नारीवाद मज़ाक़ के रिश्ते से बढ़ती बलात्कार की संस्कृति| नारीवादी चश्मा

मज़ाक़ के रिश्ते से बढ़ती बलात्कार की संस्कृति| नारीवादी चश्मा

ज़रूरी है ऐसे हर ‘मज़ाक़ के रिश्ते और उसके व्यवहार’ का विरोध किया जाए, जो महिलाओं के विरुद्ध यौनिक हिंसा को सामान्य बनाते है।

रीमा (बदला हुआ नाम) और आदित्य (बदला हुआ नाम) ने लव मैरिज की थी। यूपी की रीमा और बिहार के आदित्य की मुलाक़ात कॉलेज के टाइम पर हुई थी। उनके रिश्ते के बारे में घर वालों को मालूम था। आदित्य तथाकथित ऊँची जाति से था और रीमा पिछड़ी जाति से। इसलिए मान-प्रतिष्ठा के नामपर शादी में आदित्य के घरवाले शामिल नहीं हुए। पर दोनों परिवारों में संबंध अच्छे थे। रीमा से ससुराल के लोगों की बात होती और अक्सर ननदोई का भी फ़ोन आता, लेकिन मज़ाक़ के नामपर उनकी यौनिक टिप्पणियाँ रीमा को हमेशा परेशान करती और वो हमेशा चुप हो जाती। रीमा की चुप्पी से ननदोई का मन बढ़ता और मज़ाक़ निचले स्तर पर जाने लगा। आख़िरकार रीमा ने आदित्य को इसके बारे में बताया जिसके बाद से आदित्य के घरवालों ने रीमा से बात करना बंद कर दिया, ये कहते हुए कि ‘पिछड़ी जात से है। ज़्यादा नाज़ुक बन रही है। आख़िर सरहज और ननदोई तो मज़ाक़ के रिश्ते होते है।’

आजकल हमलोग आए दिन समाज में बलात्कार और यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनायें देख रहे है। क्या गाँव और क्या शहर, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा मानो अपनी संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। हर बार हाथरस और निर्भया रेप जैसी घटनाओं के बाद हम सरकार को घेरते है और क़ानून-व्यवस्था व प्रशासन पर ऊंगली उठाते है, लेकिन इसमें अपनी भागीदारी कभी नहीं देखते या देखना ही नहीं चाहते है। कई रिपोर्ट में सामने आया है कि यौन हिंसा से जुड़े अधिकतर मामलों में किसी जान-पहचान और कई बार परिवारवालों का हाथ होता है। ऐसे में ‘परिवार’ जो समाज की पहली इकाई है उसकी संरचना, व्यवस्था और वैचारिकी ही समाज की दिशा और दशा तय करती है, क्योंकि यौन हिंसा करने वाले पुरुष किसी प्रशासन या सरकारी योजना से नहीं बल्कि हमारे अपने परिवार-समाज में तैयार किए जाते है और ये तैयारी होती है हमारे आसपास के माहौल में। वो माहौल जिसकी हवा में पितृसत्ता बहती है, जो हमेशा महिला-पुरुष में भेद करना और पुरुष को सत्ताधारी बताने का काम करती है।

रीमा कोई अकेली नहीं जिसे रिश्ते के नामपर यौनिक हिंसा का सामना करना पड़ा। हमारे समाज में ‘जीजा-साली’ और ‘देवर-भाभी’ जैसे तमाम ऐसे रिश्ते है जिनको ‘मज़ाक़ का रिश्ता’ कहा जाता है। यानी वो रिश्ते जहां पुरुषों की तरफ़ से किया जाने वाले किसी भी तरह के बात-व्यवहार को बुरा मानना या उनका इनकार करना रिश्तों की तौहीन समझा जाता है। जब भी हम समाज में बलात्कार की संस्कृति की बात करते है तो ज़रूरी है कि हम ऐसे रिश्तों के नामपर होने वाली यौन हिंसाओं को उजागर कर उनका विश्लेषण करें। क्योंकि ये रिश्ते ही तो है जो पुरुष की यौन कुंठाओं वाले भद्दे-फूहड़ मज़ाक़-व्यवहार को सामान्य और महिला की सहमति उसकी ‘ना’ को बग़ावत के रूप में परिभाषित कर, उन्हें ‘बुरी औरत’ के पाले में खड़े कर देते है।

