इंटरसेक्शनल कोरोना वायरस का सबसे बड़ा शिकार ‘देश के गरीब हैं’

कोरोना वायरस का सबसे बड़ा शिकार ‘देश के गरीब हैं’

महामारी का सबसे ज़्यादा प्रभाव वंचित तबके पर पड़ रहा है, जिसे फैलने से रोकने की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थोपी गई है, जहां वे असमर्थ हैं।

कोरोना वायरस का कहर पूरे भारत में फैल गया है। चंद महीनों में ये बीमारी 800 से ज़्यादा भारतीयों में देखी गई है, जिनमें से कईयों की मौत भी हो चुकी है। तेज़ी से फैल रहे इस जानलेवा वायरस का कोई इलाज अभी भी आविष्कार नहीं हुआ है और ये कई देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था पर बेहद भारी पड़ा है। भारत जैसा देश, जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत बेहद निचले स्तर की है, किसी भी हालत में इस बला से लड़ने को तैयार नहीं है। जिसकी वजह से कोशिश ये है कि और लोग इससे संक्रमित न हों और इस वायरस के फैलने को रोक लिया जाए। और ये करने का एक ही तरीक़ा है – सोशल डिस्टेंसिंग यानी इंसानों से दूरी बनाए रखना। किसी के साथ किसी भी तरह का शारीरिक संपर्क न करना, जिससे वायरस एक शरीर से दूसरे शरीर में फैल सके।

सोशल डिस्टेंसिंग का एक ही नियम है। किसी भी हालत में घर से न निकलना, चाहे स्कूल, कॉलेज या ऑफ़िस जाने के लिए हो, दोस्तों के साथ घूमने के लिए हो या रिश्तेदारों से मिलने के लिए हो। कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री ने देशभर में 21 दिन का ‘लॉकडाउन’ घोषित किया। यानी पूरे देश में ऑफ़िस, स्कूल, रेस्टोरेंट, सिनेमा हॉल, सब बंद। घर से निकलने की इजाज़त सिर्फ़ अस्पताल जाने या राशन और दवाएं खरीदने के लिए है। इससे आम मध्यमवर्गीय जनता की रोज़ की ज़िंदगी पर गहरा असर तो पड़ा है। स्कूल की पढ़ाई और ऑफ़िस का काम सब अटक गया है। पर सबसे ज़रूरी चीज़ तो सेहत है। और इस बीमारी से अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए हम थोड़ी सी दिक़्क़त तो सह ही सकते हैं। इसीलिए अब हम ‘वर्क फ़्रॉम होम’ की आदत डाल रहे हैं। स्कूल-कॉलेज के छात्रों के लिए इंटरनेट पर ऑनलाइन क्लासेज़ रखी जा रहीं हैं। हर किसी की तरफ़ से कोशिश यही है कि कुछ भी हो जाए, काम या पढ़ाई में नुक़सान न हो।

पर क्या हर किसी के पास ‘वर्क फ़्रॉम होम’ का विकल्प है? उन सैकड़ों लोगों का क्या जिनकी अथक मेहनत पर ही हमारा पूरा मिडिल-क्लास समाज टिका हुआ है? जिनके योगदान की वजह से ही हम फ़ुर्सत से वर्क फ़्रॉम होम कर पा रहे हैं? वो अनगिनत डोमेस्टिक हेल्प, सफ़ाई कर्मचारी और दुकानदार जिनकी एक दिन की ग़ैर-मौजूदगी हमारे पूरे दिन को चौपट कर देती है? ये वर्ग जो हमारी तरह संभ्रांत नहीं है, जिसके पास हमारे जितने विशेषाधिकार नहीं है और जिसकी सेवाओं के बग़ैर हम एक दिन नहीं गुज़ार सकते, इन हालातों से कैसे जूझ रहा है?

मुंबई में काम करती एक डोमेस्टिक हेल्प, लता जाधव, Slate.com से बात करते हुए कहती हैं, ‘मैं अगर घर पे बैठूं तो मुझे हर दिन के पगार का नुकसान होगा। मेरी दो बेटियां हैं जिनकी शादी करवानी है और इतने सारे लोन भी हैं। मैं महीने में 14000 रुपए कमाती हूं जिनमें से 8000 तो लोन के इंस्टॉलमेंट देने में खर्च हो जाते हैं। मेरा पति चाट की दुकान चलाता है पर अब वो भी घर पर बैठा है क्योंकि सरकार ने सड़कों से सारे दुकानदारों और ठेलेवालों को हटवा दिया है। अब बीमारी के डर से घर बैठे हम अपना नुक़सान तो नहीं कर सकते न? काम का हर दिन हमारे लिए ज़रूरी है।’

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लता उन हज़ारों महिलाओं में से हैं जो रोज़ सुबह से शाम मध्यमवर्गीय लोगों के घरों में झाड़ू लगाना, बर्तन धोना, खाना बनाना जैसे दैनिक काम करके अपना गुज़ारा करती हैं। एक भी दिन काम पर न जाने का मतलब है कई रुपयों का नुकसान। इसलिए जब पूरी दुनिया वायरस के डर से घर पर बैठी है, लता जैसी औरतें हर सुबह लोकल ट्रेन की भीड़ में धक्के खाते हुए, अपनी सेहत को जोखिम में डालते हुए काम पर जाती हैं। सबसे बुरी बात तो ये है कि जहां उनके एम्प्लॉयर्स को चाहिए उन्हें महीनेभर की तनख़्वाह देकर उन्हें छुट्टी दे देना आमतौर पर इसका उल्टा ही होता है। एक दिन की छुट्टी करने पर अक्सर उनकी तनख़्वा काट ली जाती है। एक और डोमेस्टिक हेल्प, कल्पना काळे कहती हैं, ‘हमें तो बीमार पड़ने की भी फुर्सत नहीं है।’

