इंटरसेक्शनलजेंडर महिला प्रोफ़ेसर का सवाल : हमारे पदनाम में वैवाहिक स्थिति का ज़िक्र क्यों | नारीवादी चश्मा

महिला प्रोफ़ेसर का सवाल : हमारे पदनाम में वैवाहिक स्थिति का ज़िक्र क्यों | नारीवादी चश्मा

महिला प्रोफ़ेसर प्रतिमा गोंड का शिक्षण संस्थान की कार्य-प्रणाली में बसी पितृसत्तात्मक सोच को उजागर कर सुधार की अपील करना स्वागत योग्य है।

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की महिला प्रोफ़ेसर प्रतिमा गोंड ने यूनिवर्सिटी को एक ई-मेल लिखा है और इस ई-मेल में उन्होंने शिक्षा जगत के जिस पहलू को उजागर करने की कोशिश की है, वो हो सकता है आपको सामान्य लगे, जो वास्तव में सामान्य नहीं है। ख़ैर इसबात पर चर्चा से पहले आइए जानते है कि उन्होंने अपने इस ई-मेल में क्या लिखा है –

आदरणीय कुलपति महोदय,

काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

महोदय,

         अत्यंत विनम्रतापूर्वक मैं आपके समक्ष अपना एक आग्रह प्रस्तुत करना चाहती हूं जिस पर आपके द्वारा विचार करने की अपेक्षा है।
महोदय, वर्तमान समय में हम सभी एक ऐसे संस्थागत ढांचे की पृष्ठभूमि तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं जिसमें नाम,पदनाम, कार्य विभाजन,शिक्षा, व्यवसाय इत्यादि जेंडरविहीन तरीके से निर्धारित हो। इसी परिप्रेक्ष्य में हमें आपका ध्यान  इस बिंदु पर आकर्षित करना है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में किए जाने वाले कार्यप्रणाली अथवा पत्राचारों में ( जैसे – सीनियारिटी लिस्ट)में Male Teaching Staff के नाम के आगे मात्र Dr. or Prof. लिखा होता है एवं उनकी वैवाहिक स्थिति का कोई जिक्र नहीं होता है परंतु Female Teaching Staff के नाम के पूर्व Dr. लिखने के पश्चात Ms. or Mrs. लिखा होता है। महानुभाव, मुझे यह व्यक्तिगत रूप से लगता है कि हम सभी के नाम के आगे हमारी वैवाहिक स्थिति अथवा हमारी पहचान स्त्री या पुरुष के रूप में इंगित करना बहुत आवश्यकता नहीं लगता है। यहाँ हम सभी की पहचान एक व्यक्ति एक कर्मचारी के रूप में होनी चाहिए, अगर कहीं लिंग निर्धारित करने की आवश्यकता हो तो उसके लिए अलग से जेंडर का कॉलम भी बनाया जा सकता है ।अतः हमारा नाम भी वैसे ही लिखा जाना चाहिए हमारे मेल कलीग का नाम लिखा होता है। इसी प्रकार अधिकतम विभागों के नोटिस बोर्ड या नेम प्लेट पर फीमेल एंप्लॉय का नाम उनकी वैवाहिक स्थिति के आधार पर लिखा जाता है। उदाहरण के तौर पर मैं महिला महाविद्यालय को प्राप्त सीनियारिटी लिस्ट की कॉपी इसमें अटैच कर रही हूँ।

महोदय, इस संदर्भ में आपसे निवेदन है की यदि आपको मेरा पक्ष उचित लगे कृपया इसमें सुधार की कृपा करें।

धन्यवाद

डॉक्टर प्रतिमा गोंड (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर)

समाजशास्त्र अनुभाग    

तस्वीर साभार : प्रतिमा गोंड

महिला प्रोफ़ेसर डॉक्टर प्रतिमा गोंड ने बताया कि उन्होंने यह ई-मेल विश्वविद्यालय के कुलपति को बीते नौ नवंबर को लिखा था। उन्होंने आगे बताया कि,’जब उन्होंने अपने साथियों के साथ इसे साझा किया तो उन्होंने इसे हंसकर टाल दिया और कहा ये फ़ालतू सवाल है।’ हमारे देश में गुरु को ईश्वर से भी ऊपर का दर्जा दिया जाता है, क्योंकि किसी भी इंसान की ज़िंदगी को आकार देने का काम गुरु करता है। गुरु की शिक्षा ही इंसान के अंदर सोचने-समझने और चीजों को देखने का नज़रिया विकसित करती है। पर हमें ये याद रखना होगा कि इस शिक्षा के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हो सकते है। कई बार हम शिक्षा से और शिक्षा हमसे या हमारे सामाजिक परिवेश से प्रभावित होती है, क्योंकि इंसान के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले गुरु किसी दूसरे ग्रह नहीं बल्कि हमारे बीच से ही होते है और इसे हम यहाँ साफ़-साफ़ देख सकते है। जैसे हमें अक्सर हमें घर और आसपास में लैंगिक भेदभाव और हिंसा का स्वरूप सामान्य लगता है, क्योंकि हमने उसी के अनुसार ढाला गया है और हमें कोई समस्या नज़र नहीं आती है। लेकिन जब हम तर्कों से रीति-रिवाज और कार्य-प्रणाली की तह में जाने लगते है तो हिंसा और भेदभाव की परतें खुलती जाती है।

