FII Inside News 2020 के 20 बेहतरीन नारीवादी लेख, जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

2020 के 20 बेहतरीन नारीवादी लेख, जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

1. चन्नार क्रांति : दलित महिलाओं की अपने ‘स्तन ढकने के अधिकार’ की लड़ाईईशा

बात 19वीं सदी की है। दक्षिण भारत के त्रावणकोर राज्य (जिसे आज हम केरला के नाम से जानते हैं) में ‘नीची ज़कों को बना रहे हैं ‘हिंसक मर्द– रोकी कुमार

मर्दानगी की दौड़ और पैमानें की हद तो तब हो गई जब हाल ही में इंस्टाग्राम पर 14 से 15 साल के लड़के एक ग्रुप बनाते है जिसका नाम बॉयज लॉकर रूम है । अगर हम इसके मतलब को समझने की कोशिश करें तो समझ में आता है कि ऐसी जगह जहाँ कोई अपनी निजी बातें कर सके । 14 से 15 साल के लड़के इस बॉयज लॉकर रूम में लड़कियों की तस्वीरें साझा करके उनके साथ रेप करने की बातें किया करते थे । यह वास्तव में हमारे पूरे समाज के लिए चेतावनी है कि हमारी नई पीढ़ी किस दिशा की तरफ बढ़ रही हैं । इन लड़को में ‘विषाक्त मर्दानगी’ का असर साफतौर पर नजर आ रहा है, जिसका बहुत  बुरा प्रभाव हमारे समाज पर पड़ रहा है ।

14- सेक्स वर्कर्स: लॉकडाउन में एक तबका, जिसकी कोई सुध लेने वाला नहीं है!हिना फ़ातिमा

कई रिपोर्टस बताती हैं कि देश में ज्यादातर सेक्स वर्कर्स दूसरे राज्यों से आकर यह काम करती हैं जिसकी वजह से उनके पास पहचान पत्र और आधार कार्ड जैसे कागजात अपने राज्य के होते हैं। इसी वजह से यह महिलाएं जनधन जैसी कई योजनाओं का लाभ नहीं ले पाती हैं। देशभर में सरकारों की तरफ से मजदूरों को राशन देने के दावे किए जा रहे हैं लेकिन सेक्स वर्कर्स इन दावों को गलत बता रही हैं। उनका कहना है कि सरकार की बजाय कुछ सामाजिक संगठन ऐसे हैं जो इस दौरान उन्हें राशन मुहैया करा रहे हैं।

15- 5 दलित लेखिकाएं जिनकी आवाज़ ने ‘ब्राह्मणवादी समाज’ की पोल खोल दी ! -ईशा

साहित्य के क्षेत्र पर हमेशा से अभिजात सवर्णों का वर्चस्व रहा है। पिछड़े वर्गों को कभी पढ़ने लिखने के लिए, अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुँचाने के लिए वो अवसर ही नहीं मिला जो ऊंची जातियों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता आ रहा है। इसलिए जब हम भारत के साहित्य या भारतीय लेखकों की बात करते हैं तो ऐसा कम ही होता है कि दिमाग़ में किसी दलित लेखक, ख़ासतौर पर लेखिका का नाम आए। पर अब ज़माना बदल रहा है। आज दलित लेखक और कलाकार अपने साहित्य और संगीत के ज़रिए अपनी कहानी पूरी दुनिया के सामने बयां कर रहे हैं। उन सारे अनुभवों और विचारों को व्यक्त कर रहे हैं जिनकी बात करने का मौक़ा ही नहीं मिला। और इनमें से एक बड़ा अंश महिलाओं का है, जिन्हें जातिवाद के साथ पितृसत्ता का भी मुक़ाबला करना पड़ता है। मिलवाते हैं आपको पांच दलित लेखिकाओं से जिनकी बुलंद आवाज़ एक क्रूर समाज का पर्दाफाश करती है, जिसने सदियों से उन्हें शोषित और लांछित किया है।

16- धर्म और परिवार : कैसे धर्म औरतों के जीवन पर प्रभाव डालता है– प्रीति कुमारी

बचपन से ही घर-परिवार और अपने आस-पास के माहौल में हम धर्म के अलग-अलग रूप का सामना करते हैं। धर्म हमारी जिंदगियों पर गहरा प्रभाव डालता है। धीरे-धीरे यह हमारे स्वतंत्र विचारों को नियंत्रित करता है। हमारे घर में भी एक आम हिन्दू परिवार की तरह ही त्योहार व्रत, पूजा- पाठ, कीर्तन आदि होते हैं। पूजा-पाठ परिवार के सदस्यों की दिनचर्या का हिस्सा है। घर में सबसे ज्यादा धार्मिक मेरी मां ही हैं। बचपन से मैं उन्हें इसी एक रूप में देखते आई हूं। पढ़ने-लिखने में रुचि होने के बावजूद मैंने उन्हें अखबार के अलावा किसी दूसरी किताब को पलटते नहीं देखा। पढ़ने के लिए उनके पास वही धार्मिक ग्रंथ, व्रत कथाओं की किताबें हैं। अब पूजा-पाठ उनके व्यक्तित्व का ज़रूरी हिस्सा बन चुका है। एक मध्यम वर्गीय हिन्दू औरत की तरह करवाचौथ से लेकर जीतिया, नवरात्र, जन्माष्टमी और सारे धार्मिक पर्व और सैंकड़ो व्रत-अनुष्ठान उनके जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। सोमवार का व्रत तो उनका नियमित व्रत है। पापा भी नियमित पूजा-पाठ करते हैं। पूजा-पाठ वाला घर हो तो व्रत के दौरान खाना भी शुद्ध शाकाहारी बनता है। मम्मी को छोड़कर घर में सब ही मांसाहारी है। इसके बावजूद वह हमारे लिए बड़ी सहजता से मांसाहारी भोजन बना लेती हैं।

