समाजपर्यावरण वंदना शिवा : जैविक खेती से सतत विकास की ‘अगुवा’

वंदना शिवा : जैविक खेती से सतत विकास की ‘अगुवा’

वंदना शिवा का मानना है कि बीजों में बदलाव और फसलों में किया गया बदलाव घातक साबित होता है क्योंकि वह प्रकृति के अनुरूप नहीं ढल पाता है।

एक छोटे से बीज से इस पूरी दुनिया का विकास हुआ है। पर ये विकास कब तक रहेगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी प्रकृति से कोई प्रयोग न किया गया हो। अगर उस नन्हें से बीज में किसी तरह का बदलाव कर दिया जाए जो उसकी प्रकृति के विरुद्ध हो तो उस बीज कि क्या दशा होगी? क्या वह अपने स्वरुप को पाएगा और क्या वह उसी तरह से पनप पाएगा जैसा वह बिना किसी बदलाव के बड़ा होता। यह एक सोचने वाली बात है। असल बात तो यह है कि कई लोग इस विषय पर ध्यान नहीं देते हैं। क्योंकि आधुनिकता से युग ने हमें सतत विकास की तरफ़ सोचना बंद सा करवा दिया है। 

हरित क्रांति के समय से यह कहा जाने लगा था कि बीजों में बदलाव अगर आएगा तो फसल अच्छी होगी। साथ ही अगर पौधों पर कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाए तो फसल में और भी ज्यादा वृद्धि होगी। हालांकि हुआ इससे उल्टा। इससे फसलों को भारी नुकसान हुआ मगर इस बात पर कई लोगों ने ध्यान नहीं दिया। यह भी हो सकता है कि लोगों ने देखकर भी अनदेखा कर दिया होगा मगर बीजों और फसलों की स्थिति भांपकर वंदना शिवा आगे आईं और उन्होंने बीजों और फसलों को बचाने का काम शुरू कर दिया। 

वंदना शिवा हरित योद्धा हैं। वे पर्यावरण को बचाने के लिए अनवरत प्रयास कर रहीं हैं। टाइम मैगज़ीन ने साल 2003 में वंदना शिवा को ‘इन्वायरन्मेंटल हीरो’ की उपाधि दी है और फ़ोर्ब्स ने उन्हें साल 2010 में विश्व की सात सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में रखा है। भारत में वंदना कपास की खेती में हुए बदलावों और जीएम फसलों के खिलाफ आवाज़ उठाकर चर्चा में आई थीं। कपास के फसलों में हुए बदलावों के कारण 270,000 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी, जिसे उन्होंने नरसंहार की संज्ञा दिया था।

वंदना शिवा का जन्म 5 नवंबर 1952 में भारत में देहरादून की घाटी में हुआ था। अपनी मातृभूमि में शिक्षित होकर उन्होंने कनाडा में स्नातक की पढ़ाई की है। वे गुल्फ से एमए और पश्चिमी ओन्टेरियो विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी कर चुकी हैं। उन्होंने साल 1978 में डॉक्टरी शोध निबंध “हिडेन वैरिएबल्स एंड लोकैलिटी इन क्वान्टम थ्योरी” विषय पर अपनी पीएचडी पूरी की है। वे एक समर्पित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं। 

वंदना ने नेटिव सीड्स (मूल बीज) को बचाने और जैविक कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए साल 1987 में नवधान्य नामक संगठन की स्थापना की थी। नवधान्य स्थानीय किसानों का समर्थन करता है। साथ ही विलुप्त हो रही फसलों और पौधों के संवर्धन के लिए भी समर्पित हैं। वेबसाइट के अनुसार, इसका संगठनात्मक जनादेश ‘जीवित संसाधनों, विशेष रूप से देशी बीज की विविधता और अखंडता की रक्षा करना और जैविक खेती और उचित व्यापार को बढ़ावा देना है।’ उनके मार्गदर्शन में नवधान्य एक राष्ट्रीय आंदोलन में विकसित हुई है।

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एक वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख में वंदना ने कहा है कि ‘मैं नीम, बासमती और गेहूं की बायो-पाइरेसी (जैविक चोरी) के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है। दरअसल कॉर्पोरेशन्स हमारी उन जानकारियों को चुरा लेते हैं, जो हम सदियों से जानते हैं और बाद में कहते हैं कि हमने इसका आविष्कार किया है। ‘ 

वंदना शिवा का मानना है कि बीजों में बदलाव और फसलों में किया गया बदलाव घातक साबित होता है क्योंकि वह प्रकृति के अनुरूप नहीं ढल पाता है।

