समाजख़बर जातिगत भेदभाव की ये दो घटनाएं हमारे समाज की सच्चाई बताती हैं

जातिगत भेदभाव की ये दो घटनाएं हमारे समाज की सच्चाई बताती हैं

हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है।

हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है। फिर चाहे वह भीड़ से किसी की हत्या कहे जाने वाली मॉब लिंचिंग हो, दहेज के लिए प्रताड़ित कोई महिला हो या जाति के आधार पर ऊंची जातियों का दलितों पर किए जाने वाले अत्याचार। आज का हमारा लेख ऐसी ही दो घटनाओं के बारे में जहां दलित समुदाय को ऊंची जाति के हाथों जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा है। ये घटनाएं आपको चांद से चमकते ‘मॉडर्न इंडिया’ में मौजूद उन दागों से अवगत कराएंगी जो दूर से भले ही नज़र न आते हो पर गहराई में उतरे तो यह काफी गंभीर समस्या मालूम पड़ती है।

ये खबर है ओडिशा के एक गांव की जहां एक ज्योति नाइक नाम की एक दलित लड़की द्वारा मात्र फूल तोड़ लेने से दलित जाति के चालीस परिवारों का बहिष्कार कर दिया गया। यह मामला ओडिशा के ढेनकनाल जिले के कांटियो केटनी गांव का है जहां एक 15 वर्ष की बच्ची ने ऊंची जाति के लोगों के बगीचे से एक फूल तोड़ लिया जिसके बाद नाराज़ ऊंची जाति के लोगों ने गांव के सभी दलित 40 परिवारों का सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया।

अखबार द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए लड़की के पिता निरंजन नाइक ने कहा कि उन्होंने तुरंत अपनी बच्ची की गलती के लिए माफ़ी मांग ली थी जिससे इस मसले को आसानी से सुलझाया जा सके। लेकिन उसके बाद गांव में एक बैठक बुलाई गई और गांव के लोगों ने वहां रह रहे सभी 40 दलित परिवारों का बहिष्कार करने का फैसला लिया। इतना ही नहीं दलितों ने आरोप लगाया है कि उन्हें गांव की सड़क पर शादी या अंतिम संस्कार आयोजन के लिए लोगों की भीड़ नहीं लगाने की चेतावनी दी गई है। यह भी कहा गया है कि दलित समुदाय के बच्चे स्थानीय सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ेंगे।

हमारे देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस समय में भी भारत के कई कोनों में से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है।

आरोप यह भी है कि स्कूल में पढ़ा रहे दलित समुदाय के शिक्षकों से कहा गया है कि वे अपना ट्रांसफर करवाकर कहीं और की पोस्टिंग ले लें। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक एक ग्रामीण ने बताया कि सार्वजनिक प्रणाली की दुकानों से उन्हें राशन तक नहीं दिया जा रहा है। किराने वाले भी उन्हें सामान नहीं दे रहे हैं। इस वजह से गांव के लोग पांच किलोमीटर दूर जाकर दूसरे गांव से राशन खरीद कर ला रहे हैं। यहां तक की ज्योति नाइक के गांव वाले उनलोगों से बात भी नहीं कर रहे हैं।

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इसी बीच एक खबर और स्वंतंत्रता दिवस के मौके पर सामने आयी थी जिसमे एक दलित पंचायत अध्यक्ष को झंडा फहराने से रोक दिया गया। आपको बता दें कि तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में तिरुवल्लुर जिले के अथुपक्कम गांव की 60 वर्षीय पंचायत प्रमुख वी अमुर्थम को 15 अगस्त के अवसर पर उन्हें एक सरकारी स्कूल में झंडा फहराने के लिए आमंत्रित किया गया था। हालांकि, बाद में उन्हें आने से मना कर दिया गया। दरअसल उन्हें बताया गया कि गांव के अन्य पंचायत सदस्य और इसके सचिव एक ऊंची जाति वन्नियार जाति के हैं और उन्होंने ही 15 अगस्त को पंचायत प्रमुख को झंडा फहराने की अनुमति नहीं दी थी। इसके बाद इस मामले का प्रशासन द्वारा संज्ञान लेते हुए पंचायत उपाध्यक्ष के पति और पंचायत सचिव को हिरासत में ले लिया गया। 15 अगस्त के पांच दिन बीत जाने के बाद यानी 20 अगस्त को वी अमुर्थम ने महिला अध्यक्ष ने जिला कलेक्टर और एसपी की मौजूदगी में झंडा फहराया।

ये दोनों ही घटनाएं समाज की उस बीमार मानसिकता को दर्शाती है जो संविधान में लिखी बातों को नकारने से जरा भी गुरेज नहीं करते क्योंकि सदियों से दिमाग में मौजूद वर्ण व्यवस्था का दीमक संविधान में लिखी बातों को भी मानने को तैयार नहीं होता। ये दोनों घटनाएं दर्शाती हैं कि हमारे समाज में जातिगत भेदभाव नाम का अपराध अब तक मौजूद है। शिक्षा व्यवस्था में बदलाव कर विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों को इस बारें में बताया जा सकता है जिससे आगे आने वाली पीढ़ी में इस तरह की मानसिकता न पनपे। संविधान में मौजूद अधिकारों को जन-जन तक पहुंचाया जाए। समाज की पहल ही जातिगत बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने में सहायक हो सकती है।

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तस्वीर साभार : thehindu

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