समाजख़बर कोरोना वायरस ने हमारे समाज की गंदी नस्लवादी मानसिकता का पर्दाफाश किया है

कोरोना वायरस ने हमारे समाज की गंदी नस्लवादी मानसिकता का पर्दाफाश किया है

कोरोना वायरस से जंग जीतने की कोशिश तो हम कर रहे हैं पर नफ़रत और भेदभाव ने हमारे समाज को बीमार कर रखा है, जिसपर हम काबू में नहीं ला पा रहे।

इस समय हम एक आपातकालीन स्थिति से गुज़र रहे हैं। नॉवेल कोरोना वायरस नाम की महामारी दुनियाभर में फैलते हुए अब भारतीय उपमहाद्वीप में फैल चुकी है। अब तक भारत में क़रीब 3000 केस सामने आ चुके हैं और 68 मौतें हो चुकी हैं। प्रधानमंत्री द्वारा घोषित देशभर में लॉकडाउन के दो हफ़्ते होने को हैं और इस बला को टालने का कोई रास्ता अभी तक नज़र नहीं आ रहा। इस भयावह दौर में हमें ज़रूरत है सौहार्द और एकजुटता की। एक दूसरे का सहारा बनने की। इस बुरे वक़्त का सामना एक दूसरे की मदद किए बिना, एक दूसरे का हौसला बढ़ाए बिना करना नामुमकिन है। पर क्या हम ऐसा कर पा रहे हैं?

हम एक विभाजित समाज में रहते हैं। यहां हम लोगों की जाति, धर्म, नस्ल, भाषा, पहनावा देखकर तय करते हैं कि वे हमारी हमदर्दी के लायक हैं या नहीं। वे इंसान कहलाने लायक हैं या नहीं और उन्हें मानवाधिकार दिए जाएं या नहीं। नफ़रत और भेदभाव हमारे ख़ून में है और ऐसे हालातों में, जहां हमें आपसी झगड़े भूलकर साथ मिलकर लड़ने की ज़रूरत है, हम इस नफ़रत को और भी बढ़ावा दे रहे हैं। खुलकर अपनी वर्णवादी, नस्लवादी और सांप्रदायिक मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। जिसका परिणाम भारत के उत्तर-पूर्वी कोने के लोगों को झेलना पड़ रहा है।

उत्तर-पूर्वी भारत या ‘नॉर्थईस्ट’ हमेशा से बाकी के भारत से वंचित रहा है। ज़्यादातर भारतीय इस क्षेत्र से, उसकी संस्कृतियों या लोगों से अच्छी तरह वाक़िफ़ नहीं हैं। यहां तक कि अक्सर हम उत्तर-पूर्वी लोगों को उनके चेहरे और पहनावे की वजह से भारतीय मानने से हिचकिचाते भी हैं। हम उन्हें चीनी, जापानी, नेपाली वगैरह मान बैठते हैं जब कि वे किसी भी तरह से हमसे कम भारतीय नहीं हैं। उत्तर-पूर्व के लोगों के बारे में इस अज्ञानता ने नस्लवादी हिंसा का ज़हर भी बोया है और अक्सर उन्हें ‘अलग’ दिखने के लिए शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है। भेदभाव और नस्लभेदी गालियों से लेकर उन्हें शारीरिक आक्रमण और यौन शोषण तक का सामना करना पड़ा है।

हाल ही में दुनियाभर से चीनी और ‘चीनी शक्ल वाले’ लोगों पर नस्लभेदी हमलों और उत्पीड़न की ख़बर आई है। क्योंकि कोरोना वायरस चीन के वुहान से फैला है, इन सभी लोगों पर ‘वायरस’ और ‘बीमारी’ होने का इलज़ाम लगाया जा रहा है और उनसे भेदभाव किया जा रहा है। भारत में इसका नतीजा ये हुआ है कि हमारे उत्तर-पूर्वी नागरिकों के साथ हो रहे नस्लवादी भेदभाव की घटनाएं बढ़ गईं हैं। उन्हें भी ‘चाइनीज़’ समझा जा रहा है और उन पर बीमारी फैलाने का झूठा इलज़ाम लगाया जा रहा है।

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सोशल मीडिया पर एक विडियो वायरल हुआ था। पुणे के एक सुपरमार्केट में एक औरत एक उत्तर-पूर्वी लड़की पर चिल्लाती और उसे गालियां देती नज़र आई थी। वजह ये थी कि लड़की ने शेल्फ़ से कुछ सामान उठाया था और औरत को लगा कि उसके सामान छूने से बीमारी फैल जाएगी। ऐसी ही एक घटना हुई दिल्ली में। एक उत्तर-पूर्वी छात्रा रास्ते से गुज़र रही थी जब स्कूटर पर सवार एक आदमी ने उसके मुंह पर थूका और उस पर ‘कोरोना’ कहकर चिल्लाया। हीं जम्मू के एक बाज़ार में एक लद्दाख की छात्र को कहा गया कि, “आप लोगों की वजह से ही कोरोना वायरस आया है।”

कोरोना वायरस से जंग जीतने की कोशिश तो हम कर रहे हैं पर नफ़रत और भेदभाव ने हमारे समाज को सदियों से बीमार कर रखा है, हम उसे काबू में नहीं ला पा रहे। हमें बेहद ज़रूरत है समाज में आपसी रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिश करने की और किसी भी तरह की नफ़रत को बढ़ावा न देने की।

