इंटरसेक्शनलशरीर सुंदरता के पितृसत्तात्मक मुखौटे के पीछे भागता हमारा समाज

सुंदरता के पितृसत्तात्मक मुखौटे के पीछे भागता हमारा समाज

सुंदरता को प्राकृतिक नही बल्कि इतना ज़रूरी बना दिया गया है जिसके पास यह नहीं है वह इस पितृसत्तात्मक समाज में उपेक्षित और शोषित होता है। जिसके पास यह है उन पर वैसा दिखने का गंभीर दबाव रहता है।

कोरोना महामारी के दौरान अख़बार में प्रसिद्ध विचारक नोम चॉम्स्की की एक टिप्पणी पर नज़र गई। वह कहते हैं कि कोरोना वायरस का निदान इसलिए नहीं खोजा जा सका क्योंकि कंपनियों को सुंदर बनाने वाली क्रीम में ज्यादा दिलचस्पी थी। शायद उनकी बात सही भी है, सुंदरता को लेकर हमारे मन में अनेक भ्रम हैं और हम उससे पैदा होने वाली हीनता से अनजान रहते हैं। सवाल है स्त्री हो या पुरुष सुंदर दिखने की यह कामना एकाएक इतनी प्रबल क्यों हो चुकी है? सुंदरता आज प्राकृतिक नही बल्कि एक अनिवार्य गुण बन चुका है। सुंदरता के मापदंडों पर खरे उतरने का दबाव कई बार व्यक्ति के वास्तविक पहचान को नकारने की सहमति में बदलने लगता है। हम इंसान को उसके वास्तविक गुणों, व्यवहार की जगह केवल बाहरी गुणों के आधार पर पसंद या नापसंद करते हैं। गोरा रंग, नैन नक्श, भरे हुए होंठ, सुडौल गढ़ा बदन तो वहीं पुरुषों के लिए लंबा कद काठी, मजबूत बांहे, हेयर जेल से सेट किये बाल और खुशबूदार परफ्यूम का सम्मोहन। सुंदरता के इन्हीं पितृसत्तात्मक पैमाने के खांचे में फिट होने का दबाव डाला जाता है। जिसका सबसे ज्यादा असर आज युवा लड़कियों पर है इन पैमानों पर खरे उतरने वाली स्त्री ही पितृसत्तामक समाज के लिए एक सुंदर स्त्री हैं।

स्त्री चेतना से लेकर स्त्री को देखने के नज़रिये और समाज में स्त्री छवि को बदलने में तमाम संगठन और आंदोलनों की अहम भूमिका रही। सुंदरता के गढ़े गए इन प्रतिमानों पर नारीवादी चिंतकों का आलोचनात्मक रवैया रहा है। जो महिलाओं को हमेशा सुंदर दिखने के लिए प्रेरित करते हैं उन्हें हमेशा सज-धज बने रहने को विवश करते हैं। भारत में भी सुंदर दिखने की इस प्रबल कामना ने स्त्री सौंदर्य के लिए की जाने वाली तमाम नुस्खे, सौंदर्य प्रसाधनों की बढ़ती लोकप्रियता ने अनजाने ही स्त्री को एक वस्तु के रूप में देखने के लिये बाध्य कर दिया है। हर गली मोहल्ले में खुले ब्यूटी पार्लर इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सुंदरता हमारे जीवन में कितनी अनिवार्य चीज़ है। यहां फेयरनेस क्रीम का नाम बदल सकता है, उसकी ज़रूरत नहीं। गोरा देखने और दिखने की मानसिकता वही है। बढ़ती उम्र, अधिक वजन, बच्चे के जन्म के बाद ऐसी कुछ अवस्थाएं है जिसमें औरतें सहज महसूस नहीं करती। वे सुंदर दिखते रहने का दबाव महसूस करती हैं। मनचाही सुंदरता को न पाने की चिंता और अवसाद उन्हें हमेशा घेरे रहता है। साहित्य की नायिकाओं, श्रृंगार रस के सौंदर्य के पैमाने से लेकर आज के फिल्मी गानों तक हम सौंदर्य को पुरुषवादी चश्मे से देखने के आदी हो चुके हैं। यह सुंदरता आरोपित और इतनी सहज है कि महिलाएं इसे ही अपनी वास्तविक पहचान मान चुकी हैं।

