समाजकानून और नीति भारतीय जेलों में महिला कैदियों की दुर्दशा

भारतीय जेलों में महिला कैदियों की दुर्दशा

महिला कैदी आमतौर पर कमज़ोर सामाजिक और आर्थिक तबके से आती हैं। पैसे की तंगी की वजह से इन्हें जमानत भी नहीं मिल पाती।

आमतौर पर भारतीय समाज में ये माना जाता है कि महिलाएं अपराध नहीं करती, ज़्यादातर अपराधों को अंजाम सिर्फ पुरुष देते हैं। अगर कोई महिला किसी अपराध की दोषी पाई भी जाती है तो भारतीय जेलों में भी महिला कैदियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। आंकड़ों के मुताबिक पिछले 15 सालों में महिला कैदियों की संख्या में 61 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। बावजूद इसके, इन कैदियों के लिए जिन मूलभूत सुविधाओं की ज़रूरत होती है उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। इसी वजह से महिला कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय बर्ताव में भी बढ़ोतरी हुई है। महिला कैदियों के साथ होने वाले इस अमानवीय व्यवहार को समझने के लिए हमें दो सवालों पर ध्यान देना होगा। पहला तो यह कि महिला कैदियों की संख्या में इतनी बढ़ोतरी क्यों हो रही है और दूसरा कि मूलभूत सुविधाओं के स्तर पर, जेलों में महिलाएं किस भेदभाव को झेलती हैं?

क्यों बढ़ रही है महिला कैदियों की संख्या ?

साल 2018 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लगभग 4,66,084 लोग जेल में रह रहे हैं। इसमें से कुल 19,242 महिला कैदी हैं। राजस्थान की जेलों में कैदियों की स्थिति पर हुई एक स्टडी के मुताबिक महिला कैदी आमतौर पर कमज़ोर सामाजिक और आर्थिक तबके से आती हैं। पैसे की तंगी की वजह से महिला कैदियों को जमानत भी नहीं मिल पाती। नतीजतन, अपराध साबित न होने के बावजूद भी ये महिलाएं कई-कई सालों तक जेलों में ही रह जाती हैं। साथ ही यह भी देखा गया कि इन कैदियों की उम्र भी कम होती है। इन पर अपने बच्चों की जिम्मेदारियां भी होती है। कम शिक्षा, नौकरी का अभाव और जेलों के हालात, सब मिलकर इन महिला कैदियों का जीवन दुष्कर बना देते हैं।  

तुलसी (बदला हुआ नाम) का ही उदाहरण ले लीजिए। नेपाल में जन्मी तुलसी, अपने पति के खून के आरोप में जेल में पहुंच गई। एक कन्फेशन स्टेटमेंट (जो पुलिस के दबाव में दिया गया था) के अतिरिक्त, तुलसी के खिलाफ कोई सबूत नहीं था। इसके बावजूद तुलसी को जमानत नहीं मिली क्योंकि उसके पास जमानत के पैसे नहीं थे। उसे यह पता नहीं था कि उसके पास निशुल्क क़ानूनी सहायता का अधिकार है। नतीजतन, वो 2010 तक जेल से बाहर निकल नहीं पाई थी, जब तक कि उसे सरकार से निःशुल्क क़ानूनी सहायता नहीं मिली। आंकड़े बताते हैं कि तुलसी की तरह और भी कई औरतें हैं जिन्हे निशुल्क सहायता के अधिकार के बारे में पता ही नहीं होता। कई मामलों में ये महिलाएं पुलिस के दबाव में यह मान लेती हैं की अपराध इन्होनें किया है जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है। 

साल 2018 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लगभग 4,66,084 लोग जेल में रह रहे हैं। इसमें से कुल 19,242 महिला कैदी हैं। राजस्थान की जेलों में कैदियों की स्थिति पर हुई एक स्टडी के मुताबिक महिला कैदी आमतौर पर कमज़ोर सामाजिक और आर्थिक तबके से आती हैं।

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इस स्टडी में कुल 150 महिला कैदियों से बात की गई थी। इन 150 में से 128 महिलाएं ऐसे परिवारों से आती है जिनकी महीने की आमदनी 5000 रूपए से भी कम थी और सिर्फ 9 औरतें ऐसे परिवारों से थी जिनकी आमदनी 15,000 से ज्यादा थी।  इन सबसे ये साफ़ जाहिर होता है कि जेल से बाहर निकलने में दो बाधाएं महिलाओं को रोकती हैं – पैसे की तंगी और जानकारी का अभाव।   

