समाजख़बर कोरोना महामारी के दौरान बढ़ती बाल-विवाह की समस्या

कोरोना महामारी के दौरान बढ़ती बाल-विवाह की समस्या

समस्या का असली समाधान लड़कियों को शिक्षित करने में है, उन्हें उनके पैरों पर खड़े करने में हैं, उन्हें काबिल बनाने में हैं। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक लड़कियां बोझ ही समझी जाएंगी और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं हमारे समाज से कभी खत्म नहीं होंगी।

कोविड -19 की महामारी के इस दौर में भारत में बाल विवाह के मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। अप्रैल में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में अगले एक दशक में 1 करोड़ 30 लाख अतिरिक्त बाल विवाह होंगे। इसका असर अभी से ही भारत में दिखने लगा है। साल 2019 की यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में सबसे ज्यादा बाल दुल्हनें, करीब 2 करोड़ 30 लाख भारत में ही हैं। कोविड -19 की वजह से कितने ही लोगों की नौकरियां चली गई, आमदनी के सारे साधन बंद हो गए। गरीब आदमी और गरीब होते जा रहे हैं। जिसका नतीजा यह हुआ कि बाल विवाह जैसी कुप्रथा एक बार फिर से समाज में अपनी पकड़ मजबूत कर रही है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) के मुताबिक जहां भारत में समय के साथ बाल विवाह के मामलों में कमी आई थी, उन सारे फायदों पर कोविड-19 ने पानी फेर दिया है। मार्च से जून के बीच, इन बाल विवाहों को रोकने के लिए, केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधिकारियों को 5,584 फोन कॉल्स आई। इसके अतिरिक्त, राज्य सरकारों और गैर-सरकारी संगठनों से भी बाल विवाह के मामलों को रोकने के लिए मदद की गुहार लगाई गई। ऐसा माना जा रहा है कि महामारी के इस दौर में ढेरों बाल विवाह हुए जिनके बारे में सरकारों और संस्थाओं को पता ही नहीं चला।      

बाल-विवाह के मामले बढ़ने के पीछे कई सारी वजहें बताई जा रही हैं। सबसे पहले तो यह कि महामारी के इस दौर में बाल-विवाह करवाने का फायदा यह रहा कि पकड़े जाने की संभावनाएं बहुत कम हैं क्योंकि सरकारें और संस्थाएं वैसे भी कोरोना महामारी से जुड़ी ज़िम्मेदारियां पूरी करने में लगी हुई हैं। देश में जब लगभग हर तीसरे आदमी की सच्चाई गरीबी और बेरोज़गारी है, ऐसे में उन्हें छोटी उम्र में ही बेटियों की शादी करना एकमात्र उपाय सूझ रहा है। इसके अतिरिक्त, कोरोना ने जब लगभग हर आदमी को आर्थिक रूप से कमज़ोर कर दिया है, उस दौर में इस रूढ़िवादी परंपरा के अनुसार बेटी को ब्याहने का मतलब है अपनी खर्चे की एक वजह को खत्म करना। कोरोना के दौरान स्कूले बंद होने की वजह से मिड-डे मील की सुविधा भी बंद हो गई। जिससे मां-बाप पर एक और खर्चे की मार पड़ रही है। नतीजतन, उन्होंने लड़कियों को ब्याह दिया और लड़कों को काम पर भेजना शुरू कर दिया। इसलिए इस दौर में बाल-मज़दूरी की समस्या भी सिर उठाने लगी हैं। लोग डरे हुए हैं और वे किसी भी तरीके से अपनी जिम्मेदारियां कम/ खत्म करना चाहते हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि कोराना वायरस और लॉकडाउन के कारण उपजी आर्थिक परेशानियों ने लोगों को मजबूर किया अपनी छोटे-छोटे बच्चों का विवाह करने के लिए। 