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मेकअप जो चेहरे के फीचर्स उभारने में सहायक होता है वह एक मुखौटा बन चुका है। मेकअप हमारा हुलिया बदलने के साथ-साथ हमें एक ऐसा रूप दे देता है जो हम वास्तव में नहीं है। कई बार यह बदलाव हमारे वास्तविक पहचान से बिल्कुल विपरीत होता है। सुंदरता को लेकर आलम यह है कि भारतीय कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री में पिछले कुछ सालों में बहुत बड़ा उभार आया है और यह अमेरिका और यूरोप की तुलना में दोगुनी ग्रोथ कर रही हैं। भारतीय कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री 6.5 बिलियन डॉलर का कारोबार है। 2025 तक यह 20 बिलियन डॉलर के पार होने का अनुमान है। अंग्रेजी लेखिका और दार्शनिक मेरी वॉल्स्टन क्राफ्ट इस बारे में लिखती हैं, “महिलाओं को बचपन से ही सिखाया जाता है कि सुंदरता ही स्त्री का सब कुछ हैं। जबकि असलियत में मन ही शरीर का निर्माण करता है और असलियत न जानने के कारण क्षोभ के जेल में उलझकर, केवल जेल को सजाया जा सकता हैं।”

यह समझने की ज़रूरत है स्त्री कोई कलाकृति नहीं है। वह भी एक जीती-जागती इंसान है, उसकी भी उपयोगिता है। इस उपयोगिता के बगैर वह केवल भोग की वस्तु बन कर रह जाएगी। स्त्री जीवन के निर्धारण में सुंदरता एक बड़ा पैमाना है। बदलते समय में सुंदरता के प्रतिमान भी बदले है। स्त्री हो या पुरुष सब इस बनाई हुई  ‘सुंदरता’ में  फिट रहने का दबाव महसूस करते है। स्त्रियों के जीवन पर सुंदरता का दबाव इस कदर है की वह सजने-संवरने और हर समय सुंदर दिखने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगी है। इस का प्रभाव इस कदर हावी है कि बगैर मेकअप में दिखने की कल्पना भी मुश्किल हैं। जो लिपस्टिक चेहरे पर आत्म विश्वास भरती है उस के बगैर अधूरापन भी महसूस होता है। घर हो या ऑफिस सुंदरता का मुखौटा हर समय लगाए रखने की विवशता रहती हैं। इतना ही नही लड़कियों के खड़े होने, बैठने के ढंग में, खाते हुए भी उनके अंदर एक मन मोहक छवि के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करने का दबाव हावी रहता है।

यह दबाव पुरुष तंत्र की ही देन है, जिसने उसे एक देह से ज्यादा तवज्जो ही नहीं दी। स्त्री को केवल अपनी देह की सुंदरता को बनाए रखना, रिझाने, हमेशा खूबसूरत लगना और आत्म मुग्धता में ही व्यस्त रखा गया। वह छोटी लड़किया हो या कोई महिला। हर वक्त खूबसूरत दिखना उसके जिन्दा होने से ज्यादा ज़रूरी बना दिया गया। नाक, होंठ के आकार या काले रंग के प्रति हीनतबोध हावी रहता है जिससे उन्हें बॉडी डिसफॉर्मिक डिसॉर्डर जैसी गंभीर बीमारी घेर लेती हैं। ऐसे लोग आजीवन अपने शरीर के प्रति असन्तुष्ट रहते हैं। अगर हम गौर करें तो पाएंगे की बस-मेट्रो में ज्यादातर लड़कियां और कामकाजी स्त्रियां भी सोशल मीडिया पर ऐसी वीडियोज देखना पसंद करती है जो उन्हें और सुंदर दिखने में मदद करे। किसी आयोजन के लिए कैसे वस्त्र धारण करे। गहने, मेकअप, सजने-संवरने की तमाम जानकारी से घिरी एक लड़की हर वक्त सुंदर दिखने की चाहत लिए रहती है।