वंदना ने आगे बताया कि ‘मेरी पूरी ज़िंदगी वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत पर आधारित है। मैं पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन में इसलिए विश्वास रखती हूं क्योंकि मेरा मानना है कि हम धरती मां के परिवार का एक हिस्सा हैं। यह विकास का दौर है और इस चक्कर में प्रकृति और पर्यावरण का मूल्य भुला दिया गया है लेकिन मैं न हार मानूंगी और न ही उम्मीद छोड़ूंगी।‘ साल 1982 में उन्होंने रिसर्च फाउंडेशन फॉर साइंस टेक्नोलॉजी एंड इकोलॉजी की स्थापना की थी। वंदना जैविक खेती पर ज्यादा ज़ोर देती हैं और देशभर के किसानों को जागरूक करने का कार्य करती हैं। साल 1970 में वंदना चिपको आंदोलन से जुडी थीं। उसके बाद पर्यावरण संरक्षण की लडाई और वंदना एक दूसरे के पर्याय बन गए। वह जैविक खेती को प्रोत्साहित करती हैं क्योंकि उनका मानना है कि केमिकल्स के इस्तेमाल से फसलों को नुकसान होता है। किसानों को फसलों से हुए नुकसान से आर्थिक तंगी होती है और वे आत्महत्या कर लेते हैं। 

इसके साथ ही वंदना गोल्डन राइस का भी विरोध करती हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इससे विटामिन ए की कमी नहीं होती है मगर वंदना का दावा है कि गोल्डन राइस को ‘गोल्डन राइस होक्स’ के रूप में जाना चाहिए। उनका मानना है कि प्रकृति अपने से उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती रहती है और उसे उपयोगी बनाती रहती है। पशुओं के मल-मूत्र और पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गलकर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं। 

लोग अगर चाहे तो जैविक खाद बना सकते हैं मगर वे केमिकल्स पर निर्भर हो जाते हैं, जिससे फसलों के साथ-साथ लोगों को भी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां होनी शुरु हो जाती हैं। उनके योगदान से ही साल 1982 में अध्ययन रिपोर्ट के चलते मसूरी में खदानें बंद कर दी गई थीं। इस बात से उन्हें एहसास हुआ कि पर्यावरण के क्षेत्र में छोटा-सा योगदान भी व्यापक प्रभाव डाल सकता है।उन्होंने यह साबित कर दिखाया है कि मॉन्सैंटो के बीटी कॉटन (कपास की जेनिटिकली विकसित प्रजाति) और महाराष्ट्र में किसानों में बढ़ रही आत्महत्या करने की दर के बीच सीधा संबंध है। 

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मॉन्सैंटो का भारत में आगमन अवैध था। इसका प्रमाण वह मुकदमा है, जो मैंने इनके खिलाफ 1998-99 में लड़ा था। किसानों को अत्यधिक पैदावार और कीटनाशक के इस्तेमाल के खर्च में कमी का झूठा वादा किया गया था। अपने एक किताब के बारे में वे कहती हैं ‘मेरी किताब हू रीयली फीड्स द वर्ल्ड मेरे 10 वर्षों के शोध पर आधारित है। सच्चाई यह है कि 70 फ़ीसद खाद्यान्न का उत्पादन छोटे खेतों से होता है, बड़े और औद्योगिक खेत केवल 30 फ़ीसद योगदान देते हैं।‘ वंदना प्रकृति को उसके मूल रुप में ही स्वीकार करने के लिए कहती हैं क्योंकि प्रकृति अपने अनुसार बदलाव करती रहती है। मानवीय प्रयासों के कारण प्रकृति का चक्र गड़बड़ा जाता है, जिसका प्रभाव बुरा होता है। उनका मानना है कि बीजों में बदलाव और फसलों में किया गया बदलाव घातक साबित होता है क्योंकि वह प्रकृति के अनुरूप नहीं ढल पाता है। 

उनका मानना है कि कुछ बदलाव अगर प्रकृति करें तो वह ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि इसमें प्रकृति की इच्छा समाहित होती है मगर मनुष्य की आदत होती है कि वह हमेशा प्रकृति से खिलवाड़ करता है और उसमें अपने लोभ के लिए बदलाव करता है, जिसके परिणाम बेहद बुरे होते हैं। इसलिए जरूरी है कि प्रकृति से खिलवाड़ नहीं किया जाए और भी जो फसलों को उसके मूल रूप में ही विकसित होने दिया जाए। सभी लोग अपने-अपने घरों में जैविक खाद का उत्पादन करें और उसका ही इस्तेमाल करें।


तस्वीर साभार : towardfreedom

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