17- औरत कोई ‘चीज़’ नहीं इंसान है, जिसके लिए हमें ‘अपनी सोच’ पर काम करना होगा।- चेतना

महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या वस्तु के समान चित्रण करना कोई नई बात नहीं है। इसका एक अच्छा खासा इतिहास है, जो हमें फिल्म जगत की ओर ले जाता है। क्या आपको नब्बे के दशक की फिल्मों में अभिनेत्री की ड्रेस याद हैं? वो कपड़े शरीर से इतने चिपके हुए होते थे कि सामान्य दिनचर्या में उन्हें पहनने पर सांस लेना भी मुश्किल हो सकता है। पर उस समय से ही फिल्मों में एक अभिनेत्री की शारीरिक बनावट को ज्यादा से ज्यादा दर्शाने की कोशिश होती थी, ताकि लोगो को फिल्म में मसाला मिल सके। जितना उन फिल्मों में अभिनेत्री मटक कर चलती थीं, क्या असलियत में भी कोई लड़की इतना मटक कर चलती हैं?

18- तलाक़ का फ़ैसला हो स्वीकार क्योंकि ‘दिल में बेटी और विल में बेटी’| नारीवादी चश्मा– स्वाती सिंह

‘तलाक़’ यानी कि शादी के बाद पति-पत्नी का अपनी सहमति से अलग होने का फ़ैसला। वो फ़ैसला जिसे हमारा समाज स्वीकार नहीं कर पाता है। अगर ‘तलाक़’ के फ़ैसले की पहल पुरुष करता है तो इसे स्वीकारना समाज के थोड़ा आसान होता है, क्योंकि ऐसे में महिला के चरित्र पर सवाल खड़े करना उसके अस्तित्व को कठघरे में लाना आसान होता है। लेकिन अगर तलाक़ के फ़ैसले की पहल महिला ने की होतो ये हमारे समाज के गले नहीं उतरता है और वो दोगुनी गति से महिला के चरित्र पर सवाल उठाता है।

19- देश की औरतें जब बोलती हैं तो शहर-शहर शाहीन बाग हो जाते हैं– रितिका

तिरंगा थामे, माइक थामकर प्रदर्शनों में भाषण देती, मीडिया के सामने आत्मविश्वास से जवाब देती औरतें, उनका ऐसा मिज़ाज बहुत दिनों बाद नज़र आ रहा है। 90 साल की औरतें भी उंगलियां नचा-नचाकर कह रही हैं, “आप हमें 500 में खरीदने आए हैं, हम आपको 1 लाख रुपये देते हैं, हमारे साथ आंदोलन में बैठकर देखो।” जिन मैदानों में, जिन पब्लिक स्पेसेज़ में महिलाओं की मौजूदगी कभी-कभार ही नज़र आती थी, अब वो मैदान 24 घंटे महिलाओं से पटे पड़े हैं। जिन सड़कों पर रात के अंधेरे में महिलाएं खुद को सबसे ज़्यादा असुरक्षित महसूस करती थी, आज उन्हीं सड़कों पर वे डटकर बैठी हैं। इन प्रदर्शनों में “रिक्लेम पब्लिक स्पेस” का नारा भी अपने आप हकीकत में बदलता जा रहा है। पुलिस आकर उन्हें धमकाती है तो वे भी पुलिस से सवाल-जवाब करती नज़र आ रही हैं। जबकि इनमें से आधे से अधिक वे महिलाएं हैं जो आज से पहले कभी प्रदर्शनों का हिस्सा रही ही नहीं।

20. राष्ट्रवाद और मानवाधिकार के संघर्ष में धुंधला पड़ा थाँगजम मनोरमा का इंसाफ़ – श्वेता चौहान  

हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है लेकिन इसके लिए स्थानीय लोगों के सहयोग की आवश्यकता है क्योंकि ये वही लोग है जो सुरक्षा के लिए अपने अधिकारों का बलिदान देंगे पर यह राष्ट्रीय सुरक्षा अगर किसी के जीवन और आत्मसम्मान के अधिकार पर खतरा हो तो यहां मानवाधिकार सर्वोपरि है। इसलिए जरूरी है अफस्पा जैसे कानूनों पर केंद्र का थोड़ा शिकंजा हो जिससे सेना में भी अधिकारों के हनन के मामले में खौफ रहे। 


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