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इस सुंदरता में हाई हिल्स चार चांद लगाती है। इसे पहनने के बाद किसी भी काम को आसानी से और तेजी से कर पाना उनके लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है, वह बस इठला भर सकती है। उससे होने वाले दर्द में भी मुस्कुराना, ऐसी पीड़ा में भी लड़कियां सहज बनने का तरीका निकाल लेती हैं। कम हाइट की लड़कियों के लिए हाई हिल्स वरदान बन कर आई है पर क्या वह भी सचमुच सुंदरता की ग्रन्थि से मुक्त है? कुदरत ने हमारे पैर सपाट बनाए हैं और जरूरत होती तो वह उसमे पेन्सिल की नोंक जितनी ऊंचाई लगाकर देता। चीन में स्त्रियों के पैरों में लकड़ी के बन्द खांचो को पहनने पर जोर दिया जाता था ताकि उनके पैर हमेशा छोटे आकार के बने रहे। कुछ ऐसी ही नीति विश्व की हर महिला पर लागू कर दी गई है। उन पर हाई हिल्स पहनने का दबाव रहता है चाहे वह कितनी असहज महसूस करे। 

सुंदरता को प्राकृतिक नही बल्कि इतना ज़रूरी बना दिया गया है जिसके पास यह नहीं है वह इस पितृसत्तात्मक समाज में उपेक्षित और शोषित होता है। जिसके पास यह है उन पर वैसा दिखने का गंभीर दबाव रहता है।

असहजता ही सुंदरता का पर्याय बन चुकी हैं और स्त्रियां इस में अपने आप को ढालने का काम बखूबी करती हैं। दुनिया भर में महिलाएं अपने कम्फर्ट और सुरक्षा के लिए बेझिझक लड़ी है ‘बर्निंग ब्रा’ मूवमेंट इसका उदाहरण है। यही जागरूकता हर स्तर की महिला में आना ज़रूरी है ताकी हमारे जीने का ढंग किसी और के नियंत्रण में न हो या वह सहज और सुरक्षित हो। जर्मेन ग्रीयर लिखती है “आजादी, वे आजादी चाह सकती हैं! आजादी, आंखों में आंखें डालकर देखते इंसान की बजाय देखी जा रही चीज़ होने से। संकोच से आज़ादी। आज़ादी मर्दों की खाई- अघाई चाहत को उकसाते रहने की जिम्मेदारी से जिसकी नाक तले किसी की भी छाती की सख्ती या किसी भी टांग की लंबाई नहीं आती। आज़ादी तकलीफदेह कपड़ों से जिनका पहना जाना मर्दों को गुदगुदाने के लिए ज़रूरी है। उन जूतों से आजादी जो हमे छोटे कदम लेने पर मजबूर करते है और हमारे कुल्हो को उभारते है। पेज 3 के सदा के बने रहने वाले किशोर सुलभ लावण्य से आजादी।”

