इंटरसेक्शनल क्या हमारा भारत कोरोना वायरस पर जीत हासिल करने के लिए तैयार है ?

क्या हमारा भारत कोरोना वायरस पर जीत हासिल करने के लिए तैयार है ?

अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं सिर्फ़ चंद शहरी प्राइवेट अस्पतालों में है, जहां ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले सैकड़ों लोगों के लिए मुमकिन नहीं है।

कोरोना वायरस के बारे में अब तक हम सभी जान गए होंगे। ये एक तरह का वायरस है जो बुखार, खांसी, ज़ुकाम जैसे लक्षणों से पैदा होता है। पिछले कुछ महीनों में इस वायरस की एक नई प्रजाति पाई गई है जो आम कोरोना वायरस से कहीं ज़्यादा खतरनाक साबित हुई है। ये प्रजाति, जिसे वैज्ञानिकों ने ‘नॉवेल कोरोना वायरस’ नाम दिया है, जो बहुत तेज़ी से फैल रही है और जानलेवा भी साबित हुई है। चीन के वुहान से इसका प्रकोप यूरोप और अमेरिका से होकर भारत में भी फैल गया है और अब तक पूरी दुनिया में क़रीब 22,000 लोगों की जान भी ले चुका है। दुनियाभर के डॉक्टर और वैज्ञानिक इसके सामने बेबस हैं। अभी तक इस वायरस का कोई भी इलाज सामने नहीं आया और ये जितनी तेज़ी से लोगों में फैल रहा है, इटली जैसे विकसित देशों में भी जनता के लिए अस्पताल की सुविधाएं कम पड़ रही हैं। जहां यूरोपियन देश और अमेरिका इस मुसीबत को झेल नहीं पा रहे, क्या भारत के पास इससे लड़ने की क्षमता है? क्या हम इस महामारी से ज़िंदा बच पाएंगे?

बीमारी का इलाज करने में सबसे पहला कदम होता है उसकी जांच करना। ये देखना कि किसी इंसान के शरीर में ये बीमारी पैदा करनेवाला कीटाणु है या नहीं। कभी कभी ऐसा हो सकता है कि किसी इंसान के अंदर बीमारी होने के बावजूद भी उसे इसके लक्षण अनुभव नहीं होते, यानी उसे पता ही नहीं चलता कि वो बीमार है और वो अनजाने में ही ये बीमारी दूसरों में फैला सकता है। इसलिए ऐसी हालातों में ज़रूरत है कि हर इंसान को अनिवार्य तौर पर टेस्ट किया जाए और अगर टेस्ट के नतीजे पॉजिटिव निकले, यानी वो इंसान संक्रमित निकले, तो उसे ‘क्वारंटाइन’ किया जाए। यानी कि उसे समाज से दूर रखा जाए ताकि ये बीमारी वो दूसरों तक न फैला सके।

अफ़सोस, भारत में आधी से ज़्यादा जनता को टेस्ट किया ही नहीं जा रहा है। अगर टेस्टिंग हो रही है तो सिर्फ उनकी जिनमें लक्षण नज़र आए हों या जो किसी ऐसे देश से भारत आए हों जहां ये वायरस बुरी तरह से फैला हुआ है। मतलब हमें अंदाज़ा ही नहीं है कि हमारे देश में कितने लोग संक्रमित हैं। आंकड़ों के अनुसार भारत में क़रीब 979 लोग इस वायरस का शिकार हुए हैं पर ये संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है।

जितने लोग संक्रमित हो रहे हैं, उनकी देखभाल के लिए संसाधन भी या तो उपलब्ध नहीं हैं या उनका बहुत बुरा हाल है। भारत में हर 55,591 लोगों की आबादी के लिए सिर्फ़ एक सरकारी अस्पताल है और इन अस्पतालों में हर 1844 मरीज़ों के लिए सिर्फ़ एक बेड। हर एक लाख मरीज़ों के लिए ICU में सिर्फ़ दो बेड और हज़ार मरीज़ों के लिए सिर्फ एक एलोपैथिक डॉक्टर। ऊपर से भारत में सरकारी अस्पतालों की हालत सबको पता है। हर दिन यहां 4300 लोगों की मौत सिर्फ़ अच्छे इलाज के अभाव की वजह से होती है। यहां ऑक्सीजन सिलिंडर कम पड़ जाते हैं। बेड उपलब्ध नहीं होने की वजह से मरीज़ों को गीली फर्श पर लिटाया जाता है। एम्बुलेंस और स्ट्रेचर जैसे न्यूनतम संसाधन उपलब्ध नहीं होते और अक्सर मरीज़ों को अपना कमरा भी खुद साफ़ करना पड़ता है।

