समाजख़बर सीएए प्रदर्शन के बीच लोकतंत्र के खिलाफ और सत्ता के साथ खड़ा भारतीय मीडिया

सीएए प्रदर्शन के बीच लोकतंत्र के खिलाफ और सत्ता के साथ खड़ा भारतीय मीडिया

आज जहां तक निगाह जाती है कुछ अपवादों को छोड़कर हम यही देखते हैं कि लोकतांत्रिक देश भारत का मीडिया लोकतंत्र के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है।

नागरिकता संशोधन कानून, नेशनल पॉपूलेशन रजिस्टर- NPR, नैशनल सिटिजन रजिस्टर- NRC, इन सभी मुद्दों को लेकर लोकतांत्रिक देश के जागरूक नागरिकों का धरना-प्रदर्शन जारी है। इन प्रदर्शनों के दौरान एक आम बात जो देखने को मिली वो यह कि प्रदर्शनकारी ज़्यादातर मीडिया चैनलों से बात करने से लगातार इनकार कर रहे हैं। इन प्रदर्शनों में सीएए, एनआरसी, एनपीआर, मोदी सरकार के साथ-साथ ‘गोदी मीडिया’ के खिलाफ भी नारे लगाए जा रहे हैं, चाहे वह नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन हो या जेएनयू के छात्रों का फीस वृद्धि का विरोध। लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या प्रदर्शनकारी मीडिया के प्रति असहिष्णु हो गए हैं या मीडिया अपनी इस हालत के लिए खुद ज़िम्मेदार हैं? इस बात को समझने के लिए हम जायज़ा लेंगे कि नागरिकता संशोधन कानून को हिंदी मीडिया, खासकर हिंदी के चैनलों ने इसे कवर कैसे किया।

मीडिया की प्रदर्शन को भटकाने की कोशिश

हिंदी मीडिया ने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जारी धरना प्रदर्शन में लोगों का असली मकसद नहीं दिखाया, खासकर टीवी चैनलों ने। टीवी चैनलों ने अपनी पूरी स्क्रीन हिंसा की तस्वीरों से भर दी, उन्होंने अपने कैमरे सिर्फ उस तरफ मोड़ दिए जहां हिंसा हुई। ज़्यादातर हिंदी चैनलों और अखबारों ने यह दिखाने की कोशिश की, कि यह प्रदर्शन हिंसक लोग, उपद्रवी कर रहे हैं। प्रदर्शनकारी अमन-चैन को नुकसान पहुंचाना चाह रहे हैं। ज़्यादातर चैनल प्रदर्शन के दौरान लगातार हिंसी की खबरें चलाते रहें ताकि जो भी उस खबर को देखे उसकी यह धारणा बन जाए कि यह प्रदर्शन सिर्फ और सिर्फ हिंसा के लिए किए जा रहे हैं।

हालांकि जब उत्तर प्रदेश पुलिस से जुड़ी हिंसा की तस्वीरें और खबरें सामने आने लगीं, जब उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में पुलिसिया दमन की खबरें उभरने लगी तब इन टीवी चैनलों ने अपने-अपने कैमरे बंद कर लिए। मीडिया ने जितने सवाल प्रदर्शनकारियों से किए उनमें से अगर एक भी सवाल उसने योगी सरकार से किए होते तो हालात कुछ और होते। टीवी चैनलों ने यह तो दिखाया कि प्रदर्शन के दौरान लोगों ने हिंसा की लेकिन उन्होंने उन तस्वीरों से दूरी बनाए रखी जिसमें पुलिस का वीभत्स चेहरा सामने आया। कई चैनलों ने जामिया में पुलिस की भूमिका पर हल्के सवाल तो उठाए लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और उत्तर प्रदेश में पुलिसिया दमन की तस्वीरों पर चुप्पी साधे रखी। प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा को लेकर सीधेतौर पर दंगे शब्द का इस्तेमाल किया। इस शब्द को चलाकर टीवी चैनलों ने दर्शकों को यह भरोसा दिला दिया कि प्रदर्शन कर रहे लोग दंगाई हैं और ‘दंगाईयों’ के साथ पुलिस का बर्ताव बिल्कुल सही है। कुछ जगहों पर हुई हिंसा को टीवी चैनलों ने देशभर में चल रहे प्रदर्शनों से जोड़ते हुए यह साबित करने की कोशिश कि की लोग सड़कों पर दंगा कर रहे हैं।

तस्वीर : जी न्यूज़

जनआंदोलन को जब मीडिया बनाने लगा ‘मुसलमानों का आंदोलन’

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जारी प्रदर्शन अब सिर्फ इस अकेले कानून तक सिमटकर नहीं रह गया। ये प्रदर्शन संविधान को बचाने की लड़ाई में बदल चुका है। इस प्रदर्शन में छात्रों से लेकर आम लोग शामिल हैं, इन प्रदर्शनों में हर समुदाय के लोग शामिल हैं। सिर्फ इसलिए कि नागरिकता संशोधन कानून में मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता से दूर रखा गया है इसका मतलब ये नहीं है कि सिर्फ मुसलमान ही प्रदर्शन कर रहे हैं। इन प्रदर्शनों में बतौर एक जिम्मेदार नागरिक मैं खुद शामिल रही हूं इसलिए कह रही हूं कि ये किसी एक समुदाय का प्रदर्शन नहीं है।

बार-बार इस नैरेटिव को दिखाकर दरअसल मीडिया भी नागरिकों के बीच एक डर ही पैदा कर रहा है।

