संस्कृतिख़ास बात ख़ास बात : खबर लहरिया की संपादक कविता बुंदेलखंडी से

ख़ास बात : खबर लहरिया की संपादक कविता बुंदेलखंडी से

ख़बर लहरिया अलग- अलग स्थानीय भाषाओं और बोलियों में रिपोर्टिंग करता है और क्षेत्र विशेष के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाता है।

खबर लहरिया साल 2002 में उत्तरप्रदेश के चित्रकूट से शुरू हुआ मीडिया प्लेटफॉर्म है, जो स्थानीय मुद्दों को प्रमुखता से उठाता है। यह पूरी तरह से महिला नियंत्रित संस्थान है और इसकी खास बात यह है कि इसमें काम करने वाली अधिकतर महिलाएं ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। ख़बर लहरिया उत्तर प्रदेश की अलग- अलग स्थानीय भाषाओं और बोलियों में रिपोर्टिंग करता है और क्षेत्र विशेष के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाता है। पढ़िए, खबर लहरिया की एडिटर कविता बुंदेलखंडी से हमारी बातचीत।

सवाल : अपने संस्थान ‘खबर लहरिया’ के बारे में कुछ बताइए।

कविता : खबर लहरिया ग्रामीण परिप्रेक्ष्य से संचालित एक वैकल्पिक मीडिया प्लेटफ़ॉर्म है जो साल 2002 में उत्तरप्रदेश के चित्रकूट ज़िले में शुरू हुआ था। यह अख़बार ग्रामीण महिलाओं के एक समूह द्वारा बुंदेली में शुरू किया गया था। इसमें गांव के रोज़मर्रा के मुद्दे, उनसे जुड़े सवाल और हाशिए पर स्थित इलाकों की घटनाओं को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था। इस संस्थान में स्थानीय महिलाएं ही पत्रकार की भूमिका में थीं। ख़ास बात यह है कि यह ‘ऑल वीमेंस ऑर्गनाइज़ेशन’ है। इसमें कुछ ऐसी भी औरतें थीं जो केवल पांचवीं या आठवीं तक पढ़ी थी, यानी इसमें काम करने वाले लोग ‘प्रोफेशनल’ पत्रकार नहीं थे, लेकिन फिर भी हमने पुख्ते तौर पर महत्वपूर्ण स्थानीय मुद्दों को उठाया और ज़िम्मेदार लोगों से सवाल किए। साल 2002 में ग्रामीण आदिवासी इलाकों में पढ़ने- लिखने की कोई सामग्री मौजूद नहीं थी, न ही उनके मुद्दों पर बात की जाती थी, इसलिए जब हमने अखबार शुरू किया तो गांव के कुछ लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। हमारे इस अखबार ने गांव वालों को बाहरी लोगों से जोड़ा। इसको शुरू करने के पीछे सोच थी, समाज में मौजूद उस पारंपरिक धारणा को तोड़ने की, जो औरतों को कमज़ोर मानती है और जिसे लगता है कि पत्रकारिता जैसे जटिल कार्यक्षेत्र में महिलाएं टिक नहीं पाएंगी। इसलिए, हमने नारीवादी चश्मे से एक अखबार शुरू किया। शुरुआत में, खबर लहरिया दो पन्ने का अखबार था, ब्लैक एंड व्हाइट। धीरे-धीरे, जैसे- जैसे हमारी पहुंच बढ़ी, ख़बर लहरिया 2 से 4 पन्ने का हुआ, फिर 6 और आख़िर में 8 का, उसके बाद क़रीब साल 2014-15 में हम पूरी तरह से डिजिटल हो गए।

सवाल : साल 2002 में स्थानीय बोली में अख़बार शुरू करना एक क्रांतिकारी पहल थी, उससे भी ज़्यादा यह विचार कि यह संस्थान ‘ऑल वीमेंस ऑर्गनाइज़ेशन’ हो। महिला केंद्रित संस्थान बनाने के पीछे की सोच क्या थी और ऐसा करना कैसे संभव हुआ ?

