इंटरसेक्शनलजेंडर भारतीय राजनीति के पितृसत्तात्मक ढांचे के बीच महिलाओं का संघर्ष

भारतीय राजनीति के पितृसत्तात्मक ढांचे के बीच महिलाओं का संघर्ष

संसद जिसे लैंगिक रूप से संवेदनशील और पितृसत्ता से आज़ाद होना चाहिए, वहां भी महिलाओं को पितृसत्ता और गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है।

आदिम साम्यवादी समाज के बाद किसी भी राजनीति और वर्गीकरण की शुरुआत महिलाओं को उनके शरीर की संरचना के आधार पर दोयम दर्जे में रखने से हुई। स्त्री को पुरुषों के सुरक्षा के घेरे में रखना तय किया गया जिससे बाहरी कार्यक्षेत्र पर पुरुषों का अधिकार और संसाधनों पर पुरुषों का स्वामित्व स्थापित हो गया।। ठीक इसी तरह सत्ता की स्थापना भी पुरुषों ने की। दरअसल, सत्ता या शक्ति जैसी अवधारणाएं महिलाओं पर शासन और स्वामित्व से उपजी, उसके बाद ही क्षेत्रीय शासन/राजनीति की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इस पूरे तंत्र से महिलाओं को अलग-थलग कर दिया गया। इसे हम वेबर के ‘थ्री कॉम्पोनेन्ट थ्योरी ऑफ स्ट्रेटिफिकेशन’ से समझ सकते हैं, जिसमें किसी भी समुदाय में शक्ति-संचालन के लिए वे ‘शक्ति पर स्वामित्व’ को महत्वपूर्ण आयाम मानते हैं। वेबर के मुताबिक शक्ति का स्वामित्व ‘सामाजिक संसाधनों’ पर कब्ज़े से आता है’ क्योंकि पुरुष बाहरी कार्यक्षेत्र में एक प्रभावशाली तबका है। पुरुषों ने महिलाओं को घरों तक सीमित कर दिया है इसलिए उसके पास मज़बूत सामाजिक पूंजी है।

सामाजिक कार्यक्षेत्र में अपने लिए जगह बनाना महिलाओं के लिए हमेशा से ही चुनौतीपूर्ण रहा। आज भी यह समस्या ख़त्म नहीं हुई है। सामाजिक पूंजी के अभाव में इस पितृसत्तात्मक तंत्र में बने रहने करने के संघर्ष के दौरान महिलाएं यौन हिंसा और मानसिक प्रताड़ना से गुजरती हैं। नारीवादी आंदोलनों के माध्यम से यह समझ विकसित हुई कि जबतक नीति निर्माण, राजनीति और कानूनी प्रक्रिया में महिलाएं निर्णायक भूमिका में नहीं होंगी, संस्थागत शोषण की यह प्रवृत्ति बनी रहेगी। अब महिलाएं चुनावी प्रक्रियाओं में शामिल होकर नेतृत्व संभालने के लिए आगे बढ़ रही हैं लेकिन उनकी यह यात्रा केवल चुनावी प्रक्रिया के दौरान कठिन नहीं होती। संसद जिसे लैंगिक रूप से संवेदनशील और पितृसत्ता से आज़ाद होना चाहिए वहां भी महिलाओं को पितृसत्ता और गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है।