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समस्या का असली समाधान लड़कियों को शिक्षित करने में है, उन्हें उनके पैरों पर खड़े करने में हैं, उन्हें काबिल बनाने में हैं। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक लड़कियां बोझ ही समझी जाएंगी और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं हमारे समाज से कभी खत्म नहीं होंगी।

कोरोना के दौरान बढ़ती हुई आर्थिक परेशानियां इस कुरीति के बढ़ने की एक बहुत बड़ी वजह है। लेकिन इसी के साथ, और भी कुछ और कारण है जो इस समस्या के लिए जिम्मेदार है और वह है हमारे समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता और पितृसत्ता। हमारे समाज में आज भी भी लड़कों की तुलना में लड़कियों को कम आंकते हैं। लड़कियों को कम इसलिए आंका जाता है क्योंकि उनकी शादी के वक़्त माता-पिता की जीवन भर की कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा उनके दहेज़ में चला जाता है। इस दहेज़ के साथ-साथ, शादी का एक बहुत बड़ा खर्चा भी लड़की के मां-बाप को उठाना पड़ता है। सार में कहे तो, लड़की के जन्म के साथ ही यह पितृसत्तात्मक समाज मां-बाप पर आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ डाल देता है, इसलिए वे उन्हें बेटों की तुलना में कम आंकते है। जबकि दहेज लेना और देना दोनों ही कानूनन जुर्म है।

इसके अतिरिक्त, मां-बाप को यह भी लगता है कि बेटी तो शादी के बाद अपने पति के घर चली जाएगी, बुढ़ापे में तो बेटा ही सेवा करेगा। सदियों से चली आ रही इस रूढ़िवादी सोच के कारण ही लड़कियों की तुलना में लड़कों को अधिक तवज्जो दी जाती है। इन सब का नतीजा यह होता है कि महिलाओं और लड़कियों को परिवार, समाज, देश, दूसरे दर्जे के व्यक्ति की भांति देखता है। ये सब बोलकर नहीं बताया जाता, बल्कि बाल विवाह, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या जैसी कुप्रथाओं के द्वारा बताया जाता है।

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ऐसा नहीं हैं कि इस कुप्रथा को रोकने के लिए हमारे देश में कोई कानून नहीं हैं। कानून है- बाल-विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 जिसके तहत जो भी अभिभावक अपनी कम उम्र के बच्चों की शादी करवाते है, उन्हें जुर्माने के अतिरिक्त 2 साल तक की सज़ा भी हो सकती है। लेकिन बाकि मुद्दों की तरह, यहां पर भी वही बात है, सिर्फ कानून बनाने से तो कुछ नहीं होता, उसे अमल में लाना भी तो ज़रूरी है। साल 2018 के आपराधिक आंकड़ों के मुताबिक बाल-विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 के अंतर्गत 501 हादसे रिकॉर्ड किए गए। इस मुद्दे पर काम कर रहे कार्यकर्ता ये भी मानते हैं कि जेल में भेजना या सजा देना ही सही उपाय नहीं है। वे कहते हैं, “आखिर कितने अभिभावकों को हम जेलों में भरेंगे?”  

वे ये भी मानते हैं कि समस्या का असली समाधान लड़कियों को शिक्षित करने में हैं, उन्हें उनके पैरों पर खड़े करने में हैं, उन्हें काबिल बनाने में हैं। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक लड़कियां बोझ ही समझी जाएंगी और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं हमारे समाज से कभी खत्म नहीं होंगी। कोविड -19 तो बस एक बहाना है, असली जड़ तो हमारी सोच है जो आज भी बेटी को एक बोझ ही मानती है। कोविड -19 का कहर तो कभी न कभी खत्म हो जाएगा, लेकिन अगर हमने हमारी दकियानूसी सोच को नहीं बदला तो बाल-विवाह जैसी समस्या हमारे देश से कभी खत्म नहीं हो पाएगी।

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तस्वीर साभार : The Leaflet

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