कविता : हुआ यूं कि चित्रकूट ज़िले के एक गांव में एक नॉन गवर्नमेंट ऑर्गनाइज़ेशन थी, जो ‘महिला डाकिया’ नाम से बुंदेली भाषा में पत्रिका निकालती थी, बाद में वह पत्रिका बंद हो गई। यह पत्रिका गांव वालों के लिए सूचना तंत्र से जुड़ने का एकमात्र माध्यम थी। गांव में इसके अतिरिक्त कोई भी पत्रिका या अख़बार नहीं था। मैं इस एनजीओ से जुड़ी हुई थी। ‘महिला डाकिया’ पत्रिका के बंद होने के साथ ही गांव वालों के पास बाहरी दुनिया से संपर्क के सभी साधन बंद हो गए। गांव वाले मांग करने लगे कि उनके पास सूचना-सामग्री हो। ऐसी स्थिति देखकर हमने चर्चा की और अन्य महिलाओं को संगठित करना शुरू कर दिया। चूंकि सभी लोग ग्रामीण इलाके से ही थे, इसलिए महिला शोषण के मूल कारण अशिक्षा व आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भरता जैसे कारकों  से भली-भांति परिचित थे। इसलिए हमने तय किया कि संस्थान में काम करने वाली सभी औरतों को पारिश्रमिक प्रदान किया जाएगा। इस तरह से हमने सामाजिक रूढ़िवादी सोच को तोड़कर महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की दिशा में सहयोग किया।

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सवाल : आपका संगठन आंचलिक बोलियों  बुंदेली, अवधी, भोजपुरी और वज्जिका में क्षेत्र विशेष की रिपोर्टिंग करता है, प्रिंट मीडिया में काम करते हुए स्थानीय बोलियों में समाचार पत्र छापने का विचार कैसे आया?

कविता : शुरुआत बुंदेली क्षेत्र से की थी। दरअसल, हमारा मूल उद्देश्य ही क्षेत्रीय मुद्दों को उठाना और स्थानीय लोगों के लिए अखबार छापना था। स्थानीय ग्रामीण और आदिवासी इलाके मुख्यधारा के अखबारों से ग़ायब ही रहते थे। इसलिए हमने बुंदेली में ही अखबार छापना शुरू किया और धीरे-धीरे जब लोगों तक हमारी बात पहुंची, लोग अपने मुद्दों और बोली के माध्यम से हमसे जुड़ने लगे। फिर अलग-अलग ज़िलों से भी मांग उठी कि उनकी अपनी बोली में खबरे हो और स्थानीय मुद्दों को प्रमुखता से उठाया जाए। इसलिए बाद में हम उत्तर प्रदेश और बिहार तक गए और वहां अलग-अलग इलाके में स्थानीय बोली में अखबार छापा। चित्रकूट, महोबा जैसे इलाकों में बुंदेली में, वहीं लखनऊ और उसके आस-पास के इलाकों में अवधी में, फिर वाराणसी और आस-पास के क्षेत्र के लिए भोजपुरी में और उसके बाद क़रीब 3-4 साल बिहार के सीतामढ़ी में भी वहां की स्थानीय बोली ‘वज्जिका’ में काम किया। यह प्रिंट के ज़माने की बात है। साल 2014-15 के बाद से इंटरनेट के प्रसार के पश्चात हम पूरी तरह से डिजिटल हो गए हैं लेकिन डिजिटल होने का अर्थ यह नहीं है कि हमने अपनी बुनियादी प्रवृत्ति त्याग दी हो। हम अब भी प्रतिबध्दता से स्थानीय मुद्दों को स्थानीय बोलियों में उठाते हैं और यूट्यूब इत्यादि के माध्यम से जनमानस से लगातार जुड़े हुए हैं। 

सवाल : वर्तमान दौर में जब मुख्यधारा का मीडिया हिन्दू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान की बहसों में उलझकर रह गया है, ऐसे में गंभीर पत्रकारिता के मायने क्या हैं, साथ ही इन भूमिकाओं में आंचलिक प्लेटफॉर्म्स कहां खड़े नजर आ रहे हैं?