दूसरी तरफ हम एक ऐसे लुभावने और आकर्षक माहौल में रहते हैं, जिसमें बाजार, मीडिया, फैशन डिजाइनर्स के फ्यूचर डिजाइन्स ने हमारे जीने के ढंग को बदला ही नहीं बहुत हद तक असहज भी कर दिया है। पुरुषों के वस्त्रों के मुकाबले गौर करे तो पाएंगे की महिलाओं, लड़कियों के कपड़े कितने तंग, भड़कीले रंगों और असहज होते हैं जिसमें वह खुद सहज नहीं महसूस करती। उनका वस्तुकरण कर दिया जाता है। सुंदरता को प्राकृतिक नही बल्कि इतना ज़रूरी बना दिया गया है जिसके पास यह नहीं है वह इस पितृसत्तात्मक समाज में उपेक्षित और शोषित होता है। जिसके पास यह है उन पर वैसा दिखने का गंभीर दबाव रहता है। पूंजीवादी समाज सुंदर और असुंदर दोंनो स्त्रियों को उपेक्षित और शोषित करता है। इसी मानसिकता के चलते समाज सुंदर स्त्री को बुद्धिमान और बुद्धिमान औरत को सुंदर मानने से इनकार करता आया है। पितृसत्तात्मक पैमाने स्त्री पुरुष में भिन्नता ही नहीं पैदा करते बल्कि यह अमीर और गरीब में भी एक बहुत बड़ा फर्क पैदा करते हैं उनमें हीनताबोध महसूस करवाते है क्योंकि कॉस्मेटिक और तमाम सौंदर्य प्रसाधनों पर पहुंच सबके बस की बात नहीं।

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पितृसत्तात्मक समाज में मर्दानगी पुरुषों के लिए उसी तरह अनिवार्य है जैसे सुंदरता स्त्री के लिए। गोरापन के तमाम नुस्खे, कलाई पर पर्स, भारी भरकम हेयरस्टाइल, नेल आर्ट, बांहों को गोरा और चिकना बनाये रखने की फिजूल चिंता। वहीं लड़को के लिए जहां पहले एक्का दुक्का चीजें थी अब वह भी अपनी सुंदरता का खास ध्यान देने लगे है उनके लिए तमाम तरह के हेयर जेल, फेशवॉश, शेविंग से जुड़े तरह तरह की चीजें मौजूद हैं। होंठ, बाल, आंख, नाक मूलतः एक जैसा होने के बावजूद सौंदर्य के नाम पर स्त्री और पुरुष को ज्यादा अलग दिखाने के उपाय खोज निकाले लिए गए हैं। इतना ही नही परफ्यूम की अलग-अलग जरूरत और खुशबू के जरिये लैंगिक भेदभाव भी बखूबी कायम किया जाता है। उन्हें शारीरिक और मानसिक परिश्र्म में एक दूसरे से कमतर दिखा कर अलग-अलग खुशबू के परफ्यूमस के चुनाव के लिए प्रेरित किया जाता है। लड़कियों को यही तो सिखाया गया जीवन हो या शरीर असहजता में ही ख़ुश रहो और स्थितियों से समझोता कर लो। इन पितृसत्तात्मक मापदंडों को जब कोई लड़की अपनाने से मना करती है या उसे चुनौती देती है तो उसे अपमानित और उपेक्षित कर दिया जाता हैं। 

कभी-कभी लगता है ये ऐसी अनावश्यक बाधाएं है जिस पर लड़कियो ने कभी सोचना जरूरी नहीं समझा। क्या वाकई इतना कुछ करना आवश्यक होता है? सुंदरता को इतनी अहमियत क्यों दे? ऐसे सौंदर्य की सामाजिक भूमिका क्या है? जब चारों तरफ एक जैसे लोग दिखने वाले हैं। हम समूह से अलग तो नही दिख रहे इसका जरा सा भी डर हमारा आत्मविश्वास कम कर देता है। पितृसत्ता हमारे व्यवहार, सोचने के तरीके, को अनुशाषित करता है कई बार यह सहमति से होता हैं कई बार आरोपित। वरना सहज वस्त्रों का चयन करने में क्या बुराई हो सकती है, बेझिझक अपने रंग को स्वीकार कर सकते हैं। खुद को को सितारे-मोतियों से सजाना फिजूल लगने लगेगा। यह बात अजीब नही लगेगी की सलवार पर भी जूते पहने जा सकते हैं। ट्रेंडी लगने की जगह फूहड़ नजर न आए इसलिए असहजता भी स्वीकार्य होती हैं। जर्मेन ग्रीयर ने बिल्कुल ठीक कहा है कि “हर मनुष्य के देह का अपना एक आदर्श वजन और आकार होता है जिसे सिर्फ स्वास्थ्य और दक्षता ही नियत कर पाती हैं। स्त्रियों के शरीर से निष्क्रिय सुंदर वस्तुओं की तरह पेश आकर हम स्त्री और उसके शरीर दोनो को विकृत कर देते हैं।”