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ऐसे रिश्तों का सबसे वीभत्स रूप अक्सर शादी के बाद देखने को मिलता है, जब महिला शादी होकर अपने ससुराल जाती है और उसके ऊपर हर पल ख़ुद को आदर्श बहु साबित करने का दबाव बनाया जाता है तो ऐसे में ‘मज़ाक़ वाले रिश्ते’ के नामपर यौन कुंठित पुरुष अपनी कुंठा को मिटाने के लिए सबसे ज़्यादा हाथ धोते है। उन्हें ये मालूम होता है कि महिला ‘इज़्ज़त’ और ‘रिश्ते’ के नामपर ‘ना’ नहीं कह सकती, किसी से शिकायत नहीं कर सकती और अगर कह भी दिया तो दोष उसी पर दिया जाएगा, ये कहते हुए कि उसने किसी कुंठित इंसान का नहीं बल्कि परिवार के दमाद, बेटे या भतीजे का अपमान किया है। हो सकता है ये आपको सामान्य लगे, तो बता दें इसकी दो वजहें हो सकती है – एक तो ये कि आप विशेषाधिकारी है, जिन्हें कभी भी ऐसे किसी रिश्तेदार का सामना नहीं करना पड़ा। और दूसरा – आप इन ‘मज़ाक़’ के इतने अभ्यस्त हो है कि इसमें कोई बुराई नहीं लगती आपको, बल्कि ये आपको संस्कृति लगती है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी परिवार में ऐसे रिश्तेदार का व्यवहार परिवार में यौन हिंसा से पीड़ित महिला को ही नहीं बल्कि बच्चों के भी ऊपर बुरा असर डालता है, क्योंकि जाने-अनजाने उनके मन में भी उस रिश्ते के नामपर छवि बन रही होती है, जिसका मूल होता है – नकारात्मक मर्दानगी। यानी कि पुरुष जो भी चाहे और जैसे भी चाहे महिला के साथ व्यवहार करे ये उसका अधिकार है और महिला उसको ‘ना’ नहीं कह सकती है। अगर वो ऐसा करती है तो वो अच्छी औरत नहीं होगी।

ज़रूरी है ऐसे हर ‘मज़ाक़ के रिश्ते और उसके व्यवहार’ का विरोध किया जाए, जो महिलाओं के विरुद्ध यौनिक हिंसा को सामान्य बनाते है।

जिस रिश्ते में सम्मान नहीं वो स्वीकार नहीं

अगर आप वाक़ई में महिला के ख़िलाफ़ बढ़ती यौन हिंसा से परेशान है और इसे रोकना चाहते है तो इसकी शुरुआत अपने घर-परिवार और रिश्तों से कीजिए। क्योंकि हो सकता है छोटे देवर के नामपर एक पुरुष ने अपनी भाभी के साथ जो भी यौनिक टिप्पणियाँ और व्यवहार किया हो उसका ज़वाब भाभी ने अपनी चुप्पी से दिया, जिसे पुरुष ने उनकी सहमति मान ली और महिलाओं के प्रति ऐसा व्यवहार उसके लिए सामान्य होता गया, जो बलात्कार की संस्कृति का हिस्सा है। इसी संस्कृति का नतीजा इसलिए ज़रूरी है ऐसे हर ‘मज़ाक़ के रिश्ते और उसके व्यवहार’ का विरोध किया जाए, जो महिलाओं के विरुद्ध यौनिक हिंसा को सामान्य बनाते है। इसी संस्कृति का नतीजा है कि पुरुषों के लिए यौन उत्पीड़न करना सामान्य होता जाता है और जैसे ही उन्हें कोई महिला ‘ना’ कहती है तो वो बलात्कार और एसिड अटैक जैसे घटनाओं जैसे अपराधों को भी अंजाम देते है। इसके साथ ही, महिला की सहमति उसके ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने के अधिकार को समझे और स्वीकारें।

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क्योंकि जब हम महिलाओं के विरुद्ध होने वाली यौनिक हिंसाओं का विश्लेषण करते है तो अक्सर यही पाते है कि ये हिंसा ‘बदले’ की भावना से की जाती है और ‘बदला’ इस बात का उसने मुझे ‘ना’ कैसे कह दिया। ये विचार ही हर यौन हिंसा का मूल है, जिसे हमलोगों ने अपने पितृसत्तात्मक भारतीय समाज के पुरुषों को बनाते समय उनकी संरचना में शामिल किया है। इसलिए पुरुषों को महिला की ‘सहमति’ न तो सुनाई देती है और न समझ में आती है। इसलिए ज़रूरी है कि ‘सहमति’ के विचार को समझकर उसे अपने व्यवहार में लागू किया जाए और अपने घर-परिवार में भी इसे लागू किया जाए। इसके साथ ही, जब कभी भी कोई महिला (बहु, बेटी या बहन) के रूप में किसी भी रिश्ते से होने वाली यौन हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए तो उसका साथ दीजिए, क्योंकि आपका साथ ही उन्हें बल देता है, ‘ग़लत के ख़िलाफ़’ खड़े होने का। सच कहने का और हिंसा न सहने का।  

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तस्वीर साभार : news18

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