कविता : नहीं, स्थानीय प्लेटफॉर्म्स जो कर रहे हैं, उसे निश्चित तौर पर सीरियस पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता। आज की अधिकतर मीडिया चाहे वह स्थानीय हो या मुख्यधारा की, दोनों में ही जनता के ज़रूरी मुद्दों को प्रतिबद्ध होकर नहीं उठाया जा रहा है। आदिवासी इलाकों की मीडिया भी स्थानीय मुद्दों को सच्चाई से नहीं दिखा रही है। ये सब लोग बिकाऊं हैं और पैसे से ही इनकी पत्रकारिता चल रही है। मीडिया के लोग अगर सच्चाई से आवाज़ उठाते, तीखे सवाल करते और ग्रामीणों की हालत देश को दिखाए तो प्रतिनिधियों को सुनना ही पड़ता, लेकिन यह मीडिया की ही कमी है कि लोग त्रस्त हैं और व्यवस्था भ्रष्ट।

सवाल :  ग्रामीण इलाकों में अशिक्षा के कारण रूढ़िवाद और धर्म नियंत्रित सोच अभी भी प्रभावी है। ऐसे में समलैंगिकता या LGBTQIA समुदाय को लेकर उनमें स्वीकार्यता का भाव नहीं है और वे सीधे तौर पर इसे अप्राकृतिक मानते हैं। इस संदर्भ में समाज की वैचारिकी बदलने के लिए ख़बर लहरिया क्या कर रहा है?

कविता : खबर लहरिया मीडिया के तौर पर विभिन्न ज़रूरी मुद्दों पर लिखने का काम करता है, इन मुद्दों में जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, आदिवासियों के साथ शोषण, लिंग आधारित भेदभाव इत्यादि प्रमुखता से शामिल किए जाते हैं। हमने ऐसी बहुत सी ‘स्टोरीज़’ की है, जिसके जरिए हमने उनकी आवाज़ समाज तक पहुंचाने की कोशिश की है। हमने ज़िम्मेदार अधिकारियों से सवाल उठाए हैं और समाज को संवेदनशील बनाने के लिए लगातार लेख व कहानी छाप रहे हैं। हमें उम्मीद है, इस दिशा में लगातार किए जा रहे हमारे प्रयासों से समाज में बदलाव आएगा।

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सवाल : आज भी अगर ग्रामीण इलाकों की बात की जाए तो वहां अशिक्षा व्याप्त है, लोग लैंगिक आधार पर पारंपरिक सोच से ग्रस्त हैं। आज से 18 साल पहले उत्तर प्रदेश के किसी गांव में आप लोगों ने महिला केंद्रित संस्थान बनाकर पत्रकारिता जैसे प्रोफेशन में कदम रखा, यह निश्चित तौर पर पित्रसत्ता को सीधी चुनौती थी― क्या प्रतिक्रिया रही?

कविता : महिलाओं के एक कलेक्टिव के रूप में हम पत्रकारिता करने जा रहे हैं, यह देखकर पुरुष एकदम ख़िलाफ़ हो गए थे। सीधे कहा जाता,’ महिलाएं पत्रकार नहीं हो सकती हैं’। जब हम ग्राउंड पर काम करने जाते या किसी अधिकारी से बात करनी होती, हमारे साथ बुरा व्यवहार होता था, अधिकारी हमें  5 बजे के बाद या कभी-कभी तो 8 बजे के बाद घर बुलाते थे। वहां काम करने वाली अधिकतर महिलाएं गांव की ही थी, कुछ शादीशुदा थीं, ऐसे में उनका अपना परिवार भी था और गांव में तो औरतों को लेकर कितनी ही बातें होती हैं, ऐसे में अपने आप को स्थापित करना हमारे लिए बहुत मुश्किल था।  कई बार ये होता था कि अगर कोई दलित अथवा आदिवासी लड़की रिपोर्टिंग करने जाती और लोगों से सवाल पूछती तो लोग झल्ला कर चिल्लाते हुए कहते, ‘हम नहीं मानते कि तुम पत्रकार हो, यहां से भाग जाओ।’ कई बार तो खबर छापने के बाद आवाज़ को दबाने और बंद करने की कोशिश की गई, धमकियां मिली, गालियां मिली, बीच रास्ते मे घेरा गया। प्रिंट के ज़माने में हम पैदल जाते थे, लोगों को लगता था, वे हमें कहीं भी रोक सकते हैं, लेकिन हमने उन चुनौतियों के आगे हार नहीं मानी, हमने तय कर लिया था कि हम कंधे से कंधा लड़ाएंगे और इस काम को कर के दिखाएंगे। अखबार छपा, कितने ही लोगों का भंडाफोड़ हुआ, अधिकारी, राजनेता सहित जितने भी शोषणकारी थे उनके मन मे डर बैठने लगा कि ये औरतें मानने वाली नहीं हैं। उस समय जो स्थापित मीडिया था, उसने भी बहुत सी खबरें नहीं छापीं, ज़रूरी मुद्दे नहीं उठाए लेकिन ‘खबर लहरिया’ ने सच्ची रिपोर्टिंग करते हुए अपना नाम बनाया।

