स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य कोरोना महामारी के दौरान कहीं पीछे छूट न जाए महिला स्वास्थ्य के मुद्दे

कोरोना महामारी के दौरान कहीं पीछे छूट न जाए महिला स्वास्थ्य के मुद्दे

हमारी सामाजिक संरचना ही ऐसी है जिसमें महिलाओं को अपनी शारीरिक समस्या पर सबके सामने बात करने की इजाज़त नहीं होती है।

महिला स्वास्थ्य एक ऐसा मुद्दा है जिस पर आज भी हमारे समाज में खुलकर बात नहीं की जाती है। हमारी सामाजिक संरचना ही ऐसी है जिसमें महिलाओं को अपनी शारीरिक समस्या पर सबके सामने बात करने की इजाज़त नहीं होती है। खुलकर बात ना कर पाने का सबसे बुरा असर महिलाओं के प्रजनन और यौन स्वास्थ्य पर पड़ता है।प्रजनन स्वास्थ्य का तात्पर्य है कि पुरुषों और महिलाओं को एक बच्चे के जन्म से संबंधित की सुरक्षित, प्रभावी, सस्ती और स्वीकार्य विधियों के बारे में जानकारी होना। गर्भावस्था एवं प्रसव के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य पर खासकर ध्यान देना और साथ ही उचित स्वास्थ्य सेवाओं और जानकारियों का उन तक आसानी से पहुंच पाना। 

जेंडर महिला स्वास्थ्य के मुख्य सामाजिक निर्धारकों में से एक है- जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक शामिल हैं, जो भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी प्रकार भारत में लैंगिक असमानता का महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। जो महिलाएं समाज के जितने निचले तबके से आती हैं उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने में उतनी ही ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कोरोना महामारी ने लैंगिक आसमानता को और भी ज्यादा बढ़ा दिया और साथ ही महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य को हाशिये पर ला धकेला है। कोरोना संकट के कारण बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं परिवार नियोजन के साधनों तक पहुंच नहीं पा रही हैं जिसकी वजह से लगभग 18 लाख महिलाएं अपने अनचाहे गर्भ को समाप्त कराने से वंचित रह गई हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund) की निदेशक नतालिया कानेम ने मार्च में ही कहा था कि कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में महिलाओं और लड़कियों के प्रजनन और यौन स्वास्थ्य पर भयावह प्रभाव पड़ने वाले हैं। उन्होंने आगे कहा कि यह महामारी समाज के बीच भेदभाव को और भी ज्यादा गहरा कर रही है। 

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भारत में, परिवार नियोजन और प्रसव को अभी भी महिलाओं की जिम्मेदारी के रूप में देखा जाता है। भारत के ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करने में सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसकी मुख्य वजहें हैं- इस्तेमाल करने की जानकारी का अभाव, गर्भधारण को लेकर चली आ रही रूढ़िवादी परंपराएं और साथ ही आधुनिक गर्भ निरोधकों तक उनकी सीमित पहुंच। गर्भनिरोधक के बारे में जागरूकता परिवार नियोजन की सबसे बुनियादी ज़रूरतों में से एक है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 2015-16 के आंकड़ों के अनुसार भारत में गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करने वाली सिर्फ 17.7 फ़ीसद शादीशुदा महिलाओं को गर्भ निरोधक के सारे विकल्पों के बारे मे जानकारी दी गई थी। भारत में 46.6 फ़ीसद महिलाओं को गर्भनिरोधक के इस्तेमाल और उससे उनके शरीर में होने वाले दुष्परिणामों के बारे में जानकारी नहीं है।

कोरोना महामारी ने लैंगिक आसमानता को और भी ज्यादा बढ़ा दिया और साथ ही महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य को हाशिये पर ला धकेला है।

भारत में अनचाहा गर्भपात मांओं की मौत की तीसरी सबसे बड़ी वजह है। इसके साथ ही महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान अनिमिया होना भारत में बहुत बड़ा स्वास्थ्य संकट है। वैश्विक स्तर पर गर्भावस्था के दौरान अनिमिया से ग्रसित औरतों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है जिसकी मुख्य वजह है शरीर में आयरन की कमी होना। बात अगर कोरोना वायरस लॉकडाउन की करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने दिशा-निर्देश में इस बात पर ख़ासा ध्यान दिया था कि प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं आवश्यक सेवाओं के अंतर्गत आनी चाहिए इसके बावजूद सैनिटरी नैपकिन, कंडोम और गर्भनिरोधक दवाओं को जरूरी समान की सूची में नही रखा गया। एक रिपोर्ट के अनुसार आपूर्ति श्रृंखला में कमी आने की वजह से मार्च से सितंबर के बीच लगभग 25 करोड़ दंपति गर्भनिरोधक के इस्तेमाल से वंचित रह जाएंगे। परिवार नियोजन संघ सर्वेक्षण की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार-

20 साल से कम उम्र की महिलाओं की 14 फीसद प्रेग्नेंसी अनचाही होती है। 

34 फीसद किशोरावस्था की शादीशुदा लड़कियों ने इस बात को स्वीकार किया कि उनके साथ शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण हुआ है। 

15-19 वर्ष की 50 फीसद से ज्यादा लड़कियों की मौत की वजह असुरक्षित गर्भपात है। 

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घरेलू हिंसा और महिला स्वास्थ्य

घरेलू हिंसा वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा है। घरेलू हिंसा की वजह से महिलाओं के शारीरिक, मानसिक, यौन औप प्रजनन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन  के अनुसार किसी भी आपातकाल स्थिति और महामारी के दौरान ख़ास कर महिलाओं के साथ हिंसा की घटना बढ़ जाती है। कोरोना महामारी की वजह से हुए लॉकडाउन के बाद से घरेलू हिंसा के मामले में दस गुना ज्यादा वृद्धि हुई है। घर हर किसी के लिए ‘सुरक्षित जगह’ नहीं होता है। हिंसा के आरोपी के साथ घर में कैद होकर रहना बहुत सी महिलाओं की ज़िंदगी को और भी ज्यादा मुश्किल बना देता है।

पुरुषों के लिए सबसे आसान ज़रिया होता है औरतों के ऊपर अपनी फ्रस्टेशन निकालना जिसकी वजह से घरेलू हिंसा के मामले में बढ़ोतरी होती है। घरों मे रहने के कारण अपने साथ हो रही हिंसा को रिपोर्ट करने और उससे बाहर निकलने में लॉकडाउन के दौरान महिलाओं को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा। उसपर से गर्भावस्था में हुई वृद्धि इस बार का प्रमाण है कि कैसे आज भी औरतों का ख़ुद के शरीर पर और प्रजनन पर पूर्ण अधिकार नहीं है। गर्भावस्था के दौरान होने वाली हिंसा महिला एवं उसके पेट में पल रहे बच्चे की जान के लिए बहुत खतरनाक साबित होता है। हमें इस बात को समझने की आवश्यकता है कि किसी भी प्रकार की महामारी के दौरान औरतों के प्रजनन स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। जब तक महिलाओं का स्वास्थ्य सुरक्षित नहीं रहेगा तब तक हम देश के उज्ज्वल भविष्य की कामना नहीं कर सकते हैं।

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तस्वीर साभार : thehindu

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