इंटरसेक्शनलशरीर महिलाओं के ‘चरमसुख’ यानी ऑर्गेज़म पर चुप्पी नहीं बात करना ज़रूरी है

महिलाओं के ‘चरमसुख’ यानी ऑर्गेज़म पर चुप्पी नहीं बात करना ज़रूरी है

आख़िर महिलाओं के ऑर्गेज़म अनुभव करने या नहीं करने के पीछे क्या किस्सा है, क्यों हमारे घरों और समाज इस पर इतनी कम बातचीत होती

अपडेट: फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी पर छपे इस लेख को लाडली मीडिया अवॉर्ड 2021 से सम्मानित किया गया है।

फीमेल ऑर्गेज़म वही शब्द है जिसे एक बॉलीवुड फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ में नायिका अपनी दोस्तों के साथ हंसी-ठिठोली करते हुए ‘चरमसुख’ कहती है। साल 2019 में ड्यूरेक्स कॉन्डम ने अपने एक ऐड कैंपेन में हैशटैग चलाया था #OrgasmInequality। इस कैंपेन में बताया गया था कि 70% से अधिक भारतीय महिलाएं सेक्स करते हुए ऑर्गेज़म का अनुभव नहीं करती। एक रियलिटी शो में विद्या बालन ने औरतों के ऑर्गेज़म के बारे में कहा था, “औरतों को यह पसंद है, उन्हें इसकी ज़रूरत है और वे इसे इतना ही चाहती हैं जितना कि कोई पुरुष।” आख़िर महिलाओं के ऑर्गेज़म अनुभव करने या नहीं करने के पीछे क्या किस्सा है, क्यों हमारे घरों और समाज में इस पर इतनी कम बातचीत होती, आइए इस लेख में जानें विस्तार से। 

भले ही आज के फीमेल ऑर्गेज़म के बारे में बात करने को समाज मंजूरी नहीं देता लेकिन इसका इतिहास आपको नया दृष्टिकोण देगा। हमेशा से यह विषय नैतिक तकिये और संस्कृति के ढोंग के नीचे दबाकर नहीं रखा गया था। ‘बसल ‘ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्यकालीन समाज में रोमांस पर लिखे गए उपन्यास चाहे आपको जो कहें लेकिन उस समय समाज की यह एक प्रचलित मान्यता थी कि महिलाएं सेक्स के दौरान ऑर्गेज़म की प्राप्ति वैसे ही करने में सक्षम थी जैसे पुरूष थे। 1700 के दशक में औरतों के शरीर को देखे जाने का नज़रिया बदलने लगा था। इतिहास और स्त्री स्वास्थ विशेषज्ञ एमिली ब्रांड कहती हैं, “किसी भी पद या वर्ग के पुरुष के लिए सेक्स को उसकी चाहत का अहम हिस्सा माना जाने लगा। लेकिन महिलाओं के लिए यह एक नैतिक रेखा की तरह थी, जो इसे पार कर जाए उसकी कोई वापसी नहीं थी। वैवाहिक रिश्तों में औरतों को सेक्स का आनंद लेने से मनाही थी।”

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1800 के दौर में महिलाओं के यौनिक ज़रूरतों को ‘हिस्टेरिया’ नाम के शब्द से मेडिकल शब्दकोश में डाल दिया गया। जब भी किसी औरत की पेल्विक मांसपेशियां हलचल करती और इस कारण वह परेशानी महसूस करती उसे हिस्टीरिया माना जाता। ‘विचरती बच्चेदानी’ जैसा शब्द ऐसी महिलाओं के साथ जोड़ा गया। डॉक्टर इसे ठीक करने के लिए ‘वाइब्रेटर’ का इस्तेमाल करने लगे। यह ‘वाइब्रेटर’ उन्हें यौन सुख और ऑर्गेज़म देने की मंशा से नहीं बल्कि उनकी यह कथित बीमारी ठीक करने के लिए उपलब्ध थे। महिलाओं के पार्टनर या वह खुद इसका इस्तेमाल अपनी यौन सुख पाने के लिए नहीं करती थी। साल 1940 में अल्फ़्रेड किंसले ने महिलाओं की यौनिकता पर एक बड़ा सर्वे किया। इस सर्वे और इसके परिणाम ने फीमेल ऑर्गेज़म को भ्रम, विचित्र घटना या प्रजनन से संबंधित होने के बजाय एक महिला की सेक्सुअलिटी से जुड़ा तथ्य मानकर सिद्ध किया।

