इंटरसेक्शनल रज़िया सुल्तान : भारत की पहली महिला मुस्लिम शासिका

रज़िया सुल्तान : भारत की पहली महिला मुस्लिम शासिका

रज़िया सुल्तान की कहानी, एक स्त्री के लिए पर्दे और झरोखों की दुनिया से निकलकर अपनी खुद की पहचान बनाने की दास्तां है।

रज़िया-अल-दिन जिन्हें इतिहास रज़िया सुल्तान के नाम से संबोधित करता है, भारत की पहली महिला मुस्लिम शासक थी। रज़िया की कहानी अतीत के पन्नों में नारीवाद के विचारों को अंकित करती है। ये कहानी साल 1205 से शुरू हुई, जब बदायूं में रज़िया का जन्म हुआ। वो तुर्की मूल की थीं और उनका वंश ‘गुलाम वंश’ के नाम से जाना जाता था। रज़िया के पिता शम्स-उद-दिन इल्तुतमिश और माता कुतुब बेगम थी। रज़िया के अलावा इल्तुतमिश के तीन अन्य पुत्र भी थे। पर शुरुआत से ही रज़िया अपने भाईयो से ज्यादा गुणी थीं। 

इल्तुतमिश देहली में सुल्तान क़ुतुब-उद-दिन-ऐबक के गुलाम बनकर आए। पर इल्तुतमिश की प्रतिभा को देखते हुए सुल्तान ने उन्हें प्रांतीय राज्यपाल नियुक्त कर दिया। जब कुतुब-उद-दिन की मृत्यु हुई, तब तुर्कियो की सहायता लेकर इल्तुतमिश सुल्तान की गद्दी पर बैठ गए। इल्तुतमिश का शासनकाल काफी  सफल रहा। इसके अलावा यह भी देखा गया कि उन्होंने ने अपनी संतानों में कभी लैंगिक भेद नहीं किया। इल्तुतमिश ने रज़िया को भी उनके भाईयो की तरह युद्ध कला और राजनीति जैसे विषयों की शिक्षा दी। बड़े होने पर रज़िया ने अपने पिता को राज – काज के मामलों पर सलाह देनी शुरू की और उनके साथ अलग-अलग विषयों पर चर्चा भी करती थीं। इसतरह रज़िया का अधिकांश समय औरतों के हरम से दूर, पिता के राज-काज वाले जीवन में बीतता था। पर समाज को अचंभित करने वाला मोड़ तब आया,‌ जब इल्तुतमिश ने रज़िया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उनका मानना था कि रज़िया के अंदर अपने भाईयो की अपेक्षा राजतंत्र की ज्यादा समझ थी। जहां रज़िया के भाईयो के लिए सुल्तान की गद्दी केवल विलास भरे जीवन का स्त्रोत थी, वहीं रज़िया असल में उस पद की गरिमा और जिम्मेदारियों को समझती थी। 

रज़िया और सुल्तान का तख्त

रज़िया को उत्तराधिकारी घोषित करना जितना सशक्त निर्णय था, उतना ही मुश्किल उनका सुल्तान बनना भी था। रूढ़िवादी समाज को यह स्वीकार्य नहीं था कि उनके ऊपर एक औरत का शासन चले। इसलिए‌ रज़िया के बडे़ भाई को सुल्तान बनाया गया, जिसकी अल्प आयु में मृत्यु होने के बाद रज़िया का छोटा भाई रकनुद्दीन सुल्तान के तख्त पर बैठा। रकनुद्दीन एक ऐसा शासक बना, जिसका राज पाठ विलास और मद में डूबा रहा। सबको यह लगता था कि रुकनुद्दीन केवल नाममात्र का शासक था और वास्तविक सत्ता उसकी मां शाह तुर्कान चला रही थीं। जनता में उसके प्रति आक्रोश पैदा हो रहा था, जिसके बढ़ने पर रकनुद्दीन और शाह तुर्कान की हत्या कर दी गई। और देहली सल्तनत की सत्ता पहली बार एक स्त्री के हाथ में आई, जब रज़िया सुल्तान बनीं। ये देहली के इतिहास का महत्वपूर्ण समय था, जब एक नारी का जीवन पर्दो और झरोखों से बाहर निकलकर, शासक के रूप में सामने आया। रज़िया ने अपने नाम के साथ ‘सुल्ताना’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उनका मानना था कि सुल्ताना शब्द किसी शासक की पत्नी को संबोधित करता है। जबकि वो स्वयं एक शासक बन चुकीं थीं। अतः आज तक हम उन्हें ‘रज़िया सुल्तान’ के नाम से जानते हैं।

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रज़िया सुल्तान की कहानी, एक स्त्री के लिए पर्दे और झरोखों की दुनिया से निकलकर अपनी खुद की पहचान बनाने की दास्तां है।