सवाल : डिजिटल क्षेत्र में काम करना प्रिंट के मुकाबले सस्ता है। शुरुआत में सामाजिक तौर पर तो खबर लहरिया को बहुत-सी चुनौतियां मिली ही, आर्थिक चुनौतियों भी कम नहीं रही होंगी, इन सब से कैसे निपटे?

कविता : हमने फ़ंड-रेजिंग करके पूंजी जुटाई। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का कलेक्टिव बनाकर खबर छापने के अतिरिक्त भी खबर लहरिया का एक वृहद उद्देश्य था– जिसमें महिलाओं को आत्म-निर्भर बनाने का विचार सम्मिलित था। हम जानते थे कि महिलाओं के शोषण व पिछड़ेपन का मूल कारण पुरुषों पर आर्थिक रूप से निर्भरता थी, इसलिए शोषण से मुक्ति के लिए उन्हें स्वतंत्र बनाना जरूरी था। इसलिए हमने अपनी सभी कर्मचारियों को वेतन दिया औरवेतन देने तथा अख़बार चलाने के लिए पूंजी हमने फंड-रेजिंग करके जमा की लेकिन आजतक हमने विज्ञापन नहीं छापे। धीरे-धीरे चीजें महंगी हुई और लगा कि अब प्रिंट चलाना सम्भव नहीं हो पाएगा, हमने स्थिति को समझते हुए देखा कि हमें प्रिंट से डिजिटल में आ जाना चाहिए, इसलिए हम डिजिटल हुए लेकिन अब भी ख़बर लहरिया वही कर रहा है, जो करना उसका उद्देश्य था।

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सवाल : भारत में महिलाएं विभिन्न स्तरों पर संघर्ष झेलती हैं, आपका निजी जीवन भी मुश्किलों से भरा रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में तो समस्याएं और भी गंभीर हैं। इस तरह ग्रामीण इलाके के मीडिया के रूप में खबर लहरिया ऐसा क्या कर रहा है जिससे किसी भी लड़की को वह सब न झेलना पड़े जो आपने या आपकी पीढ़ी की औरतों ने झेला है?

कविता: जी, आपने ठीक कहा, औरतों अनेक स्तरों पर संघर्ष झेलती हैं। लिंग आधारित शोषण की प्रवृत्तियां अभी भी समाज में गहराई तक मौजूद हैं। मैं यह भी मानती हूं कि अलग-अलग महिलाओं के संघर्ष भी एक दूससे से अलग-अलग हैं। हमारी पूरी कोशिश होती है कि खबर लहरिया सभी ज़रूरी मुद्दों को उठाए और समाज की वैचारिकी में बदलाव लाए। हमने सांस्थानिक स्तर पर सुधार भी किए हैं। हमने बहुत सारी ऐसी महिलाओं को जोड़ा है जिन्हें समाज नकार देता है। यहां उन्हें काम मिलता है और वेतन भी, साथ ही उनमें से जो महिलाएं अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती हैं, काम करने के साथ-साथ उन्हें यह अवसर भी हम देते हैं। इस तरह,वे खुद अपनी स्वतंत्र पहचान बना रही हैं, अपने अस्तित्व के लिए अब वे पुरुषों पर आश्रित नहीं हैं। उनके पास खुद की ‘एजेंसी’ है और वे निर्णयात्मक भूमिका में हैं, अब परिवार में उनका अपना स्थान है और वे घरेलू हिंसा व मारपीट सहने के लिए बाध्य नहीं हैं।

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