इतिहास वामपंथी नेता कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा की किताब ‘दी शार्प नाइफ ऑफ़ मेमोरी’ पर एक नज़र

वामपंथी नेता कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा की किताब ‘दी शार्प नाइफ ऑफ़ मेमोरी’ पर एक नज़र

कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा की लिखी ये किताब महिलाओं के राजनीतिक जीवन को लेकर एक विशेष टिप्पणी है।

कोलकाता में मेरा आगमन, एक छात्रा के रूप में हुआ। विद्यार्थी संगठन और राजनीति के प्रति मेरी रूचि कॉलेज के दिनों में बनी और विकसित हुई। कोलकाता आने से पहले राजनीतिक संगठनो को लेकर मैंने काफी बातें सुनी थी – और खासकर के उन संगठनों के बारे में, जो कि वामपंथी या ‘लेफ्ट’ राजनीतिक विचारधारा के अनुसार अपना कार्य और अभ्यास आगे बढ़ाने में रूचि रखते है। मैंने सुना था कि इस विचारधारा के दायरे में, लिंग के आधार पर आवाज़ उठाने के बावजूद, महिलाओं पर विभिन्न रूप से मानसिक एवं शारीरिक अत्याचार होता है और अक्सर उनका शोषण अपने ही संगठन के सदस्यों द्वारा किया जाता है। कोलकाता आने के बाद ना ही मैंने ऐसी बातों के पीछे छिपी सच्चाई को अपने आंखों से देखा, बल्कि स्वयं अनुभव भी किया। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि इतिहास में इस विचारधारा वाली राजनीतिक अमल ने बहुत सी कामयाबियां भी हासिल की और बहुत सी महिलाओं ने इसमें अपना योगदान, बिना किसी रुकावट दिया। लेकिन मेरे द्वारा अनुभव की गई परेशानियों के बारे में विचार-विमर्श करना भी राजनीति पर अमल करना है। बस इसी कारणवश मैंने कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा द्वारा लिखी गई स्मरणचित्र को आप सब के सामने लाने की एक छोटी सी कोशिश की है।

सोशल एक्टिविस्ट एवं लेखिका, गीता रामास्वामी ने कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा की बायोग्रफी , दी शार्प नाइफ ऑफ़ मेमोरी’ के परिचय में हमें बताया है कि इस किताब के बाजार में आने के बाद, तेलुगु साहित्य समाज के पैरो तले ज़मीन खिसक गयी। बहुत लोगों ने इस किताब को ख़रीदा, बहुतों ने कोटेश्वरम्मा से मिलने की इच्छा जताई, साथ ही कई लोग इस किताब को पढ़कर अपने आखों के आंसू रोक न सके। तेलुगु भाषा में, कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा द्वारा लिखी गई ‘निर्जना वारधी’ सन 2012 में प्रकाशित हुई। सौम्या वी. बी. ने इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के बाहर के पाठकों के लिए ‘जुबान बुक्स’ नामक संस्थान द्वारा प्रकाशित हुआ। 

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कोटेश्वरम्मा का यह स्मरणचित्र विचारोत्तेजक होने के साथ-साथ अत्यंत विस्तृत भी है। इस किताब के पन्ने पलटते हुए कही भी पाठकों को ऐसा एहसास नहीं होगा जैसे कोटेश्वरम्मा के जीवन की कोई भी स्मृति अधूरी रह गई हो या छूट गई हो। इन सबके अतिरिक्त, अत्यंत दुखद घटनाओं के स्मृतियों को पाठकों के सामने लाते हुए भी, उनके लिखने के लहजे में न तो नाराजगी है, और न ही कड़वाहट। अगर है तो केवल दिल को दहला देने वाली उदासीनता। इसका सबसे पहला उदाहरण हमें शुरुआत के पन्नों में ही दिखाई पड़ता है। इन पन्नों में, कोटेश्वरम्मा स्मरण करती है, अपनी उस संतान को, जो जन्म के कुछ महीनों में ही चल बसा। इस दुखद विषय को वह केवल एक वाक्य लिखकर समाप्त करतीं हैं, “शायद उसे लगा कि मैं उसका ख्याल रखने में असमर्थ रहूंगी।“ ऐसे पीड़ा के विषय में वह इसके आगे और कुछ भी नहीं कहती। शुरुआत में मुझे ऐसा महसूस हुआ की शायद अपने जीवनकाल में बहुत से प्रतिस्पर्धा के अनुभव होने पर वह एक स्मृति पर ज़्यादा समय व्यतीत नहीं कर सकती लेकिन इस पुस्तक को आगे पढ़ने पर हमे ऐसा आभास होता है कि यही उनके लिखने का और अपने आप को अभिव्यक्त करने का अंदाज़ है। कोटेश्वरम्मा की यादें हमें साम्यवादी और वामपंथी राजनीतिक जीवन व्यतीत करती हुई महिलाओं के स्थान के बारे में भी बताती हैं।

