समाजकानून और नीति मध्य प्रदेश के ‘गुना’ की घटना के बहाने पुलिस सुधार की बात

मध्य प्रदेश के ‘गुना’ की घटना के बहाने पुलिस सुधार की बात

जरूरी है कि पुलिस रिफॉर्म में न सिर्फ़ पुलिस की कार्यशैली में सुधार की बात हो बल्कि संस्थानिक सुधार को भी उसमें शामिल किया जाए।

जॉर्ज फ्लयॉड, वह अमेरिकी नागरिक जिसने 25 मई को मिनीपोलिस पुलिस की कस्टडी में दम तोड़ दिया था। जॉर्ज फ्लयॉड की ‘संस्थानिक हत्या’ के बाद पूरे अमेरिका में पुलिस के इस नस्लभेदी और हिंसक रवैये के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। समूचा अमेरिका ब्लैक लाइव्स मैटर और आई कांट ब्रीद के नारे से गूंज उठा। इन प्रदर्शनों के बाद फ्रांस समेत कई अन्य देशों में पुलिस की हिंसा का विरोध किया गया।

इसके कुछ दो महीने बाद मध्य प्रदेश के गुना जिले से एक भयावह खबर आई है। एक दलित किसान दंपत्ति से स्थानीय प्रशासन और पुलिस ज़मीन खाली करवाने आती है। पुलिस उनकी फसल को रौंद देती है। यह फसल किसान दंपत्ति ने दो लाख के कर्ज की मदद से उगाई थी। प्रशासन के मुताबिक यह सरकारी ज़मीन थी। किसान दंपत्ति गुज़ारिश करते रहे कि फसल पक जाने तक वे ज़मीन खाली न करवाएं। पुलिस ने उनकी इस गुज़ारिश के बदले दंपत्ति पर ताबड़तोड़ लाठियां बरसाईं। पुलिसिया हिंसा और अमानवीय कार्रवाई से तंग आकर दंपत्ति ने कीटनाशक पी लिया।

ये दोनों कहानियां दो अलग-अलग देशों से हैं। लेकिन एक समानता है। समानता है पुलिस के नस्लभेदी और सामंती चरित्र की। भारत में भी अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, दलितों, गरीबों और अन्य वंचित समुदायों के साथ पुलिस के रवैये पर सवाल उठते रहे हैं। इसीलिए अब जरूरत है कि सालों से लंबित पुलिस रिफॉर्म की सरकार शुरुआत करे। जरूरी है कि पुलिस रिफॉर्म में न सिर्फ़ पुलिस की कार्यशैली में सुधार की बात हो बल्कि संस्थानिक सुधार को भी उसमें शामिल किया जाए। पुलिस के काम करने की स्थितियों में आमूलचूक बदलाव करने की जरूरत है। उनकी तनख्वाह और ड्यूटी के बीच सामंजस्य बैठाने की जरूरत है। पार्लियामेंट्री रिसर्च सर्विसेज़ (पीआरएस) ने साल 2017 में एक पुलिस सुधार संबंधी एक रिपोर्ट में जारी किया था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पुलिस की जवाबदेही तय की जाए। लॉ एंड ऑडर को इवेस्टिगेशन से अलग रखा जाए। पुलिस महकमे के आंतरिक मामलों के निपटारे को भी पीआरएस ने बहुत जरूरी माना।

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इन सबके बीच उसने माना कि पुलिस और आम लोगों के बीच के रिश्तों को बेहतर करना सबसे ज़रूरी है। लोगों को पुलिस पर भरोसा होना चाहिए कि वे अपनी शिकायतें लेकर थाने जा सकते हैं और वहां उनकी सुनवाई की जाएगी।   

लोकनीति- सीएसडीएस की स्टेट ऑफ पोलिंसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 के अनुसार 12 फीसद पुलिस कर्मचारियों को कभी मानवाधिकार के मुद्दे पर कोई ट्रेनिंग ही नहीं मिली।