अंतरराष्ट्रीय संस्था आईपीयू की साल 2016-18 की ‘एलिमिनेट सेक्सिज़्म एंड हरासमेंट इन पार्लियामेंट ‘ शीर्षक से छपी रिपोर्ट के अनुसार चुनावी भागीदारी और राजनीति में महिलाएं किसी न किसी तरह के मानसिक शोषण से गुज़रती ही हैं और उनमें से लगभग 20 फीसद यौन हिंसा की शिकार होती हैं। समाज में पितृसत्ता की जड़ें काफी गहरी हैं, ऐसे में प्रत्येक संगठन और संस्थान इसकी चपेट में है। मीडिया भी अपनी हेडलाइन्स और खबरों के माध्यम से महिला और पुरुष नेताओं के बीच भेदभाव करता नज़र आता है। महिला नेताओं के निजी जीवन, वेश-भूषा पर ज़्यादा महत्व दिया जाता है। कई महिलाओं नेताओं के ‘ग्लैमरस’ रूप को दिखाया जाता है जबकि पुरुषों की छवि उनके उद्देश्यों, लक्ष्यों और भाषणों से तय की जाती है। भारत में ये समस्याएं ज़्यादा गहरी हैं। यहां चुनावों में महिलाओं पर दूसरे दल के नेताओं द्वारा अश्लील टिप्पणी, स्त्री विरोधी दावे और स्त्री-द्वेषी आरोप-प्रत्यारोप सामान्य हैं।

यहां स्थानीय चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर महिला चुनाव तो लड़ती है लेकिन उनकी भूमिका हस्ताक्षर करने तक सीमित कर दी जाती है। इस तरह से राजनीतिक प्रक्रिया और सत्ता पितृसत्ता को सही ठहराते हैं।

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मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2012 में एक चुनावी रैली के दौरान आईपीएल घोटाले के संदर्भ में शशि थरूर पर तंज कसने के लिए सुनंदा पुष्कर को निशाना बनाया और कहा- ‘वाह क्या गर्लफ्रेंड है, आपने देखी है, 100 करोड़ का गर्लफ्रेंड।‘ ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं, जहां भारतीय नेताओं की पितृसत्ता खुलकर उनके भाषणों में बाहर आई है। साल 2014 में एक चुनावी रैली में तत्कालीन सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के संबंध में मौत की सज़ा को ग़लत ठहराते हुए कहा‘लड़के-लड़के हैं, लड़कों से गलतियां हो जाती हैं।‘ उन्होंने यह वादा भी किया कि उनकी सरकार आई तो वे इस तरह के ‘एन्टी-रेप कानून’ को बदल देंगे। पितृसत्ता की समस्या स्थानीय स्तर पर और गहरी हो जाती है। यहां स्थानीय चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर महिला चुनाव तो लड़ती है लेकिन उनकी भूमिका हस्ताक्षर करने तक सीमित कर दी जाती है। इस तरह से राजनीति और सत्ता पितृसत्ता को सही ठहराते हैं। महिलाएं प्रतिनिधि बनकर उभर तो रही हैं लेकिन अभी भी स्वामित्व पुरुषों के हाथ में हैं। पुरुष की सामाजिक पूंजी उसे महिला का मज़ाक उड़ाने और कमतर आंकने का अवसर दे रही है।

संसद, महिलाएं और कानून

शोषण और भेदभाव केवल चुनावी प्रक्रिया और स्थानीय स्तर के शासन तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर देश की संसद में भी पितृसत्ता खुलकर सामने आती है और कोई प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई नहीं की जाती। 25 जुलाई, 2019 को तीन तलाक़ बिल का विरोध करते हुए समाजवादी नेता आज़म खान का महिला विरोधी व्यवहार पूरे देश ने देखा जब उन्होंने बीजेपी की रमादेवी पर आपत्तिजनक फब्तियां कसते हुए कहा― ‘आप मुझे इतनी अच्छी लगती हैं कि मन करता है आपकी आंखों में आंखें डाल दूं...।’ दरअसल, यह घटना सड़क पर नहीं देश की संसद में हुई थी वह भी तब जब देश के नागरिकों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि महिला संबंधित मुद्दे पर बहस कर रहे थे। संसद में महिलाओं को राक्षसी हंसी जैसी उपमाओं और शायरी के ज़रिए भी संबोधित किया जाता रहा है। इस संसद में महिला के ख़िलाफ़ सभी पुरुष ज़ोर से टेबल बजाकर अपनी पितृसत्तात्मक सहमति दर्ज करते हैं। इन सभी मामलों में कोई कार्रवाई नहीं होती, इसे एक सामान्य घटना की तरह देखा जाता है। एक दिन ख़बर चला दी जाती है, दूसरे दिन नया मुद्दा आ जाता है।