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गर्भावस्था में भी इस महिला कामरेड ने अपने काम में रुकावट नहीं आने दी। बीसवीं सदी के आखिर में जब सरकार ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’ पर प्रतिबंध लगाया तब बहुत से वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं को छिपना पड़ा था। कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा और उनके पति भी इनमें शामिल थे। इसी दौरान वह गर्भवती भी हुईं। उनकी गर्भावस्था को लेकर पार्टी के भीतर बातचीत हुई और कोटेश्वरम्मा को गर्भसमापन करवाने का आदेश दिया। उन दिनों उनके ‘हाइडिंग’ में होने के कारण उन्हें अस्पताल ले जाना खतरे से खाली नहीं था। इसीलिए बिना किसी मेडिकल पर्चे के पार्टी ने अपनी तरफ से जड़ी-बूटी से गर्भसमापन करवाया, पर उसके साथ साथ खून की कमी होने के कारण, उनकी तबियत बिगड़ गई और वे कई दिनों तक कमज़ोर रहीं। इस पूरे किस्से को बयां करते हुए, अपने स्मरणचित्र में, कोटेश्वरम्मा ने न ही पार्टी को दोषी ठहराया और न ही अपने पति को, जिन्होंने इस आदेश का किसी तरह से विरोध नहीं किया। पाठकों को कहीं भी यह नहीं बताया गया कि गर्भसमापन होने के दौरान कोटेश्वरम्मा ने क्या महसूस किया या उनकी इस विषय पर सहमति थी भी या नहीं। उनकी हर एक स्मृति में यदि कुछ झलकता है, तो वो है दूसरों के प्रति उनकी कृतज्ञता की भावना। दुखद से दुखद अवसर पर उन्होंने लोगों की अच्छाइयों पर अमल किया है।

कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा की लिखी ये किताब महिलाओं के राजनीतिक जीवन को लेकर एक विशेष टिप्पणी है।

कोटेश्वरम्मा के राजनितिक जीवन में आख़िरकार एक ऐसा पल भी आया जब वह और उनके कामरेड्स अपने प्रतिबंधित जीवन से बाहर निकलकर, साधारण लोगों की तरह अपना जीवन व्यतीत करने लगे। इस दौर में, न केवल कोटेश्वरम्मा के पति ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में अस्वीकार किया और घर छोड़कर चले गए, बल्कि उन्होंने खुद को पढ़ाया, लिखाया और उन दिनों आंध्र प्रदेश में चल रहे दुर्गाबाई देशमुख द्वारा शुरू किये गए एकल महिलाओं के लिए एक स्कूल में शिक्षा ग्रहण की और फिर अपने पैरों पर खुद खड़ी हुई। कुछ सालों में उन्होंने अपने जीवन के हर उस शख्स को खोया जिन्हें वह जान से भी ज़्यादा मानती थी पर इन सबके बावजूद वे प्रेम, सादगी और कृतज्ञता से भरी रही। उनके द्वारा लिखी इस स्मरणचित्र में एक विशेष बात और झलकती है, चाहे मौका ख़ुशी का हो या दुख का, चाहे उनके संतान का अंतिम संस्कार ही क्यों ना चल रहा हो, उनकी किसी भी स्मृति में अपने सुख और दुखों के साथ वह अकेली नहीं दिखलाई पड़ती।