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डॉक्टर प्रतिमा ने अपने ई-मेल के माध्यम से शिक्षा जगत के जिस महीन से दिखने वाले लैंगिक भेदभाव को पहलू को उजागर किया है, उसकी जड़ें पितृसत्ता की विचारधारा से सीधेतौर ओर पर जुड़ी हुई है। वही पितृसत्ता जो महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंकती है। जो किसी भी क़ीमत पर महिलाओं को पुरुषों के बराबर नहीं होने देना चाहती है। बदलते समय के साथ पितृसत्ता का विस्तार कभी फ़ोर्मल तो कभी ग्लैमर के रूप में अपने रंग को बदलता है, लेकिन अब रंग चाहे जितने भी बदले पर इससे मूल नहीं बदलता है। नतीजतन ये इस सोच से आज कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है।

हमें याद रखना चाहिए कि कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र-छात्रा से यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर बनने के लिए बनायी गयी प्रक्रिया में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया गया। दोनों के लिए मेहनत के रास्ते बराबर के बनाए गए, तो फिर समान मेहनत के बाद भी महिला के अस्तित्व को उसकी वैवाहिक प्रस्थिति से चिन्हित करना कहीं से तार्किक नहीं हो सकता है पर ये पितृसत्तात्मक ज़रूर है, जिसे तत्काल बदलने की ज़रूरत है। ये छोटी-सी दिखने वाली बातें ही है जो शिक्षण संस्थान में पितृसत्तात्मक सोच को बनाए रखने में अहम भूमिका अदा करती है, इसलिए ज़रूरी है कि इन पहलुओं को उजागर इनमें सुधार किया जाए।

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कहते है दुनिया से लड़ना, उससे सवाल करना आसान होता है, लेकिन अपने घर (जिस जगह में आप हैं) में लड़ना-आवाज़ उठाना सबसे मुश्किल होता है। ऐसे में बतौर महिला प्रोफ़ेसर प्रतिमा गोंड का शिक्षण संस्थान में रहते हुए यहाँ की संरचना और कार्य-प्रणाली में बसी पितृसत्तात्मक सोच को उजागर कर उनमें सुधार की अपील करना स्वागत योग्य है और इस पहल से प्रेरणा लेकर देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी ऐसी माँगें उठनी चाहिए और सुधार किए जाने चाहिए। क्योंकि ये सवाल और उनपर होने वाले सुधार ही आने वाले समय में शिक्षण संस्थान में लैंगिक संवेदनशीलता और समानता की नीव रखेंगे और सकारात्मक सामाजिक बदलाव के लिए मील के पत्थर साबित होंगें।

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तस्वीर साभार : thequint

Comments:

  1. saroj mishra says:

    उत्तम प्रश्न प्रतिमा जी।

  2. Umalaxmi says:

    जी सही कहा आपने। मैं भी इस बात से सहमत हूं।

  3. Harinath Ranjan says:

    अनुमानित 50% जनसंख्या महिलाओं की हैं जिन्हें समाज के मुख्य धारा से विमुख कर दिया गया वो भी एक सुनियोजित सोची-समझी साज़िश के तहत।
    विडम्बना तो देखिये महिलाओं को इल्म हीं नहीं, उनके अस्तित्व को किस मोड़ पे ला खड़ा कर दिया हैं इस क्रूर पुरुष सत्तात्मक वर्चस्व नें!

    जहाँ तक मेरा मानना हैं, एक महिला पुरुष के बगैर अपनी ज़िन्दगी व्यवस्थित ढंग से स्वतंत्र हो कर जी सकने में पूरी तरह सक्षम हैं पर एक पुरुष के लिए बेहद कठिन।

    बावज़ूद इसके महिलाएं अधीनता की काली साया में जीने को विवश हैं या विवश कर दिया गया हैं। जो जिस सतह पे हैं अधीन हैं। कम-ओ-ज्यादा समूचे विश्व में महिलाओं की यहीं स्थिति हैं पर हमारे देश हिंदुस्तान में स्थिति भयावह हैं।

    आपके द्वारा उठाये सराहनीय कदम के लिए शुक्रिया.. 🙏

    HARINATH RANJAN

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