बीते कुछ समय में भारतीय पुलिस और पब्लिक के बीच खाई बढ़ती की गई है। गिने-चुने मामलों के मार्फ़त भी देखें तो समझ आता है कि पुलिस और पब्लिक के बीच दरार बढ़ी ही है। क्या हमें ये याद नहीं कि एक महीने पहले ही तमिलनाडु के तुतीकोरिन में एक पिता-पुत्र की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई थी। जयराज और उनके बेटे बेनिक्स को लॉकडाउन के दौरान दुकान खोलने से जुड़े नियमों के उल्लंघन में गिरफ्तार किया गया था। इन दोनों के साथ पुलिस हिरासत में कैसा अमानवीय सलूक किया गया। इस बात का अंदाज़ा हम परिवार के बयान से ही लगा सकते हैं। उनके परिवार ने मीडिया को बताया कि दोनों पिता और पुत्र के गुप्तांगों पर गहरी चोट थी। उनके कपड़े खून से सने हुए थे। 

तकरीबन एक सप्ताह पहले कानपुर में अपराधी विकास दुबे का इनकाउंटर किया गया। यूपी पुलिस ने इनकाउंटर की क्रॉनोलॉजी बताई उसपर लोगों ने ही शक जाहिर कर दिया। सोशल मीडिया में जिस तरह से पुलिस की कार्रवाई की किसी फिल्म की स्क्रिप्ट से तुलना की गई वह पुलिस की साख पर सवाल उठाती है। लोगों में पुलिस के प्रति भरोसे का भाव पैदा नहीं होता, लोग पुलिस से डरते हैं। हमारे ज़हन में वो तस्वीरें ज़रूर ताज़ा होंगी जहां लॉकडाउन में अपने घर लौट रहे मजदूरों को पुलिस की लाठियां खानी पड़ी थी। झुलसती गर्मी में, पीठ पर भारी बस्ता लटकाए मजदूर सड़कों पर उठक-बैठक करते नज़र आए थे। 

लोकनीति- सीएसडीएस की स्टेट ऑफ पोलिंसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 के अनुसार 12 फीसद पुलिस कर्मचारियों को कभी मानवाधिकार के मुद्दे पर कोई ट्रेनिंग ही नहीं मिली। साथ ही हर चार में से तीन पुलिसवाले ये मानते हैं कि अपराधियों के प्रति पुलिसवालों का हिंसात्मक रवैया जायज़ है। वहीं हर पांच में से एक पुलिस कर्मचारी इस बात का समर्थन करता है कि खतरनाक अपराधियों के ट्रायल की जगह उन्हें मार देना ही बेहतर है। यहां तक कि पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी इस बात का समर्थन करते हैं कि अपराधियों के प्रति पुलिस का हिंसात्मक रवैया सही है।इस रिपोर्ट में पुलिस के समाज के साथ कैसे रिश्ते हैं। वे किसी खास जाति, समुदाय के बारे में क्या राय रखते हैं इस पहलू को भी शामिल किया गया है। सर्वे के मुताबिक हर दो में से एक पुलिस वाले का मानना है कि मुस्लिम समुदाय के लोग आमतौर पर अधिक अपराध को अंजाम देते हैं। यहां तक कि हर पांच में से एक पुलिस वाले का मानना है कि एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज़ होने वाली शिकायतें झूठी या किसी के बहकावे में आकर की गई होती हैं।

ऐसी स्थिति में जरूरत है कि पुलिस के आला अफ़सर, डिपार्टमेंट और सरकारें लोगों के बीच आत्मविश्वास पैदा करे कि पुलिस लोगों की सेवा के लिए हैं। वे कानून व्यवस्था बहाल करने के साथ-साथ एक बेहतर समाज के निर्माण में भी भागीदार हैं।

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तस्वीर साभार : newsclick

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