इस स्मरणचित्र में, उन्होंने अपने पति का बहुत कम उल्लेख किया है। कोंडपल्ली सीतारमैया, उस समय के अविभाज्य पार्टी ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’ के सदस्य थे।उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (एम. एल.) (पीपल्स वॉर)’ का भी निर्माण किया। कोटेश्वरम्मा के लेखन में सीतारमैया का उल्लेख तभी हुआ है जब उन्होंने कोटेश्वरम्मा के जीवन को काफी गंभीर रूप से प्रभावित किया। पाठक सीतारमैया के विवाहेतर सम्बन्ध के बारे में जान पाते हैं, लेकिन केवल इसीलिए क्योंकि उनका अपनी पत्नी को छोड़ने का यह भी एक कारण था। सीतारमैया का जिन महिला के साथ सम्बन्ध था कोटेश्वरम्मा यह ख्याल रखती हैं कि उनके बारे में किसी भी प्रकार की निजी जानकारी पाठकों तक न पहुंचे। न उन्होंने उस महिला पर ज़्यादा कुछ लिखा, न ही उनकी ओर किसी भी प्रकार की घृणा जताई। जब कोटेस्वरम्मा के बेटे, चंदू ने उनसे कहा कि वह सीतारमैया का एक पति के रूप में न सही, एक क्रांतिकारी के रूप में सम्मान करे तो उनका उत्तर केवल इतना ही रहा, “न मैं उनसे नफरत करती हूं, और न ही उनका सम्मान।“

सीतारमैया के अंतिम दिनों में पीपल्स वॉर ग्रुप ने उनका बहिष्कार कर दिया था। उनका मानसिक स्वास्थय भी ठीक नहीं था। लोगों के द्वारा निरंतर निवेदन करने पर भी कोटेश्वरम्मा ने अपने पति से मिलने के अवसर ठुकरा दिए। जब उनकी पोती अपने नाना की हालत देखकर उन्हें अपने विजयवाड़ा वाले घर लेकर आई, उस समय वहां कोटेश्वरम्मा भी रह रही थी। वे एक ही घर में रहे, लेकिन कोटेश्वरम्मा उसी घर की अलग मंज़िल में रहीं और सीतारामय्या से तभी मिली जब या तो वह उनके पसंद का कोई पकवान बनाती, या सीतारमैया खुद से उन्हें उनका खाना पकाने को कहते। सीतारमैया के अंतिम संस्कार के अवसर पर, कोटेश्वरम्मा ने वह पल स्मरण किया जब उन्होंने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में ये सोचकर छोड़ा की वह उनके योग्य नहीं। सीतारमैया के अंतिम संस्कार पर उनके पार्टी का कोई भी उनके मृत शरीर और उनके राजनीतिक योगदान को सम्मानित करने नहीं आया सिर्फ इसीलिए, क्योंकि उनकी अपनी पार्टी से वैचारिक मतभेद हो गया था। इन बातों को सोचकर, कोटेस्वरम्मा यह आभास करने की कोशिश करती हैं कि क्या जीवन और राजनीति में कभी शांति, प्रेम और सम्मान का कोई स्तर नहीं? शायद पाठक भी, और खासकर वे पाठक जिन्होंने राजनीतिक जीवन जीने की कोशिश की है, जीवन के इसी विचार को लेकर सोचेंगे।

कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा की लिखी यह किताब महिलाओं के राजनीतिक जीवन को लेकर एक विशेष टिप्पणी है। कोटेश्वरम्मा के बारे में हम यही जान पाते है कि वे एक समर्पित साम्यवादी क्रांतिकारी रही। पार्टी का विभाजन होने पर भी वह दोनों पार्टी ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’ एवं ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सिस्ट)’ को अपना सदस्यता शुल्क भेजती रही। दोनों ही पार्टी के लोग उनसे बेहद प्रेम करते रहे और उनके हर दुखद समय पर उनका साथ दिया। पार्टी के कार्यों में समर्पित होने के बावजूद उन्होंने पार्टी द्वारा दर्शाए गए अमानवीय और अनैतिक व्यवहारों पर हमेशा सवाल उठाए। कोंडापल्ली कोटेश्वरम्मा को आज भी उनके प्रियजन और चाहने वाले ‘अम्माम्मा’ के नाम से पुकारते हैं और याद करते हैं। उनका देहांत 11 सितंबर 2018 में 101 साल की उम्र में हुआ। ठीक उनकी माताजी के ही तरह, उन्हें भी एक साम्यवादी क्रांतिकारी के रूप में सम्मानित किया गया और उसी रूप में आने वाले समय में याद भी किया जाएगा।

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यह लेख अनामिका दास ने लिखा है, एमफिल की छात्रा हैॆ

तस्वीर साभार : twitter

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