संस्कृतिसिनेमा छपाक: पितृसत्ता के बनाए कुंठित मर्दों के एसिड अटैक को दिखाती

छपाक: पितृसत्ता के बनाए कुंठित मर्दों के एसिड अटैक को दिखाती

एसिड अटैक पर बनी फ़िल्म 'छपाक' ने एसिड अटैक सरवाईवर लड़कियों की जिन्दगी को बयान करके देश के सामने एक संवेदनशील मुद्दे को उजागर किया गया है।

किशोरावस्था में बॉलीवुड का एक गाना मेरे मन को बहुत  लुभाता था और अक्सर मैं गलियों व सड़को से इस गाने को गुनगुनाते हुए निकलता था। उस गाने के बोल थे ‘तू हाँ कर या ना कर तू है मेरी किरण।’ उस समय फ़िल्म देखकर और गाना सुनकर लगता था कि वाह! क्या आशिक़ है। वाह! क्या मोहब्बत है। उस दौर में ऐसी कई फिल्म और गानों को देखकर बहुत सारे लड़को ने इस तरह के आशिक़ बनने की मानो कसम ही खा ली थी। सभी अपने लिए किरण की तलाश में व्यस्त से लगते थे। लेकिन तब मुझे इस बात का इल्म नहीं था कि ‘किरण’ की अनुमति और सहमति भी जरूरी है। और अगर ‘किरण’ ना कहती है तो उसकी ना का मतलब ना ही होता है।

सालों बीत गए लेकिन पीछा करने वाले आशिक़ और ‘ना में भी हाँ’ वाले गाने लगातार हिंदी सिनेमा हम सभी को परोसता रहा। ऐसे फिल्मी हीरो औऱ गानों से प्रभावित होकर ना जाने कितने ही युवक रोजाना यौनिक अपराध में लिप्त हो जाते है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह सिर्फ फिल्मों और गानों की वजह से ही हो रहा है, क्योंकि इसका एक पहलू यह भी है कि फ़िल्में कई बार समाज को आईना दिखाती है और कई बार समाज का आईना भी बनती है। क्योंकि ये गाने-फ़िल्में बनाने वाले भी हमारे ही समाज के लोग होते है। इसलिए फ़िल्मों के साथ-साथ सामाजिक रीति-रिवाज और परम्परा भी प्रमुख कारण है।

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लड़कियों का पीछा करना, उनके शरीर व कपड़ो पर भद्दी फब्तियां कसना और उनके इन्कार करने पर लड़कियों को सबक सीखने की धमकियां देना रोज़ाना की बात हो गयी है। इन सब घटनाओं से लड़कियों का हर रोज़ किसी न किसी रूप में जूझना पड़ता है, ये सब ऐसा हो गया है कि मानो ये भारतीय समाज में लड़कियों की ज़िंदगी का हिस्सा है। फिर चाहे लड़कियाँ पढ़ने वाली हो या कामकाजी हो, कोई ना कोई सरफिरा आशिक़ उनका पीछा करते नज़र आ ही जाता है।

एसिड अटैक सरवाईवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिन्दगी पर आधारित ये फिल्म पितृसत्ता की वजह से पनपने वाली आपराधिक मानसकिता को दिखाता हैं।

जब कोई लड़की किसी लड़के को रिजेक्ट करती है तो लड़का उसे सबक सिखाने की धमकियां देता है। फिर ऐसी धमकियों को अंजाम तक लाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है एसिड अटैक और कई बार बलात्कार जैसे रास्ते। एनसीआरबी के आंकड़ो के अनुसार साल 2014 से साल 2018 के बीच में 700 से भी ज्यादा एसिड अटैक की घटनाएँ देश मे घटित हुई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि अब इन घटनाओं पर काबू पा लिया गया है। देश के किसी ना किसी कोने से एसिड अटैक की घटना हमारे सामने आ ही जाती है।

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एसिड अटैक पर बनी फ़िल्म ‘छपाक’ सच्ची घटनाओं पर आधारित है, जिसमें एसिड अटैक सरवाईवर लड़कियों की जिन्दगी को बयान करके देश के सामने एक संवेदनशील मुद्दे को उजागर किया गया है। एसिड अटैक सरवाईवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिन्दगी पर आधारित ये फिल्म पितृसत्ता की वजह से पनपने वाली आपराधिक मानसकिता को दिखाता हैं। ये फ़िल्म सीधेतौर पर समाज के बनाए मर्दों की उस कुंठित मानसिकता को उजागर करती है, जिन्हें ना का मतलब समझ नहीं आता है। फ़िल्म में अन्त में जिस तरह से दिखाया गया है कि अभी भी एसिड अटैक बन्द नहीं हुए है। ये समाज के लिए एक चेतावनी है कि अब उन्हें ये निर्णय करना है कि उन्हें क्रूर-मजबूत मर्द चाहिए या फिर संवेदनशील पुरूष।

पितृसत्ता की कोख से जन्मी उस मर्दानगी जो  “ना” या रिजेक्शन को झेल नहीं पाने वाले पुरुष तैयार करती है, उसमें भी बदलाव करना बहुत जरूरी हैं।

फ़िल्म में दीपिका पादुकोण का अभिनय बेहतरीन रहा। उनका अभिनय देखकर ये एहसास होता है कि वे एक अच्छी अभिनेत्री होने के साथ-साथ देश की सच्ची, संवेदनशील और जागरूक नागरिक भी है। उन्होंने इस कितदार को निभाकर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बहुत शिद्दत से निभाया है। फ़िल्म में दीपिका पादुकोण के एक डॉयलॉग ने समाज की हालत को बखूबी बयान किया जब उन्होंने कहा कि,’एसिड बिकता नहीं तो फिकता भी नहीं।’ निश्चित तौर पर एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगाने की बात पर कानून और समाज को सोचने की जरूरत है। इसके साथ-साथ एक सख्त कानून की सख्त पालना हो यह सुनिश्चित करने की भी जरूरत है ।

लेकिन मेरी मानना है कि सिर्फ एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगाना ही एकमात्र समाधान नही है। इसके साथ ही, पितृसत्ता की कोख से जन्मी उस मर्दानगी जो  ‘ना’ या रिजेक्शन को झेल नहीं पाने वाले पुरुष तैयार करती है, उसमें भी बदलाव करना बहुत जरूरी हैं। पुरुषों को ना या रिजेक्शन से इतना परहेज क्यों है? क्यों रिजेक्शन से उनकी मर्दानगी पर ठेस पहुँचती हैं। किरण हो या अंजली उसे ना कहने का पूरा हक है। इससे साथ-साथ राहुल को भी समझना पड़ेगा कि सहमति भी जरूरी है और ना का मतलब ना ही होता है।

लड़को को लड़कियों से मिले रिजेक्शन को समझना भी पड़ेगा और उस रिजेक्शन को खुले मन से स्वीकार भी करना पड़ेगा। पितृसत्ता और उससे जन्मी मर्दानगी को जड़ से खत्म करके हमें भावुक और संवेदनशील पुरुषों को सामाजिक रूप से स्वीकार करना चाहिए। तभी महिलाओं के प्रति हिंसा के ख़त्म कर सुंदर और बेहतर सामाज का निर्माण संभव है।

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तस्वीर साभार – shethepeople

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