इस शोषण, स्त्री-द्वेष और भेदभाव के नज़रअंदाज़ होने के पीछे संसद में औरतों की कम संख्या और पुरुषों का महत्वपूर्ण भूमिका में होना है। 17वीं लोकसभा में कुल महिला सांसदों की संख्या 78 है, जो सदन का 14.39 फ़ीसद है, यानी 78 महिलाएं 497 मिलियन महिलाओं का नेतृत्व में कर रही हैं। बता दें कि भाषणों में सम्मान देने वाले प्रधानमंत्री मोदी इतने विरोध-प्रदर्शन के बावजूद भी जहां नागरिकता बिल और यूएपीए ले आते हैं, लेकिन 22 साल से अटके पड़े महिला आरक्षण बिल पर उनकी सरकार कुछ नहीं करती। दरअसल, उनकी कैबिनेट देखकर सारी बातें साफ़ हो जाती है जिसमें 2014 में 10 महिलाओं के मुक़ाबले  2020 में 6 महिलाओं को मंत्रालय मिला है।

साल 1951-52 में जहां राजनीति में औरतों की भागीदारी पाँच फ़ीसद थी, वैश्विक स्तर पर अब यह भागीदारी लगभग 26 फ़ीसद है।

पार्टी से इतर उभरती महिला ‘सॉलिडेरिटी’

समाज में पितृसत्ता व्याप्त है लेकिन लगातार महिलाएं आंदोलनों और अकडेमिया के माध्यम से सुधार की कोशिश कर रही हैं। सुधार की यह प्रक्रिया धीमी ज़रूर है लेकिन लगातार युवा महिलाएं मुखरता से चुनावी प्रक्रिया में शामिल हो रही हैं। न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिन्डा अर्डन ने अपने नेतृत्व कौशल से वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल कर पितृसत्ता को चुनौती देकर यह सिद्ध किया है कि महिलाएं कुशल नेतृत्व करने में सक्षम हैं। ब्रिटेन,जर्मनी,अमेरिका,ऑस्टेलिया जैसे देशों में भी महिलाएं पितृसत्ता को चुनौती देती दिख रही हैं। पार्टी से इतर महिलाओं के हक और शोषण के ख़िलाफ़ एकसाथ मिलकर आवाज़ उठा रही हैं। साल 1951-52 में जहां राजनीति में औरतों की भागीदारी पाँच फ़ीसद थी, वैश्विक स्तर पर अब यह भागीदारी लगभग 26 फ़ीसद है।

असल में,सदियों से स्थापित पितृसत्ता को उखाड़ने में महिलाओं को एक साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा और समाज में जागरूकता लानी होगी। आमतौर पर स्त्रियों के हित को पुरुष विरोधी समझ लिया जाता है, जो शिक्षा की कमी से उपजी वैचारिक हीनता है। लैंगिक-संवेदनशीलता के लिए प्रयास किए जाने चाहिए। महिला संगठनों को विभिन्न संस्थानिक क्रियाकलापों में शामिल होना चाहिए। सभी स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी से ही महत्वपूर्ण वैचारिक बदलाव आएंगे। चुनावी प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाते हुए स्त्री विरोध पर सशक्त कानून बनाकर उसका अनुपालन कराना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। शोषण के ख़िलाफ़ कानूनों का पालन होना चाहिए। संसाधनों के समान वितरण और अवसरों की पर्याप्त भागीदारी से ही पितृसत्तात्मक ढांचे टूटेंगे। इसके लिए महिलाओं को ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी करनी होगी और एक दूसरे से साथ खड़ा होना होगा।

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तस्वीर साभार: yourstory

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