नारीवाद सोशल मीडिया पर औरतों की मौजूदगी और उनकी अभिव्यक्ति

सोशल मीडिया पर औरतों की मौजूदगी और उनकी अभिव्यक्ति

दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज में एक औरत अपने साथ हुए शोषण के बारे में भी बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं है। लेकिन, इंटरनेट के माध्यम से सोशल मीडिया पर महिलाओं ने अपने निजी मसले पर खुलकर बोलना चुना, जहां उन्हें सहयोग मिला।

साल 2009 में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक इंटरव्यू में पत्रकार देबोराह सोलोमन ने ब्लॉग फेमिनिस्टिंग डॉट कॉम की संस्थापक जेसिका वलेंटी से पूछा कि क्या वह अपने आप को ‘तीसरी लहर की नारीवादी’ मानती हैं? इस सवाल के जवाब में वलेंटी ‘लहर’ शब्दावली के साथ अपनी असुविधा व्यक्त करते हुए कहती हैं, “शायद यह चौथी लहर का दौर है। शायद चौथी लहर ‘ऑनलाइन’ है।” हालांकि विज्ञान और लिंग के संबंधों के इतिहास को देखते हुए यह मानना कि तकनीक की उपज इंटरनेट या सोशल मीडिया नारीवाद के भविष्य में एक महत्वपूर्ण साधन होगा, विरोधाभाषी लगता है। शुरुआती दौर में विज्ञान ने समाज में महिला शोषण और भेदभाव को तथ्यात्मक सहयोग प्रदान कर इस लैंगिक भेदभाव को और अधिक गहरा किया। सांइटिफिक थ्योरी में अपनी राय रखते हुए चार्ल्स डार्विन ने कहा था, “महिलाएं अल्प विकसित लिंग हैं।” एक अन्य विक्टोरियाई जीव विज्ञानी ने कहा कि महिलाएं कभी भी बुद्धिमत्ता और रचनात्मकता में उस स्तर तक नहीं पहुंच सकती, जहां पुरुष हैं।

बीसवीं सदी तक यह कहा जाता रहा है कि महिलाओं के मस्तिष्क छोटे होते हैं जिसके कारण वे कम बुद्धिमान होती हैं। वैज्ञानिकों ने महिलाओं को पुरुषों से नीचे क्रम के लिंग समूह के रूप में देखा है। साथ ही अपनी भेदभाव वाली प्रवृत्ति को जायज़ ठहराने और स्त्री अधिकार की मांग को खारिज़ करने के लिए जैविक नियतिवाद यानी बायोलॉजिकल डिटरमिनिज़्म जैसी अवधारणाएं विकसित करते रहे हैं। यही कारण है कि आज भी समाज में तकनीकी कामकाज से लेकर वीडियो गेम्स तक में पुरुषों का प्रभुत्व है। ऐसा समझा जाता है कि स्त्री के मुक़ाबले पुरुष तकनीक में अधिक कुशल हैं। भारतीय समाज तो इस हद तक रूढ़िवादी है कि यहां बचपन से ही शिक्षा को लेकर यह माना जाता है कि लड़का विज्ञान और लड़की तथाकथित रूप से आसान विषय ही पढ़ सकती है।

तकनीक और विज्ञान के पितृसत्तात्मक ढांचे को लगातार नारीवादियों ने संशय की दृष्टि से देखा है। हालांकि हाल के समय में मीडिया के जानकार इसमें एक बड़े बदलाव की बात करते हैं। इंटरनेट ने नारीवादियों का एक नया ढांचा दिया है, जिसके माध्यम से वे अपनी सामूहिक परियोजनाओं को और अधिक विस्तृत, संगठित और वैश्विक बना सकती हैं। इससे नारीवाद दुनियाभर की महिलाओं की आकांक्षाओं को समेटते हुए व्यापक और अंतरराष्ट्रीय पहुंच बना पाएगा। ‘जेंडर एंड पॉलिटिक्स ऑफ पॉसिबिलिटीज़: रीथिंकिंग ग्लोबलाइजेशन’ में लेखिका मनीषा देसाई कहती हैं कि महिलाएं नीतिगत रूप में अपने भविष्य को लेकर काम करती हैं। उनका मानना है कि इंटरनेट के माध्यम से कम्प्यूटर नेटवर्किंग ने तमाम दायरे खोल दिए हैं, जिसके चलते वे पारंपरिक, पुरुष केंद्रित संचार क्षेत्रों और दायरों से आगे बढ़कर अंतरराष्ट्रीय योजनाओं में भाग लेती हैं। वे इसे ‘न्यू कल्चर ऑफ ग्लोबलाइजेशन’ का नाम देती हैं।

दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज में एक औरत अपने साथ हुए शोषण के बारे में भी बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं है। लेकिन, इंटरनेट के माध्यम से सोशल मीडिया पर महिलाओं ने अपने निजी मसले पर खुलकर बोलना चुना, जहां उन्हें सहयोग मिला।

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इंटरनेट ने महिलाओं को संगठित होने का अवसर दिया है। समाज में स्त्रियां हाशिए पर होती हैं। घर और परिवार से लेकर कार्यस्थल तक उनका अस्तित्व संकट में होता है। उन्हें आपसी सहयोग की ज़रूरत है। साथ ही, समाज में अपनी मज़बूत स्थिति के लिए उन्हें अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में भी अपनी साख मज़बूत करनी होगी। राजनीति से लेकर आर्थिक तंत्र तक उन्हें अपनी पहुंच बनानी होगी। निश्चित ही, सोशल मीडिया ने महिलाओं के अधिकार को लेकर संगठन के परिप्रेक्ष्य में एक नई सरहद खोल दी है। इसके माध्यम से आपसी सहयोग को बढ़ावा मिलता है और यह साझे अनुभवों पर ज़ोर देता है। ‘मीडिया मेन लिस्ट’ की निर्माता मोइरा डोनेगन #MeToo के बारे में लिखती हैं कि कैसे इस आंदोलन ने आधुनिक नारीवाद, व्यक्तिवाद और आत्म-निर्भरता की प्रकृति के बीच एक दरार खड़ी कर दी। वे कहती हैं कि #MeToo आंदोलन समुदाय और एकजुटता पर केंद्रित नारीवाद के एक पक्ष को केंद्रित करता है, जो नारीवादी परियोजना को नया स्वरूप प्रदान करता है। इस आंदोलन के माध्यम से लिंगभेद को खत्म करने की साझी ज़िम्मेदारी लेते हुए यह तय किया गया कि हम सभी को ऐसी दुनिया के लिए प्रयास करना चाहिए जिसमें किसी भी महिला को #MeToo का दावा नहीं करना पड़े।

2017 में शुरू हुआ #MeToo आंदोलन ‘सोलिडेरिटीज़ अक्रॉस बॉर्डर’ के माध्यम से ही दुनियाभर की महिलाओं के लिए एक परियोजना बन पाया। इसके माध्यम से महिलाएं अपने साथ हुई यौन हिंसा की घटनाओं के बारे में खुलकर बोल पाईं और दूसरी महिलाओं का उन्हें सहयोग मिला। दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज में एक औरत अपने साथ हुए शोषण के बारे में भी बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं है। लेकिन, इंटरनेट के माध्यम से सोशल मीडिया पर महिलाओं ने अपने निजी मसले पर खुलकर बोलना चुना, जहां उन्हें सहयोग मिला। इस तरह से हाशिए पर रही महिलाओं को व्यक्तिगत और सांगठनिक रूप से एक दूसरे का हौसला मिला। असल में, स्त्री की पहचान और उसके अस्तित्व को पुरुष दबाकर रखना चाहता है। अमेरिकी इतिहासकार जेर्डा लर्नर अपनी किताब ‘द क्रिएशन ऑफ पेट्रिआर्की’ में कहती हैं, “पितृसत्ता एक ऐतिहासिक व्याख्यान है, यह जैविक और मानसिक न होकर सांस्कृतिक प्रक्रिया का परिणाम है।” वे कहती हैं कि पितृसत्ता की शुरुआत इतिहास में निहित है, इसलिए ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप ही यह खत्म होगा। इसी संबंध में लेखिका मनीषा देसाई भी कहती हैं कि इंटरनेट के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के बीच राजनीतिक और सांस्कृतिक सहयोग बढ़े हैं, आपसी संवाद, संलग्नता और भागीदारी से ही लोगों के सोचने-समझने और व्यवहार करने की संस्कृति में बदलाव लाना संभव होगा।

