इतिहास आवाज़ बुलंद करती आज की महिलाएं क्योंकि विरोध का कोई जेंडर नहीं होता

आवाज़ बुलंद करती आज की महिलाएं क्योंकि विरोध का कोई जेंडर नहीं होता

महिलाओं के विरोध को चाहे पुरुषों की क्रान्ति से ढकने की कोशिश की गई हो, लेकिन महिलाओं का प्रतिरोध तो सूरज है जो ज़रूर सामने आएगा।

पाश ने अपनी एक कविता में अपनी दोस्त से विदा ली थी। वो जाने उसकी क्या थी, शायद प्रेमिका होगी, वो क्रांति लाना चाहते थे इसीलिए विदा लेकर चल दिए, वो दमनकारियों से टकरा जाना चाहते थे। लेकिन उनकी प्रेमिका उनकी वो दोस्त वही रह गई। भगत सिंह ने तो पहले ही ख़त लिख दिया था कि उनकी दुल्हन तो आज़ादी है और वो उसको पाने निकल चले, साम्राज्यवाद के विरोध में लड़ पड़े। क्या कोई लड़की उनके जीवन में आने वाली होगी? या बस एक धूमिल-सी कहानी बन कर रह गई।

गौतम ने तो पत्नी को ही त्याग दिया, संसार के सभी लोभ से मुक्ति पानी थी तो चल दिए नंगे पाँव जंगलों में, यशोधरा को लोभ का काँटा समझ कर शायद। चाहे पाश हों या कोई भी हो सब किसी विद्रोह में निकले अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने को।

मुझे एहसास हुआ  कि ये अभिनेता तो हमेशा से मर्दों को बना दिया गया, वो छोड़ कर निकल गए एक जीते जागते साँस लेते इंसान को कुछ बताकर या कुछ नहीं बताकर। सोचिए अगर पाश की जगह उसकी सहेली लिखती की अब वो विदा लेती है। कोई क्रांतिकारी लड़की कहती ‘मेरा दूल्हा तो इंक़लाब है!’ यशोधरा चली जाती वन को गौतम को पीछे छोड़। पर हज़ारों साल से बंधी पितृसत्ता  की बेड़ियाँ तोड़ पाना आसान है क्या? जो क्रांति करने निकली वीरांगनाएँ थी अपने साथी को पीछे छोड़कर नहीं निकली, वन में सीता अपनी इच्छा से नहीं गई। ये कुव्वत रिश्ता निभाने की क्यूँ सिर्फ़ हमारे माथे मढ़ी है? क्यूँ हमारे सीने से लेकर सर में भी दिल धड़कता है।

महिलाएँ कैसे हो सकती हैं अराजनैतिक?

क्यों ये आज भी समझा जाता है कि किसी भी लड़की की सियासी सोच नहीं हो सकती? कि वो कॉमरेड नहीं बन सकती? हमने क्या नहीं देखा मणिपुर की माओं को? इरोम के अनशन को, कुनान-पोशपोरा की औरतों को? आदिवासी महिलाओं के संघर्ष को आवाज़ देती सोनी सोरी को? शाहीनबाग़ की औरतों के जज़्बे को, जामिया विश्वविद्यालय की उस छात्रा को जो एक पुलिस से अपने दोस्त को बचाने के लिए टकरा गई या फिर हाल ही में जेएनयू में हुई हिंसा में आइशी घोष की हिम्मत क्या हमने नहीं देखी? मौका मिला था उन सभी मर्द क्रांतिकारियों को आज़ादी की लड़ाई में लड़ जाने का मर जाने का हम कैसे उन तमाम लड़कियों को नज़रअंदाज़ कर दें, जिनके जज़्बात जिनके जज़्बे उस समय पितृसत्ता के टले कुचल दिए गए होंगे।

क्या ये समझना मुश्किल है कि लड़कियों का तो पूरा जीवन ही सियासी होता है एक प्रतिरोध होता है। वो ताउम्र संघर्ष करती हैं अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने को, पितृसत्ता के नियमों का उल्लंघन करना और तमाम सज़ाएँ पाना। उनके पैदा होने से लेकर अंत तक वो कभी भी अराजनैतिक नहीं होती, फिर चाहे वो किसी उच्च जाति की हिन्दू घर में ही क्यों न जन्मी हो चाहे उसे विशेषाधिकार या सत्ता का थोड़ा कतरा ही मिला हो। तब भी उसे उसके मौलिक अधिकार नहीं मिलते। सदियों से पितृसत्ता ने औरतों की आवाज़ विचार उनके शरीर उनकी यौनिकता को काबू में करके रखा है। ऐसे में कोई ये क्यों नहीं सोचता की ये छोड़कर चल देने का विशेषाधिकार अगर औरतों को मिलता तो जाने कितनी महिला क्रांतिकारी भी फ़ांसी के तख्ते तक पहुंची होती।

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चाहे हमारा देश हो चाहे कोई और बहुत सारे उदारहण ऐसे हैं जहाँ महिलाओं का विरोधप्रदर्शन एक ऐतिहासिक लम्हे की तरह कैद हो चुका है। चाहे पाकिस्तान में इक़बाल बानो का गाया ‘हम देखेंगे’ से लेकर सुडान की महिला विरोधकर्ता अला सलाह की तस्वीर क्यों न हो या फिर इंटेरसेक्शनलिटी जैसा विचार लाने वाली किम्बरली विलियम्स क्रेनशॉ ही क्यों न हो, जिन्होंने नारीवाद पर एक और चश्मा चढ़ा कर उसे वाकई बराबरी सिखाई। ऐसे और दुनिया भर में कई अनगिनत उदहारण है।

क्योंकि विरोध का कोई जेंडर नहीं होता

विरोध करना क्रांति करना कोई भी मर्दाना काम नहीं है ये सोच तो आपके जज़्बे पर निर्भर करती है, जब कोई ये कहता है की सरहद पर जवान शहीद हो रहें हैं तो हम एक पुरुष शहीद को ही सोचते हैं। क्यूंकि भारतीय थल सेना इन्फेंट्री में महिलाओं को जाने की इजाज़त नहीं देती। जबकि ये बात समझ के बाहर है की जंग लिंग से नहीं दिमाग और ताकत से लड़ी जाती है। क्रांतिकारियों को याद करते हुए सिर्फ भगत सिंह, चंद्र्शेखर आज़ाद, अशफाक़उल्ला खान और बिस्मिल याद आते हैं हम मातान्गिनी हाज़रा को भूल जाते हैं, जो साल 1942 में तमलुक पुलिस स्टेशन के सामने जिन्हें ब्रिटिश भारतीय पुलिस ने गोली मार दी थी लेकिन अंत तक वो नारे लगाती गईं। या फिर हम क्यों याद नहीं करते आसाम की कनकलता बरुआ को जो हाँथ में परचम लिए विद्रोह में शहीद हो गई। इसीलिए ये याद रखना होगा हर सदी के हर विद्रोह में महिलाओं की सियासी सोच अगर न होती तो वो इसका हिस्सा न होती।

महिलाओं के विरोध को चाहे पुरुषों की क्रान्ति से ढकने की कोशिश की गई हो, लेकिन महिलाओं का प्रतिरोध तो सूरज है जो ज़रूर सामने आएगा और आता रहा है फिर चाहे कितने भी बादल क्यों न घिर जाएँ।

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तस्वीर साभार : www.rfi.fr

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