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सुंदरता कोई बुरी बात नहीं है पर उसे ही एक मात्र कसौटी बना देना दूसरी बात है। स्त्रियों को अपने बाहरी छवि को लेकर जितना दबाव दिया जाता है उसकी जगह उन्हें अंदर से मजबूत और सक्षम बनाने पर जोर देना चाहिए। बार्बी डॉल स्त्री सौंदर्य का एक उपयुक्त उदाहरण है। उसके नैन-नक्श, खूबसूरत सुडौल और कमसिन अंग जिसने अमरीका ही नहीं दुनिया भर की लड़कियों में सुंदर बनने की चाहत की तीव्रता को और मजबूत करने में मुख्य भूमिका निभाई। मेरी वॉल्स्टन क्रॉफ्ट “पालन पोषण की उस पद्धति की आलोचना करती है जो लड़कियों को ‘बचपन से ही एक व्यक्ति के स्थान पर देह’ को विकसित करने को प्रेरित करती हैं।” क्या यह सुंदरता केवल और केवल बड़ी-बड़ी कम्पनियों, विज्ञापन और फैशन इंडस्ट्री के फायदे के लिए है? सौंदर्य प्रतियोगिताएं की क्या समाजिक भूमिकाएं है? स्त्री की बाहरी सुंदरता के पैमाने तो वही पितृसत्तात्मक है पतली कमसिन देह, कटाव घुमाव, सुडौल बदन। जिसे आमतौर पर एक मजबूत स्त्री की छवि की तरह पेश किया जाता है। प्रतियोगिता में हाज़िरजवाबी, समझदारी अगर पितृसत्तात्मक के अनुकूल हो तो जितने की संभावना और बढ़ जाती है। आगे जाकर भी वह इसी पितृसत्तात्मक मूल्यों को आगे बढ़ाती है खुद को हर समय हर जगह सुंदर दिखाना। अपवाद ही है जो समाज में धरातलीय परिवर्तन और विकास के लिए सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में कदम रखती है, वरना फैशन या फ़िल्म इंडस्ट्री का एक हिस्सा बनना ज्यादा पसन्द करती हैं।

अमेरिकी नारीवादी नाओमी वुल्फ कहती हैं, “स्त्री के पतलेपन पर तय की गई संस्कृती स्त्री सौंदर्य के बारे में नहीं बल्कि स्त्री आज्ञाकारिता के बारे में एक जुनून है। डाइटिंग महिलाओं के इतिहास में सबसे शक्तिशाली राजनीतिक शामक हैं।” सुंदरता का अगर यही पैमाना है तो करोड़ों लड़कियां, स्त्रियां इस दायरे से अपने आप ही बाहर हो जाती हैं क्योंकि ऐसा दिखने की न उनमे स्वभाविक सहमति है न संसाधन। गोरी,चिकनी नाजुक त्वजा, भरी पूरी सजाई हुई देह का मतलब है अपने आप का वस्तुकरण में रूपांतरण। जो देखने में आकर्षण भले हो उसका कोई महत्व नहीं। शारीरिक सौंदर्य किसी एक चीज़ पर निर्भर नहीं है जिसे पाकर आप सुंदर लगे, स्थान परिवेश, काल के अनुरूप बदलती रहती हैं।

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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