लेकिन हिंदी मीडिया ने क्या किया, ज़्यादातर चैनलों ने उन प्रदर्शनों का कवरेज किया जो मुस्लिम इलाकों में हुए, वह भी अलग तरीके से। चैनलों ने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि मुसलमान समुदाय ही इस कानून के खिलाफ सबसे ज़्यादा प्रदर्शन कर रहा है। जानबूझकर खबरों को ऐसा रंग दिया गया जिससे खबर पढ़ने/देखने वाले यही समझ बैठे कि सिर्फ मुसलमान ही प्रदर्शन कर रहे हैं। 

तस्वीर : सीएनबीसी आवाज़

चैनल, जो निहारते रहे बस सरकारी संपत्ति का नुकसान

नागरिकता संशोधन कानून के प्रदर्शनों के दौरान देश के कुछ इलाकों में हिंसा हुई। चैनलों ने बस इसे ही पकड़ा रखा, प्रदर्शन के दौरान जली एकाध-बस, टूटे शीशे, सड़कों पर बिखरे पत्थर चैनलों ने, हिंदी अखबारों ने जूम कर कर के दिखाए। लेकिन जामिया की लाइब्रेरी, हॉस्टल ऑर वॉशरूम में बिखरा छात्रों का खून नहीं दिखाया। दिल्ली गेट पर प्रदर्शनकारियों का बिखरा खून नहीं दिखाया, यूपी पुलिस की जेल से छूटे लोगों की कहानियां नहीं सुनाई। 

और पढ़ें : नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ शाहीन बाग की औरतों का सत्याग्रह

तस्वीर : एबीपी

सरकार के समर्थन में हिंदी चैनलों का ख़ास अभियान

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागरिकता संशोधन कानून को संसद के खिलाफ चलाया जा रहा आंदोलन बताया था। वह शायद यह भूल गए थे कि विरोध-प्रदर्शन एक लोकतंत्र का अहम हिस्सा होता है। लेकिन जिस तरह प्रधानमंत्री ने कहा कि देश के लोग देश की संसद के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं उसी तरह हम कह सकते हैं कि देश का मीडिया देश के नागरिकों के खिलाफ खड़ा हो चुका है। हमारा मीडिया उन खबरों पर फोकस करता है जिनसे सरकार का फायदा हो, जिनसे सरकार की बात लोगों तक पहुंचे। 

आज जहां तक निगाह जाती है कुछ अपवादों को छोड़कर हम यही देखते हैं कि लोकतांत्रिक देश भारत का मीडिया लोकतंत्र के खिलाफ, अपने ही नागरिकों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है।

जी न्यूज ने तो बीजेपी से पहले ही मिस्ड कॉल के जरिए नागरिकता संशोधन कानून को समर्थन देने की मुहिम छेड़ डाली। मेरे ज़हन में ऐसा पहली बार हो रहा है जब नोटबंदी से लेकर नागरिकता संशोधन कानून तक, सरकार के हर कदम को जस्टिफाई करने के लिए मीडिया अपनी पूरी कोशिश में लगा हुआ है। बीते पांच सालों में हर मुद्दे पर मीडिया की कवरेज देखकर लगता है कि वह सरकार से सवाल करना पूरी तरह भूल चुका है।

तस्वीर : जी न्यूज़

नागरिकता संशोधन कानून पर मीडिया की कवरेज बस एक उदाहरण भर है। अगर हम पीछे जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि इस बीच कई ऐसे मुद्दे हुए जब मीडिया ने एकतरफा कवरेज की। जनता का पक्ष दिखाने की जगह सरकार के नैरेटिव को मीडिया ने आगे बढ़ाया। उदाहरण के तौर पर हम कश्मीर का मामला ले सकते हैं। कश्मीर में आज भी इंटरनेट और प्रीपेड मोबाइल सेवा बंद हैं, जो लोग हिरासत में लिए गए थे उनमें से आधे से अधिक आज भी हिरासत हैं। कश्मीर को मीडिया ने किस तरीके से कवर किया और आम जनता में इसका क्या संदेश गया इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए हम दिसंबर महीने का कारवां पढ़ सकते हैं

मीडिया ने बार-बार कहा कि कश्मीर में सब सामान्य है जबकि कश्मीर की हालत पर राष्ट्रीय मीडिया से बेहतर कवरेज अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने की। एनपीआर और एनआरसी के मुद्दे पर सरकार की तरफ से बार-बार कहा जा रहा है किसी को डरने की जरूरत नहीं। सरकार शायद भूल गई है कि लोकतंत्र में नागरिक डरा नहीं करते। मीडिया भी सरकार के इसी नैरेटिव को सपोर्ट कर लगभग हर दिन ये दिखाने की कोशिश कर रहा है कि डरने की जरूरत नहीं है। बार-बार इस नैरेटिव को दिखाकर दरअसल मीडिया भी नागरिकों के बीच एक डर ही पैदा कर रहा है। आज जहां तक निगाह जाती है कुछ अपवादों को छोड़कर हम यही देखते हैं कि लोकतांत्रिक देश भारत का मीडिया लोकतंत्र के खिलाफ, अपने ही नागरिकों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। आज भारत के लाखों लोग सड़कों पर हैं मौजूदा सरकार के खिलाफ। सरकार आती -जाती रहती हैं लेकिन आने वाले वक्त में जब मौजूदा समय याद किया जाएगा तो यही दर्ज होगा कि जब नागरिक अपने हक की आवाज़ उठा रहे थे, जब वह देश के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बचाने के लिए लड़ रहे थे, जब वह संविधान को हाथ में लिए उसे बचाने उतरे थे तब देश का ज़्यादातर मीडिया अपने नागरिकों के खिलाफ और सत्ता के साथ खड़ा था।

और पढ़ें : ख़ास बात : दिल्ली में रहने वाली यूपी की ‘एक लड़की’ जो नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध-प्रदर्शन में लगातार सक्रिय है


तस्वीर साभार : delhipostnews

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