इंटरसेक्शनल समाज में मर्दानगी के पैमाने लड़कों को बना रहे हैं ‘हिंसक मर्द’

समाज में मर्दानगी के पैमाने लड़कों को बना रहे हैं ‘हिंसक मर्द’

मर्दानगी के ये कैसे पैमानें है जिनको हासिल करने के लिए पुरुष अपनी संवेदनशील भावनाओं और इंसानियत को हिंसा नफ़रतों के पर्दे में छुपा लेता है।

जन्म के समय एक बच्चा सिर्फ लैगिक पहचान लेकर पैदा होता है । लैगिक पहचान को ज्यादातर लड़का और लड़की तक ही सीमित रखा जाता है लेकिन इस लैगिक पहचान की सीमा सिर्फ पुरुष और महिला तक समिति नहीं हैं, इसमें ट्रांसजेंडर को भी तर्ज करने की जरूरत है। जैसे-जैसे कोई व्यक्ति अपने सामाजिक माहौल से परिचित होता है तो वैसे-वैसे उसकी पहचान जाति, वर्ग, काम और व्यवहार सामाजिक मान्यताओं के अनुसार बदल जाती है ।

फिर चाहे वो किसी भी लैगिक पहचान के साथ क्यों ना पैदा हुआ हो। उस व्यक्ति को अपनी सामाजिक पहचान के अनुसार  कपड़े,  सोच, कामकाज और व्यवहार को उसी अनुसार करना पड़ता है । उदाहरण के दौर पर बच्चे का रोना  स्वाभाविक है लेकिन सामाजिक पहचान के अनुसार रोना पुरुषों के लिए वर्जित है जबकि रोना महिलाओं के लिए वर्जित नहीं है । ऐसे कई उदाहरण है जो सामाजिक तौर से पुरुष, महिला और ट्रांसजेंडर को एक सामाजिक साँचे में ढलने के लिए मजबूर करता है । इसी  प्रकार  पितृसत्तामक सोच  पुरुषों को विशेषाधिकारों का प्रलोभन देखकर एक विशेष प्रकार के साँचे में ढलने के लिए मजबूर करती है । पितृसत्ता की सोच से पैदा हुई ‘मर्दानगी’ के पैमानों पर पुरुषों को मापा जाता है ।  इन पैमानों पर खरा उतरने के लिए पुरुष किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं । जोखिम भरे  कार्यों से लेकर हिंसा तक हर पैमानें पर अव्वल आना मर्दानगी के लिए मानो जैसै एकदूसरे नियम हो।

मर्दानगी की दौड़ और पैमानें की हद तो तब हो गई जब हाल ही में इंस्टाग्राम पर 14 से 15 साल के लड़के एक ग्रुप बनाते है जिसका नाम बॉयज लॉकर रूम है । अगर हम इसके मतलब को समझने की कोशिश करें तो समझ में आता है कि ऐसी जगह जहाँ कोई अपनी निजी बातें कर सके । 14 से 15 साल के लड़के इस बॉयज लॉकर रूम में लड़कियों की तस्वीरें साझा करके उनके साथ रेप करने की बातें किया करते थे । यह वास्तव में हमारे पूरे समाज के लिए चेतावनी है कि हमारी नई पीढ़ी किस दिशा की तरफ बढ़ रही हैं । इन लड़को में ‘विषाक्त मर्दानगी’ का असर साफतौर पर नजर आ रहा है, जिसका बहुत  बुरा प्रभाव हमारे समाज पर पड़ रहा है ।

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गौरतलब है कि 14 -15 साल के लड़कों के बीच  इस तरह की चर्चा का होना इस बात की चेतावनी है कि हमारा सामाजीकरण किस तरह हो रहा है । सामाजीकरण से मतलब सिर्फ परिवार से नहीं है बल्कि हर उस कारक से है जो इस तरह की मानसिकता को बढ़ावा दे रही हैं। फिर चाहे हमारे रीति-रिवाज हो या फिर अपराधों को  सामान्य दिखाने वाले मनोरंजन जगत हो । कही जाने अनजाने में सामाजीकरण के कारक रेप कल्चर को बढ़वा तो नही दे रहे । बहुत सारी फिल्मों, विज्ञापनों में जोखिम लेना, नियमों को तोड़ना और हिंसक होना आदि मर्दानगी के पैमानों की तरह पेश किए जाते हैं। इन पैमानों तक पहुँचने के लिए मर्दानगी की मानो एक रेस सी लग जाती है । इस प्रतियोगिता में पुरूष जीत तो जाते है लेकिन इसके चलते वे अपने अंदर के संवेदनशील इंसान को कई पीछे ही छोड़ आते है। 

