वजह उनकी शौच नहीं बल्कि उनकी जाति थी। यह सवाल सरकार से पूछा जाता है कि आख़िर पाँच सालों के बावजूद भी शौच की व्यवस्था आर्थिक विपन्न घरों तक क्यों नहीं पहुँच पायी है ।

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इस घटना से देश में मौजूद जातिगत समस्याएं उज़ागर होती हैं कि अभी भी दलित समुदायों के लोग सामाजिक रूप से सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं । उनके साथ बलात्कार, हिंसा, हत्या व सामाजिक बहिष्कार की घटनाएं आम हैं लेकिन इस बात को कबतक अनसुना किया जायेगा । ये अपने आपमें एक बड़ा सवाल है।

इस घटना ने एक़बार फिर हमारे विकास, आधुनिकता और शिक्षा के मानकों पर सवाल खड़ा किया है। विकास के नामपर सरकार की तरफ़ से तमाम वादे-इरादे किए जा रहे हैं, क्या राष्ट्रीय और क्या अंतर्राष्ट्रीय हर तरफ़ विश्वस्तर के विकास की बात की जा रही है। पर हमारी ज़मीनी हक़ीक़त जस की तस क्या बल्कि दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होती दिख रही है। जाति-धर्म के नामपर बढ़ती हिंसा को अब महज़ ख़बर तक सीमित करना अपनी आँखें बंद करने जैसा और ख़ुद को मरा हुआ घोषित करने जैसा ही है।

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यह लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के ऋतु और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विकाश ने लिखा है।

तस्वीर साभार : prabhatkhabar

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