हिस्टीरिया प्रतीकात्मक चित्र, तस्वीर साभार: Financial Times

किंसले ने लिखा, “40 फ़ीसद औरतें ऑर्गेज़म मास्टरबेशन के कारण महसूस करती हैं, 5% रात के सपनों (वेट ड्रीम) के कारण और 14 फ़ीसद औरतें एक ही बार में कई दफ़ा ऑर्गेज़म महसूस कर पाती हैं। सामान्य रूप से औरतों के ऑर्गेज़म महसूस करने की क्षमता 50-66 वर्ष के होने तक बढ़ती है।” महिलाओं की यौन इच्छा, आदतें, पसंद और यौन सुख के अलग-अलग तरीके व्यक्तिगत हो सकते हैं यह बात खुलकर सामने आई। साल 1960 के आस-पास का समय इस विषय पर आते नए-नए वैज्ञानिक सिद्धांतों का साल था। छोटे-छोटे कई वैज्ञानिक समूह फीमेल ऑर्गेज़म को इसी दुनिया की आम बात मान चुके थे। अब वे इसकी जैविक महत्ता जानना चाहते थे। कई तरह की थ्योरी सामने आती गई। जैसे, फ़ीमेल ऑर्गेज़म औरत के एक साथी के साथ रहने की सामाजिक संरचना को चुनौती देती है और यह कई मर्दों के साथ यौन संबंध स्थापित करने से जुड़ी बात है। हालांकि किसी भी वैज्ञानिक या थ्योरी ने अपने सिद्धांतों का सटीक विश्लेषण नहीं दिया।

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उसी समय डॉडसन जो कि एक अमेरिकी सेक्स एजुकेटर थे, उन्होंने लिखा कि सेक्स टॉय को नारीवाद आंदोलन के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। महिलाएं यौन सुख के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहेंगी और यह उनकी आज़ादी के नए आयाम खोलेगा। इस थ्योरी ने बहुत आलोचनाएं झेलीं। कई नारीवादियों ने इसका ‘डिलडो’ (सेक्स टॉय) के पुरूष के लिंग के आकार के होने और इसे पुरुषों पर निर्भरता घटाने के बजाय शादियों को बचाने के नुस्खे की तरह देखा था। साल 2000 और उसके बाद के समय में इसे महिला के मूड, मन और स्वास्थ्य से जोड़कर देखा जाने लगा।

बहुत कम औरतें ऐसी हैं जिन्हें यौन सुख प्राप्त करने के तरीक़े मालूम हो। उन्हें अपने शरीर को छूने और अपने शरीर के भेद खुद सुलझाने और इसी तरह से मास्टरबेशन की प्रकिया समझ पाने को लेकर घर के लोगों या स्कूलों में शिक्षित नहीं किया जाता।

भारतीय समाज और महिलाओं का ऑर्गेज़म

भारतीय समाज में पवित्रता का भार औरतों के शरीर से होते हुए उसके चरित्र पर लादा जाता रहा है। औरतों के लिए सेक्स की प्रक्रिया शादी के बाद उनके पति को यौन सुख देने या बच्चे पैदा करने तक सीमित रखी गई है। बहुत कम औरतें ऐसी हैं जिन्हें यौन सुख प्राप्त करने के तरीक़े मालूम हो। उन्हें अपने शरीर को छूने और अपने शरीर के भेद खुद सुलझाने और इसी तरह से मास्टरबेशन की प्रकिया समझ पाने को लेकर घर के लोगों या स्कूलों में शिक्षित नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन का पाठ क़िताब में होता है लेकिन इसे बच्चों तक सही-सही पहुंचाने से समाज बचता रहा है। संस्कृति और सभ्यता के नाम पर महिलाओं के लिए कई अनकहे नियम गढ़े गए हैं।

पैर सटाकर बैठना, तन ढककर कपड़े पहनना, मर्दों के सामने सिकुड़कर रहना, धीरे बोलना, हौले चलना जैसे नियम तो हैं ही लेकिन उनके पास अपने ही शरीर को लेकर जानकारी की कमी है। सेक्स एक दोतरफ़ा क्रिया और संवाद है जिसका हिस्सा औरतें इस गहरी झिझक और ‘शुद्धतावादी’ सोच के कारण नहीं बन पाती। इसलिए वे अपने शारीरिक सुख की न चिंता करती हैं न पुरूष पार्टनर के सामने इसकी मांग रखती हैं। कई बार जब उनका साथी उनसे इस बारे में बात करना चाहे तब भी वह अपने मन में समाज द्वारा बिठाए सेक्स की परिभाषा से निकलकर अपनी यौन इच्छाओं को ज़ाहिर नहीं कर पाती। ये भी जानना ज़रूरी है कि हमेशा निपल या क्लिटोरिस की वज़ह से महसूस की गई उतेजना भी फीमेल ऑर्गेज़म का कारण हो सकती है। कई औरतों को ये नहीं पता होता क्योंकि उन्होंने अपने शरीर को समझने की कोशिश पहले कभी नहीं की होती है। इस सजगता की कमी के कारण उन्हें ऑर्गेज़म से जुड़ी किसी समस्या पर हल मिलना नामुकिन हो जाता है। आम लोग सिनेमा जगत को आधुनिक समझते हैं लेकिन साल 2020 में भी फिल्मों में फीमेल ऑर्गेज़म और मास्टरबेशन के सीन पर बहुत सारे लोग आहत हो जाते हैं। उन्हें महिलाओं की यौन इच्छाओं का खुला प्रदर्शन भाता नहीं है। फीमेल ऑर्गेज़म को लेकर बातचीत पर इतनी पहरेदारी है कि औरतें अपने शरीर को समझने में अपराधबोध महसूस करती हैं।