जहां यूरोपियन देश और अमेरिका इस मुसीबत को झेल नहीं पा रहे, क्या हमारे पास इससे लड़ने की क्षमता है? क्या हम इस महामारी से ज़िंदा बच पाएंगे?

इन अस्पतालों के मैटर्निटी वार्ड में नवजात बच्चे को चूहे कुतर जाते हैं और मॉर्ग में रखी लाश को कुत्ते चबा जाते हैं। जहां न्यूनतम सुविधाओं की ये हालत है वहां एक वैश्विक महामारी से मुक़ाबला कैसे ही हो पाएगा?

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भारत में अच्छी, वर्ल्ड क्लास सुविधाएं अगर कहीं हैं तो सिर्फ़ बड़े शहरों के गिने चुने प्राइवेट अस्पतालों में,जहां अरबों रुपए खर्च करके एक टेस्ट करवाना उन सैकड़ों लोगों के लिए मुमकिन नहीं है, जो ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं। ऐसे में सरकार से उम्मीद रहती है कि स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारने के लिए, उसे बेहतर और सार्वजनिक करने के लिए कोई कदम उठाए जाएं। पर भारत की जीडीपी का सिर्फ़ 3.6 फ़ीसद हिस्सा यहां की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च होता है, जहां अमेरिका अपनी जीडीपी का लगभग 17 फ़ीसद स्वास्थ्य विभाग पर खर्च करता है। हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय हर एक मरीज़ के इलाज के लिए क़रीब 4000 रुपए खर्च करता है जहां चीन लगभग 30,000 तक खर्च करता है। हमारे देश में स्वास्थ्य विभाग इस हद तक उपेक्षित है।

‘जन स्वास्थ्य अभियान’ संस्था ने ऑल इंडिया पीपल’स साइंस नेटवर्क के साथ केंद्रीय सरकार के सामने इस महामारी से जूझने के लिए कुछ मांगें रखीं हैं। इनमें से कुछ मांगें हैं कि ऐसी स्थिति में प्राइवेट अस्पतालों को भी सरकार के नियंत्रण में लाया जाए ताकि कम या बिना पैसों में मरीज़ों को अच्छा इलाज मिल पाए। अस्पताल के स्टाफ़ के लिए मास्क, ग्लव्स और स्टेरिलाइज़िंग फ्लूइड जैसे ज़रूरी उपकरण उपलब्ध करवाए जाएं। और सरकारी अस्पतालों के पर्यावरण में सुधार लाया जाए। ये मांगें पूरी तो हुई ही नहीं हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि कुछ केंद्रीय मंत्रियों और शासक दल के नेताओं ने इस महामारी से मुक़ाबला ‘गो कोरोना, कोरोना गो’ की धुन छेड़कर या गौमूत्र और गोबर सेवन से ही करने की ठान ली है।

सीधी बात कहें तो इस वक़्त हम एक बेहद खतरनाक स्थिति में हैं जिससे निकलने के लिए हम किसी भी तरह से प्रस्तुत नहीं हैं। हमें ज़रूरत है एक सुलभ, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की जो सही तरीके से हमारी जांच और इलाज कर सके। हमें ज़रूरत है और ज़्यादा डॉक्टरों और नर्सों की ताकि हर किसी का इलाज हो सके। हमें इस वक़्त ज़रूरत है स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए अच्छा माहौल और उपकरणों की ताकि वे अपना काम ठीक से कर सके, उन्हें शुक्रिया अदा करने के लिए थालियां भले ही हम बाद में बजा लें। हालात बहुत गंभीर हैं और इनसे उभरने की उम्मीद हम तभी कर सकते हैं अगर हमारे पास इस मुसीबत से लड़ने के लिए संसाधन हों, सुविधाएं हों। नहीं तो आनेवाला कल बहुत ही बुरा होने वाला है।

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तस्वीर साभार : aljazeera

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