इंटरसेक्शनल कार्यस्थलों पर कब सुनिश्चित की जाएगी महिलाओं की सुरक्षा| #AbBolnaHoga

कार्यस्थलों पर कब सुनिश्चित की जाएगी महिलाओं की सुरक्षा| #AbBolnaHoga

ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहां कई महिलाओं को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है, जिन्होंने यौन उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पितृसत्ता में महिलाओं का आवाज़ उठाना एक सामाजिक अपराध माना जाता है।

पुरुषों ने अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर महिलाओं का यौन उत्पीड़न करने की घटनाएं आदि काल से चली आ रही हैं। पुरुषों के इन विशेषाधिकारों का आधार लिंग, सत्ता, पद और जाति इत्यादि होते हैं। अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके पुरुषों ने शब्दों, व्यवहार और क्रियाओं से महिलाओं का शारिरिक और मानसिक शोषण होता है। शोषण के इस चक्रव्यूह को तोड़कर कुछ आवाज़ें ऐसी भी उठी जिन्होंने इसके ख़िलाफ एक आंदोलन को जन्म दिया । ऐसी ही एक बुलंद आवाज़ राजस्थान से भंवरी देवी ने उठाई थी जिनकी बदौलत कार्यस्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा को मद्देनज़र रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन साल 1997 में जारी की थी। 

इसी तर्ज पर बहुत सारी महिलाओं के संघर्षों और बुलंद आवाजों के परिणामस्वरूप महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, निषेध एवं निदान) अधिनियम 2013 में पारित किया गया था। इस अधिनियम के पारित होने के बाद यह उम्मीद जताई जा रही थी कि महिलाओं के लिए कार्यस्थल सुरक्षित हो जाएंगे। कार्यस्थलों और श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि होगी। लेकिन क़ानून के पारित होने और उसके ज़मीनी स्तर पर लागू होने के बीच में पितृसत्तात्मक सोच हमेशा आड़े आती रही हैं। अगर भारत की बात करें तो लैंगिक भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण महिलाओं की भागीदारी को या तो नकार दिया जाता है या फिर उन्हें अवसर समान अवसर नहीं दिए जाते।

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अगर हम आंकड़ों पर नज़र डालें तो यह साफ हो जाता है कि श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी लगातार कम होती जा रही है। साल 2018 की वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी दर घटकर 26.7 फीसद तक पहुंच गई। हालांकि साल 2005 में यह दर 36.5 फीसद थी। साल 2020 तक श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी की दर 24.8 फ़ीसद पर आ गई। वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2020 में 153 देशों के बीच भारत 112वें पायदान पर था। इस तरह से महिलाओं की भागीदारी में गिरावट का आना बहुत सारे सवाल खड़ा करता है।

साल 2017 में Me too अभियान देश में ही नहीं विदेशों में भी यौन उत्पीड़न झेल रही महिलाओं की बुलंद आवाज़ बना। इस अभियान ने सत्ता में बैठे ताकतवर पुरुषों की जड़ें हिलाने का काम किया। उस आंदोलन ने नीति बनाने वालो को फिर से सोचने पर मजबूर किया। विशाखा गाइडलाइन से लेकर #Metoo अभियान तक के संघर्षों ने निश्चित तौर पर पितृसत्ता पर ज़ोरदार प्रहार तो किया लेकिन उसे जड़ से उखाड़ने के लिए अभी बहुत प्रयास करने की ज़रूरत है।

ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहां कई महिलाओं को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है, जिन्होंने यौन उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पितृसत्ता में महिलाओं का आवाज़ उठाना एक सामाजिक अपराध माना जाता है। 

और पढ़ें : कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम | #LawExplainers

कार्यस्थलों पर पुरुषों ने महिलाओं का शब्दों से, इशारों से या छूने से असहज करना यौन उत्पीड़न के दायरे में आता है। कई बार कार्यस्थलों पर पुरुषों ने महिलाओं के साथ शारीरिक संपर्क बनाने की कोशिश की जाती है, जो महिलाओं को स्वीकार नहीं होता। कई बार पुरूषों ने महिला सहकर्मियों को एक वस्तु की तरह देखना भी महिलाओं को असहज कर देता है। हालांकि पुरूषों के लिए यह बहुत सामान्य सी बात हो सकती है लेकिन यह यौन हिंसा के दायरे में आता है। कागज़ी तौर पर तो अधिनियम कार्यस्थलों तक ज़रूर पहुंचा है लेकिन कागज़ों से व्यवहार और व्यवस्था तक आना अभी भी एक चुनौती है। भले ही कार्यस्थलों पर आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन हो गया है लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि पितृसत्तात्मक सोच वाली समिति भला कैसे यौन हिंसा के खिलाफ निष्पक्ष निर्णय दे सकती है। ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहां कई महिलाओं को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है, जिन्होंने यौन उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पितृसत्ता में महिलाओं का आवाज़ उठाना एक सामाजिक अपराध माना जाता है। 

और पढ़ें : कार्यस्थल पर यौन हिंसा करने वालों के नाम ‘एक पड़ताल’

कार्यस्थलों पर यौन हिंसा ये जुड़े अधिनियम का लागू होना निश्चित तौर पर एक बड़ा कदम है। यह इस बात का प्रतीक भी है कि महिलाओं के प्रति हिंसा स्वीकार नहीं की जाएगी। लेकिन जिस पितृसत्ता के स्कूल में पुरुषों की सामाजिक पढ़ाई होती है, वहां से वे सिर्फ कठोर और हिंसात्मक मर्द ही बनकर निकलते हैं। ऐसे में कार्यस्थलों पर लैगिंक संवेदनशीलता की उम्मीद रखना ही गलत हैं। बचपन से ही लड़को के साथ लैगिंक समानता पर लगातार बातचीत करनी बेहद ज़रूरी है। इसके साथ-साथ कार्यस्थलों पर लैगिंक संवेदनशीलता पर जागरूकता फैलाना भी एक महत्वपूर्ण कदम हैं। 

कार्यस्थलों पर सुरक्षित और समानतापूर्ण माहौल न केवल महिलाओं की श्रमबल में वृद्धि सुनिश्चित करने में मदद करता है बल्कि उत्पादन क्षमता को भी बढ़ाने में कारगार सिद्ध होता है। किसी भी कार्यालय की यह ज़िम्मेदारी है कि वह एक निष्पक्ष आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन करे। इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सभी कर्मचारियों को समिति के सदस्यों की जानकारी हो ताकि ऐसी स्थिति आने पर यह समिति सभी कर्मचारियों की पहुंच में हो। यौन हिंसा झेल रही महिलाओं की स्थिति को न केवल समझने की जरूरत है बल्कि ऐसा माहौल बनाने की जरूररत है जहां महिलाएं खुलकर अपनी आवाज़ बुलन्द कर पाए। तभी हम देश की आर्थिक विकास की गति को तेज कर सकते हैं और सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।

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तस्वीर साभार : bbc

Comments:

  1. Yogesh Huparikar says:

    <> प्रस्तुत लेख साझा करणे के लीये धन्यवाद…मुझे लगता है की पुरुषो की सहभागीता के लीये एक सकारात्मक आशावाद रखना और उसके तरफ संघटित कार्य के साथ आगे बढना बहुत जरूरी है| नाकारात्मक रूप से आगर हम पुरुषो के तरफ देखेंगे तो बदलाव मै काफी सारे दिक्खंते आयेगे|
    शुक्रिया

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