सीरीज,’लस्ट स्टोरीज़’से एक सीन,तस्वीर साभार: Google

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बैरी कोमिसरुक का रिसर्च इस विषय पर रहा कि कैसे ऑर्गेज़म दिमाग़ से जुड़ा हुआ है। वह कहते हैं, “शारीरिक रूप से विशेष बनावट रखने वाली महिलाओं को समझते हुए मैंने पाया है कि कुछ महिलाओं ने केवल योनि में हुई उतेजना के कारण ऑर्गेज़म पाया और कइयों ने केवल स्तन छुए जाने या कुछ सोचने कारण इसका अनुभव किया है।” द गार्जियन की एक रिपोर्ट में लिखा गया, “लेसबियन महिलाएं 75% सेक्सुअल प्रक्रिया में ऑर्गेज़म पाती हैं।” इसलिए एक पार्टनर को इस बात का अनुमान लगाने के बजाय साथी महिला पार्टनर से यह पूछना चाहिए कि उन्हें ऑर्गेज़म प्राप्त हुआ या नहीं। कई महिलाएं ऑर्गेज़म को फेक करती हैं। महिला के सेक्स अनुभव को बेहतर करने के लिए उनकी पसंद के बारे में बात करना बहुत ज़रूरी है। बिना उन्हें जज किए, बिना उन्हें नैतिकता के घिसे-पिटे सामाजिक चश्मे से देखे। यह बात ख़ासकर पुरुष साथी के लिए लागू होती है।

साल 2018 में मेडिकल न्यूज़ टुडे के एक सर्वे में बताया गया किन किन वजहों से महिला चरमसुख नहीं पा पाती। जैसे, रिश्ते की दिक्कतें, स्ट्रेस, मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य, गर्भ समापन, महिलाओं का खतना, यौन हिंसा की बुरी यादें, थोपी सिखाई-गई धार्मिक मान्यताएं आदी । सही सेक्स एजुकेशन की कमी में नवयुवक पोर्नोग्राफी से सेक्स के बारे में जानते हैं। इस वीडियो में दिखाया गया फीमेल ऑर्गेज़म और असल में होने वाले फीमेल ऑर्गेज़म में ज़मीन आसमान का अंतर है। महिलाओं के ऑर्गेज़म से उनकी हार्मोनल स्थिति का संबंध होता है। अलग-अलग महिला शरीर अलग-अलग तरह की उतेजना को ऑर्गेज़म का रूप देती हैं। यह सुख उनके मानसिक दबाव को हल्का करता है, इम्युनिटी बेहतर करता है, अच्छे यौन संबंध बनाने में मदद करता है। 

ऑर्गेज़म के दौरान व्यक्ति को एक प्रकार का यौन उत्साह प्राप्त होता है, सेक्स में उत्तेजना बढ़ती है, अत्यधिक यौन सुख महसूस होता है, हृदय और रक्तचाप की गति बढ़ती है, कुछ महिलाएं पेल्विक और/या योनि के मांसपेशियों में हलचल अनुभव करती हैं। किसी का ऑर्गेज़म जल्दी नहीं होना उसे भावनात्मक या शारीरिक तौर पर ‘कठोर’ नहीं बनाता। यह भी जरूरी नहीं कि महिला जिससे भावनात्मक रूप से जुड़ी हो केवल उसी के साथ यह अनुभव कर सकती हैं। ये सारी बातें मिथ्या हैं। ये मिथ्य जमीनी स्तर पर तभी टूटेंगे जब महिलाएं समाज की बनाई रूढ़ियों को तोड़कर अपने शरीर और उसकी जरूरतों को महत्व देते हुए अपने सेक्सुअल पार्टनर से इस बारे में बात कर पाएंगी। औरतें जब अपने आसपास इन बातों पर अपना पक्ष रखेंगी तभी फीमेल ऑर्गेज़म बवाल के मुद्दे से उठकर आम बात बनकर उभरेगी, सिनेमा जगत सेक्स और ऑर्गेज़म को असभ्य महिला के चरित्र से बाहर एक सामान्य घरेलू औरत की जीवन की घटना की तरह दिखाने का कदम उठाएगा और वह फ़िल्में सराही जाएंगी। इसे शहरी ‘औरत के चोंचले’ बोलकर हटाए जाने की जगह हर वर्ग के समाज में इस पर बातचीत के आयाम खोले जाने की आवश्यकता है।

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तस्वीर : श्रेया टिंगल

Comments:

  1. आलिया खान says:

    बहूत ही अच्छा आलेख..

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