महामारी के परिणामों को सबसे ज़्यादा समाज के वंचित तबके को ही सहना पड़ रहा है, सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी सेहत को सबसे ज़्यादा खतरा है, बल्कि इस वजह से कि इसे फैलने से रोकने की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थोप दी गई है, जहां वे इसके लिए असमर्थ हैं।

पर शायद सबसे ज़्यादा ख़तरा है सफ़ाई कर्मचारियों को। जो हमारे घरों से कचरा इकट्ठा करने और नालियां और मैनहोल साफ़ करने का काम करते हैं। इनका काम वैसे ही ख़तरों से खाली नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक़ हमारे देश में हर पांच दिनों में एक सफाई कर्मचारी की मौत मैनहोल में फंसकर या ज़हरीले पदार्थों के संपर्क में आने की वजह से होती है। ये भी देखा गया है कि मुंबई शहर में क़रीब 6500 सफ़ाई कर्मचारियों के पास मास्क, ग्लव्स, अच्छे जूते और यूनिफार्म नहीं हैं, जिसकी वजह से उनके काम की परिस्थितियां और खतरनाक हो जाती हैं।

सफ़ाई कर्मचारी सचिन कहते हैं, ‘मैं जब भी काम पर निकलता हूं, मेरी मां मुझसे पूछती है कि मेरे पास मास्क है या नहीं। मुझे बहुत डर लगता है और मैं चाहता हूं कि कुछ समय घर पर रहूं। लेकिन पैसे भी कमाने हैं और इसलिए मैं काम नहीं बंद कर सकता।’ वहीं राजू का कहना है, ‘मेरा तो काम ही है लोगों के घरों से कचरा इकट्ठा करना। मुझ जैसे लोग ‘वर्क फ़्रॉम होम’ कैसे करें? और फिर इस काम में शामिल सभी लोग दलित हैं। सदियों से लोग हमसे ‘सोशल डिस्टेंस’ ही रखते आए हैं।’

महामारी के परिणामों को सबसे ज़्यादा समाज के वंचित तबके को ही सहना पड़ रहा है, सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी सेहत को सबसे ज़्यादा खतरा है, बल्कि इस वजह से कि इसे फैलने से रोकने की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थोप दी गई है, जहां वे इसके लिए असमर्थ हैं। वायरस से संक्रमित होने के साथ-साथ डर है पुलिस के द्वारा प्रताड़ित होने का भी। वहीं नेताओं और सेलिब्रिटियों पर सोशल डिस्टेंसिंग पर ध्यान न देने पर ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की जा रही। निशाना बनाया जा रहा है सिर्फ़ वंचित वर्ग के श्रमिकों को जो सिर्फ़ अपने काम की वजह से ही इन नियमों का पालन नहीं कर पा रहे।

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‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के स्थापक योगेश जैन कहते हैं, ‘भारत को सोशल डिस्टेंसिंग की नहीं बल्कि शारीरिक दूरी और सामाजिक एकता की ज़रूरत है। जाति, धर्म, वर्ग के मसलों की वजह से हम सामाजिक तौर पर एक दूसरे के क़रीब नहीं आ पा रहे।’ ‘पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी का मानना है कि कोरोनावायरस से बचने के सभी उपाय सिर्फ अभिजात वर्ग के आज़माने के लिए ही हैं और सरकार को इस बात की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए कि वंचित वर्गों को इसका नतीजा न भुगतना पड़े। वे कहते हैं, ‘सोशल डिस्टेंसिंग के साथ साथ हमें ज़रूरत है सौहार्द और सहानुभूति की। अगर हम चाहते हैं कि ग़रीब लोग काम पर जाने के बजाय घर पर रुकें तो हमारा फ़र्ज़ बनता है उनकी रोज़ की ज़रूरतों की पूर्ति का इंतज़ाम करने की।’

कोरोना वायरस से भी बड़ी लड़ाई है सामाजिक असमानता से। वर्ग वैषम्य से। हम बिना एकजुट हुए इस मुसीबत का सामना नहीं कर सकते, न ही ख़ुद सुरक्षित रहकर दूसरों को इसका प्रभाव भुगतने दे सकते हैं। हमें सरकार से इन उपेक्षित वर्गों की ख़ास हिफ़ाज़त की मांग करनी चाहिए, साथ ही साथ अपनी तरफ़ से जहां भी हो सके उनकी मदद करनी चाहिए। डॉ विजय गोपीचंद्रन के मुताबिक़, ‘अगर हम लोगों को वर्क फ़्रॉम होम की सलाह दे रहे हैं सरकार की ज़िम्मेदारी है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना के तहत सबको पर्याप्त तनख़्वा दी जाए और उनके घरों तक राशन पहुँचाया जाए ताकि वे खुद को सुरक्षित रख सकें और अपनी जान जोखिम में।’

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तस्वीर साभार : express.com

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