समाजकानून और नीति नागरिकता संशोधन कानून : हिंसा और दमन का ये दौर लोकतंत्र का संक्रमणकाल है

नागरिकता संशोधन कानून : हिंसा और दमन का ये दौर लोकतंत्र का संक्रमणकाल है

हिंसा चाहे किसी भी ओर से बुरी है, लेकिन इसके नामपर लोकतंत्र में जनता की आवाज़ को दबाना सीधेतौर पर लोकतंत्र की आत्मा को मारना जैसा है।

बीते 19 दिसम्बर 2019 को दिल्ली सहित उत्तर प्रदेश, बिहार और देशभर के कई अन्य स्थानों पर लोग नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने सड़कों पर उतरें। अब केवल भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र ही इस आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं बल्कि आम जनता ने भी हिस्सा लिया, जिनमें समाजसेवकों से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग और  हाउस मेकर्स ने भी हिस्सा लिया।

जहाँ दिल्ली का जंतर मंतर दोपहर से देर शाम तक नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ़ लग रहे नारों से गूंजता रहा, वहीं मंगलौर, बिहार और लखनऊ समेत उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन ने हिंसा का रूप ले लिया।द क्विंट के मुताबिक़ एक बनारस में ही 68 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। इसके अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट कहती है कि देशभर में 1200 के करीब लोगों को हिरासत में लिया गया। यह तानाशाही नहीं तो क्या है!

उत्तर प्रदेश में धारा 144 और उपद्रवियों का हिंसा-प्रदर्शन

पुलिस के हिसाब से दंगों और फ़सादों से बचने के लिए उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में धारा 144 लागू किया गया, जिसके बावजूद लोग भारी संख्या में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ़ सड़कों पर उतरे।

दिन की शुरुआत में ही लखनऊ में हुए प्रदर्शन ने एक बड़ी हिंसा का रूप ले लिया, जिसके दौरान एक प्रदर्शनकारी की मृत्यु ,कई प्रदर्शनकारी और पुलिसकर्मी ज़ख्मी हुए। किसी भी प्रदर्शन का अंत इस तरह का हो तो यह तय करना बेहद मुश्किल होता है कि हिंसा की शुरुआत कहाँ और किस तरह से हुई। कहने को दोष किसी को भी दिया जा सकता है, पर चाहे हिंसा पुलिस की ओर से हुई हो या जनता की ओर से, क्षति के भागीदार हम सभी बनते हैं।

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मंगलौर(कर्नाटक) में पुलिसकर्मियों की खुली फ़ाइरिंग

जहाँ एक ओर बंगलुरु में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा और उनके साथ कई प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया, वहीं दूसरी ओर मंगलौर में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर खुली फ़ाइरिंग की वजह से दो लोगों की मौत हो गयी। पुलिस कहती है पहले पत्थरबाज़ी लोगों की ओर से हुई। ईंट का जवाब पत्थर से देने के बारे में हम सभी ने सुना है, पर पत्थर का जवाब गोलियों से देना ये कहाँ का न्याय है?

लोग आज अपने हक़ के लिए सड़कों पर उतरे हैं तो उन्हें रोका जाता है, किस लिए? ताकि वे अपने अधिकारों का इस्तेमाल ही ना कर सके। फ़्री स्पीच नाम की एक चिड़िया है जिसे धारा 144 के तहत बंद करने की बात की जाती है।  पुलिस, जिसका मूल उद्देश्य लोगों की सुरक्षा है वही लाठी, बम, बंदूक लिए सामने खड़ी है।

 बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते, तुम अच्छे मसीहा हो शिफ़ा क्यूँ नहीं देते -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दिल्ली क्योंकि देश की राजधानी है और यहाँ कई मुख्य सरकारी दफ़्तर व इमारतें स्थित हैं, यहाँ सुरक्षा कर्मियों का पहले से सजग होना लाज़मी है। इतना सजग कि प्रदर्शन शुरू होने से काफ़ी पहले ही प्रदर्शन स्थल के मेट्रो स्टेशन्स बंद कर दिये गए। दो मुख्य जगहों से जुलूस निकलने थे, लाल-क़िला और मंडी हाउस। पहले लाल क़िला और उसके आस-पास के स्टेशन्स बंद करवाए गए, फिर मंडी हाउस के पास भी यही हुआ। ताज्जुब की बात है कि बाकी कम ज़रूरी स्टेशन्स पहले बंद हुए और मंडी हाउस काफ़ी बाद में। यह देखा गया कि मंडी हाउस पर पुलिस और हथियारबंद सेना बहुत मात्रा में पहले ही मौजूद थी और मंडी हाउस को इसीलिए खुला रखा गया कि जो भी प्रदर्शनकारी वहाँ से निकले उसे तुरंत हिरासत में ले लिया जाये।

मंडी हाउस के बंद हो जाने के बाद बाराखंभा मेट्रो स्टेशन जब तक खुला रहा वहाँ भी यही सिलसिला चलता रहा। कुल मिलाकर दिल्ली के 14 स्टेशन्स को बंद किया गया और इसके बावजूद लोग सड़कों पर आए यहाँ तक कि बस में ले जाए जा रहे लोगों ने वहीं से नारे भी लगाए।

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पुलिस का योजनाबद्द आयोजन

दिल्ली में कहीं भी जुलूस निकलने से पहले, लोगों के जमा होने से पहले पुलिस और आर्मी कुल इंतज़ाम के साथ वहाँ मौजूद थी। उनके पास लोगों को हिरासत में लेने के लिए अपनी बसें थी जिनमें डीटीसी की बसें भी शामिल थी। इसके अलावा वॉटर कैनन, बैरीकेड्स, लाठियाँ, बंदूकें और उनके लोगों की संख्या जिनके सामने आम जनता कुछ भी नहीं कर सकती थी।

क्योंकि अलग-अलग जगहों से लोगों को हिरासत में ले लिया गया था(जैसे लाल क़िला पर योगेन्द्र यादव को), कई समूह बिखर गए और आखिर में सबने जंतर मंतर का रुख लिया। देर शाम तक प्रदर्शनकारी वहाँ आते रहे और नारेबाज़ी करते रहे।

तमाम उतार-चढ़ावों के बाद इस पूरे आंदोलन के शुरुआती दौर में जनता के विचार-माँग पूरी दुनिया के सामने थे, लेकिन धीरे-धीरे दिल्ली समेत कई प्रदर्शन स्थलों में बढ़ती (या यों कहें सियासी चाल के तहत बढ़ायी गयी) हिंसा ने प्रशासन को जनता की आवाज़ निर्मम तरीक़े से दबाने का मौक़ा दे दिया। हिंसा चाहे किसी भी ओर से बुरी है, लेकिन इसके नामपर लोकतंत्र में जनता की आवाज़ को दबाना सीधेतौर पर लोकतंत्र की आत्मा को मारना जैसा है, जिसे अस्वीकार करना हमारी ज़िम्मेदारी है। क्योंकि लोकतंत्र में जनता का प्रदर्शन और उसके सवालों को गंभीरता से लेना लोकतंत्र की पहचान है, पर मौजूदा हिंसा और दमन का दौर लोकतंत्र के संक्रमणकाल जैसा है।     

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तस्वीर साभार : India.com

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