महिला कैदियों को परिवार से भी कोई बहुत ज्यादा मदद नहीं मिल पाती। हमारे समाज में जब कोई पुरुष जेल जाता है तो परिवार के सारे सदस्य मिलकर पैसा इकट्ठा कर लेते हैं उसे जेल से बाहर निकलने के लिए लेकिन ये सब तब नहीं होता जब कोई महिला जेल जाती है। परिवार के सदस्य उससे किनारा कर लेते हैं। उपरोक्त स्टडी में ये भी पाया गया कि 150 में से सिर्फ 111 महिलाओं के परिवार वालों को उनके जेल जाने की सूचना दी गई थी।

पैसे की तंगी की वजह से महिला कैदियों को जमानत भी नहीं मिल पाती। नतीजन, अपराध साबित न होने के बावजूद भी ये महिलाएं कई-कई सालों तक जेलों में ही रह जाती हैं।

जेलों में महिलाएं किस भेदभाव को झेलती हैं

जेलों में ऐसी बहुत सारी सुविधाएं होती है जो पुरुषों को तो मिलती है लेकिन महिलाओं को नहीं मिलती। उदाहरण के तौर पर, काफी लम्बे संघर्ष के बाद तिहाड़ जेल में महिलाओं के लिए भी ‘ओपन जेल’ की व्यवस्था शुरू हुई। इसके अतिरिक्त, जेलों में जगह की कमी भी एक बहुत बड़ी समस्या है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते है कि साल 2015 से 2017 के बीच कैदियों की संख्या में 7.4 फीसद से बढ़ोतरी हुई, वहीं दूसरी और जेलों की क्षमता मात्र 6.8 फीसद से बढ़ी। जगह की इसी कमी की वजह से महिला और पुरुष कैदियों के बीच लगभग न के बराबर दूरी रहती है। इससे महिला कैदियों की सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है।

तुलसी के मुताबिक जेल में रहने के दौरान उनकी सबसे बड़ी चिंता थी उनकी दोनों बेटियां। कारावास के दौरान, उनकी दोनों ही बेटियां एक रिश्तेदार के पास रह रही थी। बच्चों की देखभाल की मुख्य जिम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं की ही होती है और जब महिलाएं ही जेल चली जाती है तो समस्या सिर्फ उनके लिए ही नहीं बढ़ती लेकिन उनके बच्चों के लिए भी बढ़ जाती है।  वैसे तो भारत में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चे अपनी मां के साथ जेल में रह सकते हैं। इस प्रकार के कैदियों के लिए ‘बेबी यूनिट’ की जरूरत होती है लेकिन इन यूनिट्स की संख्या काफी कम होती है। इसलिए सभी जरूरतमंद महिलाओं को इसकी सुविधा नहीं मिल पाती। स्तनपान को लेकर भी जेल अधिकारीयों को समस्या का सामना करना पड़ता है।  

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इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लगभग 1320 बच्चे अंडरट्रायल महिला कैदियों के साथ जेल में रह रहे है। राज्यानुसार देखे तो पता लगता है कि 428 बच्चों के साथ उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। इस माहौल में बड़े होने की वजह से ये बच्चे अपने बचपन को खो देते हैं। न शिक्षा, न बाहरी दुनिया की खबर और न बाकि परिवार सदस्यों का प्यार। जब ये बच्चे छह साल की उम्र को पार कर लेते हैं तो इनको अब कहां भेजना है यह सवाल भी खड़ा हो जाता है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि इन बच्चों की साल वर्ष की उम्र होते ही इनकी माताओं को भी बाहर निकलने की मंजूरी नहीं मिलती।  

इन जेलों में जहां बच्चे अपनी जिंदगी के शुरुआती साल बिताते है। वहीं, आए दिन महिलाओं के साथ यौन शोषण की खबरें आती रहती है।  उदाहरण के तौर पर, मुंबई के बाइकुला महिला जेल में कथित तौर पर एक महिला कैदी को बुरी तरीके से पीटा गया, उसके फेंफड़ों तक को क्षति पहुंचाई गई थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, औरत को इसलिए पीटा गया था क्योंकि पर्याप्त खाना न मिलने पर उसने शिकायत की थी। ऐसा नहीं है कि इन महिला कैदियों के लिए कोई नीति नहीं है लेकिन हमेशा कि तरह समस्या यही है कि इन नीतियों को अमल में नहीं लाया जाता। परिणामस्वरूप, हालत जस के तस बने रहते हैं और कैदी महिलाओं के साथ पशुओं की भांति होने वाले भेदभाव में कोई बदलाव नहीं आता।   

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तस्वीर साभार: Hindustan Times

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