इंटरसेक्शनलशरीर सांवली रंगत के आधार पर भेदभाव मिटाने का मज़बूत संदेश देता है ‘इंडिया गॉट कलर’

सांवली रंगत के आधार पर भेदभाव मिटाने का मज़बूत संदेश देता है ‘इंडिया गॉट कलर’

सांवली रंगत पर शर्म का यह बीज बचपन से ही बो दिया जाता है। रंगभेद की इसी समस्या को केंद्रित करके 'इंडिया गॉट कलर' नामक वीडियो का निर्माण भी किया है।

हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं…” मोहम्मद रफ़ी का यह मशहूर गाना तो आप सभी ने सुना ही होगा। इस गाने के बोल हँसते-खेलते त्वचा की सांवली रंगत को मज़ाक़ का विषय बना देते हैं। हाँ एक बार के लिए आप सोचेंगे की चलो इस गलती को माफ कर देते हैं क्योंकि पहले के ज़माने में लोगों को कहाँ रंग का भेदभाव समझ आता था। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि साल 1965 में रिलीज़ हुआ गुमनाम फिल्म का यह गाना आज भी समाज की मानसिकता के लिए एकदम सटीक बैठता है।

अधिकतर घरों को औरतों की सांवली सूरत सहन नहीं होती, इसलिए वे लोगों के तानों से जीवनभर पीड़ित रहती हैं। हालांकि पढ़े-लिखे परिवारों में देखने को तो ये हालात कुछ बदल रहे हैं पर वास्तव में ये सिर्फ़ दिखावा है, जिसकी वास्तविकता जस की तस है।

अगर घर की बात करें तो माँ-बाप अपनी बच्चियों को अपनी क्षमता अनुसार प्रेरित तो करते हैं, पर यहाँ भी एक खामी है। वे आज के दौर में ढलकर अपने बच्चों को आगे बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन समाज में चलती आ रही बरसों की सोच को भी छुपा नहीं पाते। इसका उदाहरण आमतौर पर हम अपने घरों में देख सकते हैं जैसे – ‘तुम काली हो तो क्या हुआ ज़िन्दगी में बहुत कुछ कर सकती हो’ या फिर ‘आजकल जब अच्छी नौकरी लग जाती है ना तब शादी के वक़्त सांवला गोरा कोई नहीं देखता।’ अब उन्हें कौन समझाये कि नौकरी पर रखने वाले भी कई बार सांवला रंग देखकर आवेदन अस्वीकार कर देते हैं।

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आखिर त्वचा की रंगत पर इतना बवाल क्यों?

भारतीय समाज की यह मानसिकता है कि केवल गोरा रंग ही सुंदरता की निशानी है। लोगों का ऐसा मानना है कि अगर वे अपने घर सांवली बहु ब्याह कर लाएंगे तो उनका वंश भी इस चीज़ से प्रभावित होगा। यही कारण है कि जब अखबारों और पत्रिकाओं में वैवाहिक विज्ञापन आते हैं तो अक्सर उन्हें ‘गोरी और सुन्दर’ वधु चाहिए होती है। इन सभी बातों के चलते सांवली रंगत वाली लड़कियों को घरवालों और समाज दोनों से ही मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है।

लेकिन कुछ लोग हैं जिनके लिए यह स्थिति बेहद फायदेमंद है। हाँ आपने सही सोचा! झूठ, असमानता और नफरत बेचने वाला सौंदर्य उद्योग। ये सौंदर्य प्रसाधन जैसे क्रीम, लोशन, स्प्रे समाज की दखियानूसी सोच को बढ़ावा देते हैं और लोगों के मन में कटु भेदभाव के बीज को ठोस करते हैं। बाज़ार में ना जाने कितने ही ऐसे ब्रांड हैं जो महिलाओं को गोरा बनाने का दावा करते हैं। इनके विज्ञापनों में सांवली औरतों को अबला, बेचारा और बेसहारा दिखाया जाता है। उनकी त्वचा को उनकी कमज़ोरी बता दिया जाता है। इससे इन कंपनियों की बिक्री भी अधिक होती है क्योंकि शर्म से जूझती महिलाओं को लगता है कि सफलता का यही एक मात्र रास्ता है।

सांवली रंगत पर शर्म का यह बीज बचपन से ही बो दिया जाता है।

रंगत के आधार पर भेदभाव के ख़िलाफ़ जारी है अभियान

त्वचा की रंगत के आधार पर भेदभाव केवल हमारे घर-समाज तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव विश्वस्तर तक है। इस भेदभाव को दूर करने के लिए कई प्रयास की भी किए जा रहे हैं और भारत में इस प्रयास के लिए अग्रसर है डायरेक्टर व अभिनेत्री नंदिता दास। नंदिता दास ने साल 2009 में ‘डार्क इज ब्यूटीफ़ुल’ नामक अभियान की शुरुआत की। इसी अभियान के तहत उन्होंने हाल ही में, रंगभेद की समस्या को केंद्रित करके उन्होंने ‘इंडिया गॉट कलर’ नामक वीडियो का निर्माण भी किया है। उल्लेखनीय है कि इस वीडियो में बॉलीवुड के कई दिग्गज कलाकार शामिल है, बाक़ी आप भी देखिए ये वीडियो –

वीडियो : इंडिया गॉट कलर

समय की माँग है रंगभेद खत्म करना

सांवली रंगत पर शर्म का यह बीज बचपन से ही बो दिया जाता है। जब बच्चे घरों और स्कूलों में रंग का भेदभाव सुनते और देखते हैं तो वही चीज़ सीखकर वो अपने जीवन में भी करते हैं। बड़े होते-होते यह उनकी आदत में परिवर्तित हो जाता है और फिर वे भी त्वचा के रंग से लोगों को आंकने लग जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि बचपन से ही उन्हें समझाया जाये कि किसी व्यक्ति की सुंदरता में उसकी त्वचा के रंग का कोई हाथ नहीं होता है। साथ ही साथ यह ज़िम्मेदारी स्कूलों और शिक्षकों की भी है कि वे बच्चों का रंग देखकर उनके साथ भेदभाव ना करें और बच्चों को भी ऐसा करने से रोकें। इससे बच्चे अपने साथ-साथ पूरे परिवार को यह सीख देंगे। आखिर जो ज्ञान हमें घर से नहीं मिलता वही तो शिक्षक प्रदान करते हैं।

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हमारे समाज में गोरे व सांवले जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना ही बंद हो जाना चाहिए। समाज में फैली इस बुराई को अब मिटाना ज़रूरी है। बूढ़े-बुज़ुर्गों से लेकर बच्चों तक को यह बात समझाना ज़रूरी हैं कि एक व्यक्ति की त्वचा उसके अंदर की गुणवत्ता को कम या ज़्यादा नहीं करती है। उस व्यक्ति का रंग उसके चरित्र और व्यक्तित्व को नहीं दर्शाता है। उस व्यक्ति की सूरत उसके आचार और विचारों को प्रस्तुत नहीं करती है। इसके लिए सबसे पहले हमें खुद इस भेदभाव को समझना होगा और उसे अपने अंदर से खत्म करना होगा। याद रखें जो लोग किसी भी प्रकार का भेदभाव करने में हिस्सा लेते हैं, चाहे वो गोरे हों या सांवले, मन की सुंदरता उनसे दूरी बनाकर ज़रूर चलती है।

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तस्वीर साभार : news18

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