‘राइट्स एंड रिस्क अनैलिसिस ग्रुप’ संस्था के पेश किए गए शोधपत्र से पता चला है कि 7 फ़रवरी और 25 मार्च के बीच उत्तर-पूर्वी लोगों पर देशभर में इस तरह के 22 हमले हुए हैं। दिल्ली में स्थित ‘नॉर्थईस्ट सपोर्ट सेंटर एंड हेल्पलाइन’ के पास फ़रवरी के अंत से लेकर लॉकडाउन की शुरुआत तक क़रीब 100 ऐसे कॉल आए हैं जिनमें उत्तर-पूर्वियों ने नस्लवादी हमलों की शिकायत की हो। हम सब कोरोना वायरस से अपना बचाव करने में लगे हैं, पर इस तरह की ज़हरीली नफ़रत किसी वायरस से कम ख़तरनाक नहीं है।

नस्लवाद सिर्फ़ हमलों और गालियों का रूप ही नहीं ले रही, बल्कि धीरे धीरे लोगों के अधिकार छीनकर उन्हें कमज़ोर करने की कोशिशों में भी नज़र आ रही है। भारत के महानगरों में बसे उत्तर-पूर्वियों को रातोंरात अपने किराए के मकानों से निकाल दिया जा रहा है। मेडिकल जांच नेगेटिव होने पर भी उन्हें ज़बरदस्ती क्वारंटाइन में रखकर मरीज़ के तौर पर देखा जा रहा है। रिनज़िन दोर्जी और उनकी बेटी त्सेरिंग यांगज़ोम को उनकी अपनी ही सोसाइटी में घुसने से मना कर दिया गया क्योंकि सोसाइटी अधिकारियों का मानना था कि वे संक्रमित हैं। उन्होंने बहुत समझाने की कोशिश की कि उनके टेस्ट का नतीजा नेगेटिव है। अपने मेडिकल कागज़ात भी दिखाए पर किसी ने उनकी एक नहीं सुनी। सिर्फ़ संक्रमित होने के इल्ज़ाम पर ही उन्हें अपना घर खोना पड़ा।

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भारतीय फ़ुटबॉलर सुनील छेत्री ने हाल ही में इसका विरोध किया। ‘द क्विंट’ वेबसाइट से बात करते हुए उन्होंने कहा, “ये बहुत ही शर्मनाक और नीच हरक़त है और जो लोग ऐसी नफ़रत को बढ़ावा दे रहे हैं वे बेहद जाहिल हैं। आप ऐसा नहीं कर सकते। ये बिलकुल ग़लत है। अगर वायरस किसी ऐसी जगह से आया होता जहां के लोग आपकी तरह दिखते, या आप जहां के रहनेवाले होते तो आप क्या करते? या अगर आप असम, सिक्किम या अरुणाचल प्रदेश में रह रहे होते और वहां के लोग आपका उत्पीड़न कर रहे होते तो आपको अच्छा लगता क्या?”साल 2014 में दिल्ली के लाजपत नगर में अरुणाचल प्रदेश से एक छात्र निडो तानियम की बेरहमी से हत्या हुई थी। आरोपियों ने उसके चेहरे और बालों पर छिछला मज़ाक किया था जिसका विरोध करने की वजह से उसे मार डाला गया। इस घटना के बाद केंद्रीय सरकार में बेज़बरुआ कमिटी की स्थापना हुई। नॉर्थईस्ट काउन्सिल के सदस्य एम. पी. बेज़बरुआ के नेतृत्व में इस कमिटी का मक़सद था उत्तर-पूर्वी भारतीयों पर हो रहे ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना और फरवरी में इस कमिटी ने अपना पहला रिपोर्ट पेश किया। पर हालातों में अभी तक कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया है। नॉर्थईस्ट सपोर्ट सेंटर एंड हेल्पलाइन की अलाना गोल्मेई कहती हैं, “उत्तर-पूर्वियों पर हमलों के ख़िलाफ़ सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। हमें ज़रूरत है फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स की। क्योंकि आमतौर पर इन हमलों पर उचित कार्रवाई नहीं की जाती और पुलिस भी संवेदनशील नहीं है।”

‘मणिपुर वीमेन गन सर्वाइवर नेटवर्क’ की बीनालक्ष्मी नेप्रम खुद नस्लवादी हिंसा की शिकार रह चुकी हैं। उनका कहना है, “सरकार को इसके ख़िलाफ़ कठोर कदम उठाने चाहिए। पहले तो संसद में नस्लवाद के ख़िलाफ़ क़ानून लाए जाने चाहिएं। 1967 में हमने संयुक्त राष्ट्र के साथ नस्लवाद मिटाने के लिए काम करने का प्रण लिया था पर इस पर ज़्यादा काम अभी भी नहीं हुआ है। हमें बेज़बरुआ कमिटी रिपोर्ट में दिए गए अधिनियमों की मदद से कठोर नस्लवाद-विरोधी कानून लागू करने चाहिए। साथ ही हमें स्कूल की किताबों में उत्तर-पूर्वी भारत के बारे में पढ़ाना चाहिए और बच्चों को यहां के लोगों और उनकी जीवन-शैलियों से वाक़िफ़ कराना चाहिए।”

कोरोना वायरस से जंग जीतने की कोशिश तो हम कर रहे हैं पर नफ़रत और भेदभाव ने हमारे समाज को सदियों से बीमार कर रखा है, हम उसे काबू में नहीं ला पा रहे। हमें बेहद ज़रूरत है समाज में आपसी रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिश करने की और किसी भी तरह की नफ़रत को बढ़ावा न देने की।

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तस्वीर साभार : Forbes

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