समाजकैंपस क्या नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति से खत्म होगी आर्ट्स और साइंस की लड़ाई ?

क्या नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति से खत्म होगी आर्ट्स और साइंस की लड़ाई ?

छात्रों, ख़ासकर लड़कों से साइंस और इंजीनियरिंग ही पढ़ने की उम्मीद करने के पीछे एक पितृसत्तात्मक मानसिकता भी काम करती है।

इस महीने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इस नई शिक्षा नीति में बताए गए बदलावों में से एक बदलाव यह बताया गया है कि अब छात्र नौंवी कक्षा के बाद ही अपनी रुचि के अनुसार विषय चुन सकेंगे। अब तक यह विकल्प ग्यारहवीं कक्षा के छात्रों को ही मिलता था। जहां आमतौर पर छात्रों को आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स में से कोई एक विषय-समूह या ‘स्ट्रीम’ चुनना पड़ता है, अब वे इन तीनों स्ट्रीम्स से अपनी पसंद के विषय चुन सकेंगे। यानी अब साइंस का छात्र गणित और रसायन विज्ञान के साथ इतिहास पढ़ पाएगा, कॉमर्स का छात्र अर्थशास्त्र के साथ साहित्य और राजनीति विज्ञान पढ़ पाएगा इत्यादि।

यह बदलाव अच्छा नज़र आता है क्योंकि छात्रों की प्रतिभा को इस तरह ‘स्ट्रीमों’ के बंधन में सीमित कर देने का कोई मतलब नहीं होता। साथ ही, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान जैसे विषय, जो आमतौर पर सिर्फ़ आर्ट्स के छात्र पढ़ते आए हैं, दरअसल हर इंसान को पढ़ने चाहिए। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के अध्ययन से ही हम छात्र से जागरूक नागरिक बन सकते हैं, वर्तमान परिस्थितियों की आलोचना और उनका विश्लेषण कर सकते हैं और सामाजिक परिवर्तन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में आर्ट्स या ह्यूमैनिटीज़ के विषयों की कोई कद्र नहीं है। साइंस, ख़ासकर इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे विषयों पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है। ज़्यादातर अभिभावकों की यही इच्छा होती है कि उनके बच्चे साइंस के स्ट्रीम में पढ़ाई करने के बाद आईआईटी जैसे किसी बड़े संस्थान में इंजीनियरिंग पढ़ें और फिर विदेश की किसी बड़ी कंपनी में अच्छी नौकरी पाकर वहीं बस जाएं। बचपन से छात्रों को यह सिखा दिया जाता है कि साइंस के विषयों में ही ज़्यादा ‘स्कोप’ है और आर्ट्स पढ़ने के बाद नौकरी मिलने की संभावना नहीं है।

इस तरह की सोच में कई गलतियां हैं। पहली बात तो यह है कि आर्ट्स के विषयों से संबंधित अनगिनत करियर विकल्प हैं। एक वकील, पत्रकार, लेखक, या अध्यापक किसी भी तरह से एक डॉक्टर या इंजीनियर से कम सफल या कम सम्मान-योग्य नहीं है। साथ ही, आज की पीढ़ी के पास रोज़गार के ऐसे बहुत सारे नए विकल्प हैं, कुछ सालों पहले भी जिनकी कल्पना करना असंभव था। एक ब्लॉगर, आंत्रप्रेन्योर, या सोशल मीडिया मार्केटर आराम से अपनी जीविका कमा सकता है और इन करियरों के लिए इंजीनियरिंग या एमबीए की डिग्री की भी ज़रूरत नहीं है।

दूसरी बात यह है कि पढ़ाई करने का एकमात्र लक्ष्य अच्छी नौकरी पाना और पैसे कमाना नहीं हो सकता। पढ़ाई से अगर सामाजिक जागरूकता, बौद्धिक विकास और चरित्र गठन न हो तो ऐसी पढ़ाई किसी काम की नहीं है। अगर इंजीनियरिंग पढ़ने के बाद अच्छी नौकरी मिलती है तो लॉ, पत्रकारिता, राजनीति विज्ञान पढ़ने से इंसान बाहर की दुनिया और उसकी परिस्थितियों के बारे में जागरूक होता है, जो नौकरी और सफलता जितनी ही ज़रूरी है। 

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छात्रों, ख़ासकर लड़कों से साइंस और इंजीनियरिंग ही पढ़ने की उम्मीद करने के पीछे एक पितृसत्तात्मक मानसिकता भी काम करती है। आमतौर पर यह उम्मीद की जाती है कि मर्द ही अपने परिवार के लिए कमाएगा, जिसकी वजह से उसे ऐसी नौकरियां करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिनमें सफलता ज़्यादा मिलें, जैसे इंजीनियर की नौकरी। लोगों के मन में यह ग़लत धारणा भी रहती है कि गणित और विज्ञान के विषयों में लड़के लड़कियों से ज़्यादा तेज़ हैं। विज्ञान को इसलिए ‘मर्दों का क्षेत्र’ माना जाता है और इंजीनियरिंग कॉलेजों में महिला छात्राओं की कमी नज़र आती है।

पढ़ाई करने का एकमात्र लक्ष्य अच्छी नौकरी पाना और पैसे कमाना नहीं हो सकता। पढ़ाई से अगर सामाजिक जागरूकता, बौद्धिक विकास और चरित्र गठन न हो तो ऐसी पढ़ाई किसी काम की नहीं है।

आज भी कई जगहों में लड़कों को इंजीनियर बनने के लिए कहा जाता है पर लड़कियों के क्षेत्र में स्कूल या कॉलेज के बाद ही उनकी शादी करवा दी जाती है, या ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें स्कूल की टीचर या नर्स का काम करने की अनुमति दी जाती है। उम्मीद है साइंस और आर्ट्स के बीच इस विभाजन के ख़त्म होने के साथ-साथ विषयों में इस लैंगिक भेदभाव का भी अंत हो जाएगा, जब ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियां साइंस के विषय चुनेंगी और लड़के आर्ट्स के विषय चुनेंगे।

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शिक्षा को जब सिर्फ़ रोज़गार के नज़रिये से देखा जाता है और लिंग, जाति, वर्ग के आधार पर उसका बंटवारा किया जाता है, तो दरअसल यह शिक्षा के साथ और विद्यार्थियों के प्रति बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी है। जहां शिक्षा का काम है हमें हर तरह की संकीर्ण मानसिकता से मुक्त करना, शिक्षा व्यवस्था पर यही संकीर्णता थोपना उसकी गरिमा को छोटा करने के सिवा और कुछ नहीं है। हमें ज़रूरत है छात्रों को हर तरह की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने की और यह समझने की कि हर अध्ययन क्षेत्र का हमारे समाज में अलग स्थान है। कोई भी विषय या क्षेत्र सिर्फ़ इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो जाता क्योंकि बाज़ार में उससे संबंधित ज़्यादा नौकरियां उपलब्ध हैं। उम्मीद है नई शिक्षा नीति आर्ट्स और आर्ट्स के विषयों में यह गलत धारणाएं दूर करने में सक्षम होगी और छात्रों को सामाजिक आलोचना की परवाह किए बिना अपने पसंद के विषय चुनने और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेगी।

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तस्वीर साभार : thedailystar

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