रज़िया का शासन काल

10 अक्टूबर 1236 में रज़िया की ताज़पोशी हुई। उनका शासन काल कठिनाईयों का दौर रहा, क्योंकि उन्होंने हर स्तर पर बंधनों को तोड़ते हुए स्त्री जीवन के नए आयाम पेश करने का प्रयास किया था। नारी होने के कारण उन्हें हर कदम पर चुनौतियों, विवादों और विद्रोहों का सामना करना पड़ा। रज़िया ने पुरुषों की वेशभूषा अपनाई। वो चोगा (कुर्ता),‌ कुलाह (टोपी), कोट या पगड़ी जैसे वस्त्र पहनकर दरबार में बिना पर्दे के आती थीं। ऐसे में उन्हें सबसे पहले अपने ही दरबारियों के प्रश्नों का उत्तर देना पड़ा। मौलवियों को भी शुरू से रज़िया के शासन से आपत्ति थी। इसीलिए अपने शासन की शुरुआत में पहले तो रज़िया को अपने ही दरबार में उठ रहे विद्रोह को दबाना पड़ा। इसके अलावा रज़िया की राजनीति असल में बहुत अच्छी थी कि कोई भी सरलता से उनपर प्रश्न नहीं उठा पाता था। रज़िया ने अपनी सत्ता के दौरान शैक्षणिक संस्थानों और पुस्तकालयों की स्थापना की। अपने नाम के सिक्के बनवाए। उन्होंने कुरान, साहित्य और विज्ञान के अलावा अन्य संस्कृतियों के अध्ययन पर भी जोर दिया। कई मायनों में यह देखा जा सकता है कि रज़िया ने एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया था। 

विद्रोह के स्वर

कुछ समय के बाद रज़िया के बारे यह अफवाह फैलाई गई कि उनके याकूत नाम के किसी गुलाम के साथ घनिष्ठ संबंध थे। पर यह महज एक अफवाह थी, जो लोगों के बीच जहर की तरह फैली। और एकबार फिर रज़िया को उनके स्त्री जीवन की सीमाओं का बोध करवाया जाने लगा। जो लोग पहले से ही रज़िया के विरोध में थे, उन्होंने इस अवसर का फायदा उठाया और प्रजा के बीच में रज़िया के लिए द्वेष भावना पैदा करनी शुरू कर दी। पर रज़िया ने इन विरोधों की परवाह न करते हुए याकूत को उसकी क्षमता के अनुसार अश्वशाला का अधिकारी बनाया। इसके बाद तो, हालात और भी ज्यादा गंभीर हो गए। भटिंडा के राज्यपाल इख्तियार-उद-दिन-अल्तुनिया ने अन्य प्रांतीय राज्यपालों के साथ मिलकर रज़िया सुल्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में याकूत मारा गया व रज़िया बंदी बन गईं। और रज़िया का तख्तापलट हो गया। अल्तुनिया रज़िया के बचपन का मित्र था। इस कारणवश उसके मन में कुछ वक्त के बाद रज़िया के प्रति संवेदशीलता जग गई। और अल्तुनिया ने रज़िया के साथ विवाह कर लिया। विवाह के बाद शायद अल्तुनिया ने रज़िया के विचारों व प्रतिभा को समझने का प्रयास किया और तभी जब रज़िया ने अल्तुनिया के आगे अपनी सल्तनत वापस जीतने की इच्छा ज़ाहिर की तो अल्तुनिया मान गया। रज़िया ने अल्तुनिया के साथ मिलकर देहली सल्तनत पर काबिज़ बहराम शाह पर हमला किया। ये युद्ध, रज़िया के जीवन का अंतिम युद्ध‌ साबित हुआ। साल 1240 में बहराम शाह के साथ साज़िश रचने वाले ही कुछ लोगों ने रज़िया की हत्या कर दी। और इस प्रकार 14 अक्टूबर 1240 के दिन रज़िया के जीवन का सूर्य अस्त हो गया।

रज़िया सुल्तान की कहानी, एक स्त्री के लिए पर्दे और झरोखों की दुनिया से निकलकर अपनी खुद की पहचान बनाने की दास्तां है। हमारा समाज नारी के विषय में क्या सोचता था, क्या सोचता है और उस समाज की सोच में किस तरह बदलाव लाया जा सकता है, इन सभी बातो की झलक हमें रज़िया सुल्तान की कहानी से मिलती है। इसके अलावा हम यह भी देखते हैं कि किस तरह शिक्षा प्राप्त करने के बाद रज़िया की काबिलियत अपने भाईयो से कईं ज्यादा निकली। रज़िया का उदाहरण यह बताता है कि अगर किसी भी लड़की को, लड़को के समान अवसर दिए जाएं, तो वो लड़को से भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। आज के समय में जहां कई लोग लड़कियों के पहनावे पर सवाल उठाते नजर आते हैं, वहीं रज़िया सुल्तान ने यह दिखाया था कि किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके कपड़ों से नहीं, बल्कि उसके कर्मो से बनता है। नारी का पर्दे में रहना, उसकी गरिमा का प्रमाण नहीं है। हर स्त्री को यह चुनने की आज़ादी है कि वो किस तरह रहना चाहती है, पर्दे में या पर्दे के बाहर। किस तरह के वस्त्र पहनना चाहती है, सूट सलवार या रज़िया सुल्तान की तरह चोगा और कुलाह। और सबसे महत्त्वपूर्ण, रज़िया सुल्तान का उदाहरण देखने के बाद यह बात स्पष्ट होती है कि अपने अस्तित्व, अपनी पहचान, अपने अधिकारों और समानता के लिए एक नारी को स्वयं ही आगे आना पड़ेगा। जब तक वो अपने जीवन के साथ समझौता करती रहेगी, तब तक पुरुष प्रधान समाज की तस्वीर में कोई बदलाव नहीं आएगा। रज़िया सुल्तान अतीत का एक महत्वपूर्ण भाग है और इसीलिए उनके ऊपर रफीक ज़कारिया ने किताब लिखी, जिसका नाम है, रज़िया: द क्वीन ऑफ इंडिया। इसके अलावा अमर चित्र कथा में भी रज़िया सुल्तान के बारे में दिया जाता है।

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तस्वीर साभार : pinterest

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