मर्दानगी के ये कैसे पैमानें है जिनको हासिल करने के लिए पुरुष अपनी संवेदनशील भावनाओं और इंसानियत को हिंसा नफ़रतों के पर्दे में छुपा लेता है ।

इस घटना पर एक पक्ष यह भी निकल कर आ रहा है कि बॉयज लॉकर रूम की सारी बातें उनकी निजी बातें है और सभी को एकान्तता का अधिकार है । लेकिन हम इस बात को नकार नहीं सकते कि निजी या एकान्तता का अधिकार तभी तक माना जाता है जब तक हम किसी ओर की निजी या एकान्तता का अधिकार का उल्लंघन ना करें । बॉयज लॉकर रूम में जितनी भी बातें हो रही थी वे सारी बातें  महिलाओं के प्रति हिंसा को दर्शाती है । महिलाओं के प्रति हिंसा करना या हिंसा को बढ़ावा देना एक अपराध है। किसी लड़की या महिला के बारे में बलात्कार करने की योजना बनाना या बातें करना किसी भी लिहाज से निजी नहीं हो सकता । चाहे घरेलू हिंसा या फिर यौन शोषण इनमें से कोई भी घटना निजी नही है और ऐसी घटनाओं को निजी दिखा कर हम अपराध की गंभीरता को कम नही कर सकते।

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ऐसे अपराधों के लिए कानून व्यवस्था का सुचारू रूप से कार्य करते रहना निश्चित रूप से महत्वपूर्ण कदम है । लेकिन आखिर कब तक हम सिर्फ इन समस्याओं की टहनियों को काटते रहेंगे । असल में इन समस्याओं की जड़ पर वार करना बहुत जरूरी है ।  अगर गौर से देखा जाए तो नजर आता है कि पितृसत्ता इस तरह के अपराधों की असली जड़ है । पितृसत्ता की कोख से पैदा हुई मर्दानगी ना केवल ऐसे विचारों को युवाओं के दिमाग मे डाल रही है बल्कि उन्हें बढ़ावा भी दे रही है ।

टिक टोक से लेकर फेसबुक तक, गली के नुक्कड़ से लेकर नेशनल हाईवे तक हिंसा, जोखिम, अपराधों के प्रति लगाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । भला मर्दानगी के ये कैसे पैमानें है जिनको हासिल करने के लिए पुरुष अपनी संवेदनशील भावनाओं, प्यार और इंसानियत को हिंसा, नफ़रतों के पर्दे के पीछे छुपा लेता है । आखिर क्यों प्यार, दया, रोना और एक-दूसरे की देखभाल करना मर्दानगी के पैमानें नहीं हो सकते । बहुत जरूरी है कि हम घरों, स्कूलों, दफ़्तरों और सड़कों पर एक संवेदनशील पुरुष होने के उदाहरण पेश करे ताकि आने वाली पीढ़ी को मर्दानगी के पैमानों को पाने के लिए हिंसा और नफरत को हथियार ना बनाना पड़े। तभी मर्दानगी के नकली मुखोटों को छोड़कर एक संवेदनशील पुरुष सामने आएगा । आज हमें ऐसे पुरुषों की जरूरत है जो प्यार, दया, एकदूसरे का देखभाल जैसे भावों में विश्वास करता है । जिसे अपने आँसुओ को छुपाने के लिए गुस्से व नफरत की जरूरत ना पड़े । ऐसे पुरुषों के साथ मिलकर ही हम एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकते हैं जो बराबरी, न्यायसंगत और गरिमा पर आधरित हो ।

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तस्वीर साभार : huckmag

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