समाज घरों में होने वाली हिंसा का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

घरों में होने वाली हिंसा का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

बच्चों पर हिंसा न सिर्फ उनके बचपन की मासूमीयत को छीन लेता है, बल्कि एक हिंसक वयस्क की नींव रखकर उन्हें भी हिंसक बनाता है।

“अब अगर ऐसा दोबारा हुआ तो टांगे तोड़ दूंगा तुम्हारी”, “हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी इस तरीके से अपने बड़ों से बात करने की, आगे से ऐसा हुआ, तो एक थप्पड़ पड़ेगा”। आए दिन हम अपने घरों में ऐसी बातें सुनते रहते हैं। सामान्य सी लगने वाली ये बातें बच्चों के मन पर गहरा असर छोड़ देती हैं। जहां एक ओर वे मानने लगते हैं कि हिंसा सामान्य बात है। वहीं, दूसरी ओर घर का ऐसा हिंसात्मक माहौल उन्हें अपनों से दूर कर देता है। अक्सर ऐसे घरवालों से वे नफरत तक करने लगते है। हाल ही में आई UNICEF की एक स्टडी के मुताबिक भारतीय घरों में 0 से 6 साल के बच्चों को लगभग 30 अलग-अलग तरीकों से शोषित किया जाता है। बच्चों के ख़िलाफ़ घरों में होने वाली हिंसा को हम मुख्य तौर पर तीन भागों में बांट सकते हैं।

शारीरिक शोषण : इसमें शामिल है बच्चे पर हाथ उठाना, छड़ी-बेल्ट-रॉड-स्केल से आदि से मारना, इत्यादि।

मौखिक शोषण : इसमें शामिल है बच्चे को दोष देना, उसकी आलोचना करना, उस पर चीखना-चिल्लाना, उनसे अभद्र भाषा में बात करना।

भावनात्मक शोषण : इसमें शामिल है बच्चे का आना-जाना बंद कर देना, उसे घर से बाहर न निकलने देना, उसे खाना न देना, उसके साथ भेदभाव करना, उसे डराकर रखना आदि।

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ऐसे व्यवहार को यह कहकर उचित ठहराया जाता है कि ऐसा बच्चों को अनुशासित करने के लिए जरूरी है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि कोरोना महामारी के इस दौर में छोटे बच्चे हिंसा, दुर्व्यवहार और उपेक्षा ज्यादा अनुभव करते है क्योंकि परिवारों के लिए कोरोना के इस संघर्ष से गुजरना बेहद ही मुश्किल हो रहा है।

     

बच्चों पर हिंसा न सिर्फ उनके बचपन की मासूमीयत को छीन लेता है, बल्कि एक हिंसक वयस्क की नींव भी रखता है। हिंसा किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश की प्रगति में एक बहुत बड़ी रुकावट है।

जो बच्चे बचपन में हिंसा को इतनी करीब से देख लेते हैं, उसका नकारात्मक प्रभाव उस बच्चे के शारीरिक विकास, आत्मसम्मान, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। कभी कभी तो यह तक पाया गया है कि घरों में होने वाली हिंसा की वजह से कुछ बच्चे समय से पहले बड़े हो जाते है और कुछ बच्चे अपनी उम्र से कम ही रह जाते है। 2006 की UNGA रिपोर्ट के मुताबिक़, जो बच्चे बचपन में अधिक हिंसा झेलते हैं, उनमें आगे जाकर नशीले पदार्थो के सेवन और यौन व्यवहार की भी जल्दी शुरू होने की संभावनाएं काफी ज्यादा होती हैं। साथ ही यह भी पाया गया है कि ऐसे बच्चों को आजीवन सामाजिक और भावनात्मक रूप से हानि होती है। ऐसे बच्चों में अवसाद, निराशा और चिंता के लक्षण भी दूसरे बच्चों की तुलना में अधिक पाए गए है। सार में कहे तो, “हिंसक घरों का बच्चों के दिमाग पर वही प्रभाव पड़ता है जो युद्ध का सैनिक पर”।   

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कुछ मामलों में तो ये भी पाया गया है कि ऐसे बच्चे आगे जाकर असामाजिक / आपराधिक गतिविधियों में अधिक शामिल होते हैं। यूनिसेफ अंतरराष्ट्रीय बाल विकास केंद्र की एक विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, “यह निस्संदेह बात है कि जो बच्चे बचपन में हिंसा का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, उनमे आगे जाकर हिंसक व्यवहार की संभावनाएं काफी हद तक बढ़ जाती हैं।” घर पर होने वाली हिंसा से कुछ बच्चे सब से अलग-थलग रहने लग जाते है। अपने ही घरवालों से भी वे दूरियां बनाने लगते हैं। कभी मौजूदा दोस्त छूट जाते हैं और कभी नए दोस्त नहीं बन पाते। ऐसे बच्चे बहुत ही अकेले पड़ जाते हैं और अपनी ही नजरों में उनका आत्मसम्मान बहुत ही गिर जाता है। ऐसे बच्चों में नशीली दवाओं और शराब की लत, किशोर गर्भावस्था, घर से भागना, आत्महत्या, किशोर अपराध करने का खतरा भी ज्यादा होता है। वहीं, कुछ बच्चे खुद ही को नुकसान तक पहुंचाने लगते हैं।  

साफ़ तौर पर, बच्चों पर हिंसा न सिर्फ उनके बचपन की मासूमीयत को छीन लेता है, बल्कि एक हिंसक वयस्क की नींव भी रखता है। हिंसा किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश की प्रगति में एक बहुत बड़ी रुकावट है। न सिर्फ इसकी कीमत कुछ लोगों को चोट या नुकसान देकर चुकानी पड़ती है, बल्कि पूरे समाज को अपनी शांति से समझौता करना पड़ता है। इसीलिए हमें जरूरत है हमारे समाज की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण ईकाई, ‘परिवार’ की इस हिंसा में भूमिका समझने की। जब तक हम ये नहीं समझेंगे, तब तक बदलाव की उम्मीद रखना भी गलत होगा। 

हमें इस प्रकार के ज्यादा से ज्यादा कार्यक्रम करने होंगे जिनके माधयम से परिवारजनों और अभिभावकों को बाल शोषण एवं बाल हिंसा के बारे में, इसके कई रूपों के बारे में, बच्चों पर इसके प्रभावों के बारे में बताया जाए, जागरूक किया जाए।  इस पूरी प्रक्रिया में ये अहम है कि अभिभावकों को साफ़ तौर पर ये बताया जाए कि उनका कौन-सा ऐसा व्यवहार है जिसे उन्हें बदलने की ज़रूरत है।  जब तक हम घरों में इस प्रकार की समस्यात्मक बातों, बर्तावों को साफ़ तौर पर पहचान नहीं पाएंगे, तब तक बदलाव बेहद मुश्किल ही रहेगा। इसीलिए बाल शोषण को रोकने के लिए जागरूकता फैलाने वालों को विशेष मेहनत करनी होगी, तभी हम मन-मुताबिक़ परिणाम देख पाएंगे।

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी   

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