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सोशल मीडिया ने महिलाओं को दोहरे स्तर पर मजबूती दी है। अव्वल तो यह कि वे व्यक्तिगत स्तर पर अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम हुई हैं। घरों में अक्सर उन्हें वह स्पेस नहीं मिलता जहां वे अपने मन की बात साझा कर सकें या देश-दुनिया में चल रहे मुद्दों पर अपनी बात कह सकें क्योंकि डाइनिंग टेबल पर बैठकर राजनीति पर विमर्श करने की प्रवृत्ति पर केवल पुरूष का अधिकार है। स्त्रियां अभी भी बहस कर रहे पुरूष समूह के लिए किचन में चाय बनाने तक ही सीमित हैं। दूसरे, सोशल मीडिया महिलाओं को सामूहिक सहयोग का एक ढांचा भी प्रदान करता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अभी भी पारंपरिक मीडिया में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है।

साल 2017 में वीमेंस मीडया सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रिंट, टीवी और न्यूज़ में औरतों को मात्र 38% बाइलाइन मिलती हैं। विकिपीडिया में मात्र 15% औरतें योगदानकर्ता हैं। सीएफआर में छपे एक प्रपत्र के अनुसार तकनीकी क्षेत्र में भी महिलाओं को बेहद प्रतिनिधित्व मिलता है। हालांकि समाज और इसके संस्थानों में लैंगिक भेदभाव को कम करने का सामर्थ्य सोशल मीडिया के पास उतना नहीं है क्योंकि आज भी सोशल मीडिया तक महिलाओं की पहुंच बहुत सीमित है। क़तर कम्प्यूटिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट की एक स्टडी के अनुसार उन देशों में, जहां ऑफ़लाइन जीवन मे बड़े स्तर पर लैंगिक असमानताएं होती हैं, वहां महिलाएं अपेक्षाकृत रूप से अधिक ऑनलाइन मौजूदगी दर्ज करती हैं। गूगल के एक सर्वे के मुताबिक़ 5 में से 1 ऑनलाइन ग्राहक महिला होती है। साथ ही यह भी दावा किया गया है कि आने वाले 4 सालों में यह आंकड़ा 20 से 40% बढ़ सकता है। ‘वी आर सोशल’ नामक समूह के एक सर्वे के अनुसार दुनिया के सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक पर 76% पुरुष हैं और 24% महिलाएं। हालांकि इन आंकड़ों में तेज़ी से बदलाव आ रहे हैं और बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप नामक एक संगठन यह दावा करता है कि 2020 तक लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट उपभोक्ता हो जाएंगी।

महिलाओं को ध्यान में रखते हुए देखें तो अभी भी ये आंकड़े बहुत कम हैं। साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लैटफॉर्म्स पर भी ऑनलाइन हिंसा का सामना महिलाओं को करना पड़ता है। लैंगिक भेदभाव के कारण समाज में ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों ही जगह और पुरुषों से पीछे हैं लेकिन धीरे-धीरे बदलाव आ रहे हैं। वे ऑनलाइन अपनी मौजूदगी तेज़ी से दर्ज करा रही हैं। मुख्यधारा को प्रतिस्थापित करते हुए तमाम वैकल्पिक प्लेटफॉर्म्स उभर रहे हैं, जिनमें महिलाओं के लिए ‘स्पेस’ हैं। महिलाएं शिक्षित और जागरूक हो रही हैं, वे सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में सकारात्मक रूप से भागीदारी कर रही हैं। उनकी इस यात्रा में सोशल मीडिया एक सहयोगी के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।

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तस्वीर साभार : यूनिसेफ इंडिया ट्विटर

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